प्राचीन भारतीय समाज में महान पुरुषों की तीन श्रेणियाँ बनाई गई थी - प्रथम ऋषि, द्वितीय मुनि तथा तृतीय देव है। इन्होंने इस धरा पर मानव, मानव समाज, सृष्टि तथा परमतत्व को समझने के सर्वप्रथम प्रयास किया। इसलिए हम समाज निर्माण में उनके योगदान को समझने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने मानव समाज को गढ़ने में अथक प्रयास किया। उनकी देने के प्रति आज दिन तक किसी कलमकार ने ध्यान नही दिया। भारतवर्ष के धर्मशास्त्रकारों ने उनकी छवि तो निखारी लेकिन उनके योगदान को पर्दें के पीछे से ही रखा है। आज हम प्रथम बार यह कोशिश कर रहे हैं। कोशिश के इस क्रम में सर्वप्रथम ऋषि, मुनि तथा देव शब्द की परिभाषा को समझते हैं।
ऋषि - महान पुरुष एवं नारियों की यह श्रेणी भौतिक मानसिक जगत में शोध कर मनुष्य तथा उसके समाज के कार्य को सरल बनाया गया है। आधुनिक युग में इस श्रेणी के लोगों को वैज्ञानिक कहा जाता है।
मुनि - मननशील लोगों की यह श्रेणी मानसाध्यात्मिक जगत में शोधकर मनुष्य एवं उनके समाज के चलने की दिशा तथा दशा को तय किया है। आधुनिक युग में इस श्रेणी को दार्शनिक कहा जाता है।
देव - आधुनिक युग का महापुरुष शब्द इस श्रेणी के लिए है। यह व्यष्टि भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक जगत में मनुष्यता के लिए ऐसा कार्य कर जाते हैं कि जन सामान्य एवं गुणीजन इनका अनुसरण करते हैं।
ऋषि, मुनि एवं देव के अथक प्रयास से मनुष्य जाति को श्रुति शास्त्र, धर्म शास्त्र, दर्शन शास्त्र एवं समाज शास्त्र मिला है। जिसके द्वारा समाज शासित होता है, मनुष्य का निर्माण होता है तथा मनुष्य का जीवन लक्ष्य निर्धारित होता है।
ऋषि, मुनि एवं देवगण शब्द संस्कृत भाषा से लिए गए हैं तथा पात्र का चयन प्राचीन भारतीय समाज से किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं ऋषि भारतवर्ष के लिए अथवा भारतीय समाज के लिए ही कार्य किया है। उनका कार्य मानवता के लिए होता है। उनके मन में राग द्वेष, मोह, धृणा इत्यादि विकारों से परे होता था। इसलिए इन्हें भारतपुत्र नहीं विश्वपुत्र कहा जाता है। भारतवर्ष की सीमाओं से परे भी ऋषियों का कार्य क्षेत्र था। भारतवर्ष से बाहर भी ऋषि हुए उन सबका आदर एवं सत्कार कर आलेख को प्रगति दी जाती है।
समाज निर्माण में ऋषियों का योगदान
१. गुरुकुल की स्थापना कर मनुष्य निर्माण का महायज्ञ संपन्न किया - ऋषि मुनि शब्द आते ही एक गुरु अथवा आचार्य छवि सामने आती है। मानो उनकी छवि इस रुप में ही समा गई है। प्रत्येक ऋषि मुनि कम से कम एक गुरुकुल का संचालन करता था। उसमें भावी पीढ़ी का निर्माण होता था। प्राचीन भारतीय समाज की जो संरचना सामने आती है। उसके अध्ययन से एक बात स्पष्ट होती है कि शिक्षा में कोई भेद अथवा रुग्ण मान्यता का समावेश नहीं था। यद्यपि शिक्षा सबके लिए सुलभ थी कहना हवा में तीर मारने के समान है लेकिन इतना अवश्य तय है कि शिक्षा के लिए किसी के लिए द्वार बंद नहीं थे। योग्य पात्र एवं जिज्ञासु को ही शिक्षा देने का नियम था। हो सकता इस नियम के कारण अजिज्ञासु तथा अयोग्य व्यक्ति शिक्षा से वंचित भी रहता होगा। गुरुकुल के शिष्य चयन प्रक्रिया बताती है कि यह समाज के हर व्यक्ति छूकर निकलती थी। जिससे शिक्षा प्राप्त करने वाला योग्य पात्र शिक्षा से अछूता नहीं रहे। इस हम समझ सकते है कि समाज में गुरुकुलों द्वारा प्राथमिक एवं जरुरी शिक्षा की व्यवस्था सबके लिए उपलब्ध कराने की व्यवस्था की होगी। जिन्हें सदगुण संस्कार शिक्षा तथा जीवन एवं समाज शिक्षा कह सकते हैं। महाभारत के पात्र कर्ण एवं एकलव्य जैसे कुछ उदाहरण अवश्य ही गुरुकुल शिक्षण पर प्रश्न करते हैं तथा बताया जाता है कि शिक्षा का सार्वभौमिकरण सूत्र स्थापित नहीं था। प्रश्न उठाते कि शिक्षा पर मात्र ब्राह्मण एवं क्षत्रिय का अधिकार था। इस कथन की छानबीन में समाज की तस्वीर की ओर चलना पडेगा। प्राचीन भारतीय समाज में सुव्यवस्थित व्यापारिक व्यवस्था दिखाई देती है। यह कला बिना व्यवसायिक शिक्षा के कैसे संभव थी। ठीक उसी प्रकार कुशल श्रमिक एवं सिद्धहस्त सारथी की प्रशंसाएं की गई है। महाभारत में तो शल्य राज्य को सारथी प्रशिक्षण केंद्र के रूप में दिखाया गया।
शूद्र एवं नारी को वेद अध्ययन से वंचित रखने वाले ऋषि समाज को समाज निर्माण के आदर्श रुप में कैसे रखा जा सकता है? यह शंका हर मन झकझोर ने वाली है। जहाँ संगच्छध्व, सर्व भवन्तु सुखिनः तथा वसुधैव कुटुबंकम जैसे सर्वाभौमिक तथ्य देने वाले समाज में नारी तथा शूद्र के प्रति उक्त धारणा बौद्धिक दिवालयापन की ओर ईशारा करता है। लेकिन सत्य शोध किया जाए तो यह दु व्यवस्था कालांतर के बौद्धिक दिवालयापन की उपज है। ऋषि समाज में जहाँ बाल्मीकि जगमगाते रहे, उस पर ऐसा आक्षेप निराधार अर्थहीन है।
२. चिकित्सा एवं अभियांत्रिकी क्षेत्र में ऋषियों की भूमिका :- समाज निर्माण का एक ओर अभिन्न अंग चिकित्सा तथा अभियांत्रिकी क्षेत्र है। शिक्षा के बाद ऋषि मुनियों ने जिस क्षेत्र में काम किया वह चिकित्सा तथा अभियांत्रिकी क्षेत्र है। वैदक शास्त्र, आयुर्वेद, विष चिकित्सा, राक्षसी शल्यचिकित्सा, योग चिकित्सा तथा प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में ऋषियों का कार्य अतुलनीय है। एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर तथा होमियोपैथी के प्राथमिक सूत्र ऋषि परंपरा में लिखे गए थे। जिस प्रकार शिक्षा के माध्यम से आदर्श समाज के निर्माण की प्रथम जिम्मेदारी है उसी प्रकार चिकित्सा क्षेत्र भी समाज स्वस्थ, स्वच्छ तथा सुखद बनाने की महत्वपूर्ण भूमिका है। यहाँ समाज शिक्षा की भांति सीधी रीति से नहीं बनता है लेकिन यह समाज को रुग्ण तथा विछिप्त होने रोक कर समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अब थोड़ा अभियांत्रिकी क्षेत्र में जाते हैं। यंत्र के क्षेत्र में बैलगाड़ी से लेकर वे सभी आवश्यक यंत्र जिस से समाज सुखी हो सके इस का निर्माण करने में ऋषि परंपरा ने प्रथम हस्ताक्षर किए थे। कुएँ से पानी निकालने के रहट, रुई कुतने के चरखे इत्यादि आज के युग की अवेहलित यंत्र प्राचीन समाज के लिए उन्नत थे। यंत्र विज्ञान के दिशा में महाभारत की यांत्रिक मछली तथा द्रोणाचार्य घडियाल उस युग की उन्नत यांत्रिकी का परिचय देता है। मैं पुष्पक विमान को उन्नत यांत्रिकी के प्रमाण के रूप में पेश नहीं कर रहा लेकिन उस सोच की ओर आपका ध्यान खिंच रहा हूँ, जो मानव को पक्षी की भांति आकाश एवं अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करने के प्रेरणा देता है। अभियांत्रिकी क्षेत्र मनुष्य के समाज को सुखी समृद्ध एवं प्रभावशाली बनाने में मददगार होता है। अतः हम कह सकते हैं कि ऋषि परंपरा में अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भी योगदान दिया था।
३. विज्ञान एवं खगोल शास्त्र के क्षेत्र में ऋषियों के हस्ताक्षर - सौर मण्डल, ग्रह नक्षत्र तथा खगोलीय ज्ञान ने अंतरीक्ष तथा आकाश में ऋषियों का परचम लहराने में भूमिका का चित्रण करता है। रसायन, भौतिक, गणित एवं जीव विज्ञान में हमारे ऋषि ने काम किया है, ऐसे प्रमाण मिले हैं। परमाणु विज्ञान तथा दिव्यास्त्र का उल्लेख को कल्पना नहीं कहा जा सकता है। अतः समाज निर्माण के इस तीसरे क्षेत्र में भी ऋषियों का कार्य आदर्श है।
४. अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र तथा व्यापार वाणिज्य में ऋषियों भूमिका - समाज निर्माण का चतुर्थ अंग अर्थव्यवस्था, समाज विज्ञान, राजनैतिक जगत एवं व्यापार वाणिज्य क्षेत्र का विधान रचने में ऋषियों की कलम चली थी। रामराज्य नामक आदर्श राजनैतिक व्यवस्था की रचना ने समाज के लिए एक समाज नीति का रेखाचित्र बनाया है। उसी प्रकार समाज का एक चित्र पेश किया उसे वर्णव्यवस्था में क्रमबद्ध किया है। वर्णव्यवस्था शब्द आते ही आधुनिक समाज शास्त्रियों की चाय प्याली में तूफान उठेगा। यह व्यवस्था आधुनिक समाज शास्त्रियों के लिए शोध का विषय है। वर्णव्यवस्था को विराट पुरुष के सिर, भुजाओं, पेट तथा पैर के रूप में रखना किसी भी प्रकार की उच्च निच का चित्रण नहीं था अपितु मानव में व्याप्त कार्यक्षमता को सुव्यवस्थित करने का प्रयास है। पैर किसी दृष्टि सिर से हेय नहीं है। आज के समाज के अस्पृश्यता व छुआछूत यह कालांतर की बौद्धिक विकास के गलत दिशा में गमन का परिणाम है तथा इसके लिए दूसरों को दोष देना शुभ नहीं है। व्यापार व वाणिज्य की आदर्श व्यवस्था स्थापित करने में ऋषियों ने अपना योगदान दिया है।
५. कृषि, उद्योग तथा व्यवसाय में ऋषियों का दृष्टिकोण - ऋषि मुनि समाज पर भार नहीं थे, उनके गुरुकुल में कृषि, उद्योग तथा व्यवसायिक क्षेत्र की शिक्षा की व्यवस्था होने के प्रमाण है। अतः कह सकते हैं कि समाज के इस क्षेत्र में ऋषियों की दृष्टि गई थी।
६. मजदूर एवं नौकरशाही के क्षेत्र में ऋषियों का चिंतन - समाज का सबसे निचला व मध्यम अंग श्रमिक व कार्य सहायक के क्षेत्र में ऋषियों का ध्यान गया था। उन्होंने इनके अधिकार एवं कर्तव्य को रेखांकित किया है। उनका पालन पुत्रवत करने का संदेश स्मृति शास्त्र में मिलता है।
७. समाज सुधारक एवं सामाजिक समरसता व एकता में ऋषियों का योगदान :- प्राचीन भारतीय समाज में जाति व्यवस्था नहीं वर्णव्यवस्था थी, ऐसा इतिहास में हम सबने पढ़ा है। इस व्यवस्था के निर्माता ऋषियों को बताया जाता है। वर्णव्यवस्था कर्मप्रधान थी, यह भी पढ़ा गया है। ऋषि मुनियों के इस कार्य ने समाज में समरसता एवं एकता बनाये रखा। समय समय पर नव परिवर्तन कर ऋषि मुनियों ने समाज सुधारक भी किये है।
८. समाज शिक्षक के रूप में ऋषि - प्राचीन भारत के ऋषि केवल गुरुकुल के ही शिक्षक नहीं होते थे। वे समाज शिक्षक भी होते थे। समाज उन्हें अपना पथप्रदर्शक मानता था। उन्हें सदैव आचार्य के रूप में आदर मिलता था तथा वे भी आचार्य की भूमिका में सदैव रहते थे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने के ऋषि जन सामान्य की मदद करते थे।
९. समाज के आदर्श ऋषि - समाज ऋषियों को आदर्श मानता था। उनकी जीवन शैली से समाज में सभी का जीवन जीने का तरीका बनता था।
१०. धर्म एवं आध्यात्म के बिम्ब थे ऋषि - प्राचीन भारतीय ऋषि का प्राण धर्म आध्यात्म तथा धर्म था। अपने आत्म ज्योति को सदैव जगमगाए रखते थे तथा धर्म उनके चलने, जीने तथा रहने का मुख्य अंग था। यह सब कुछ छोड़ सकते थे। जिसमें प्राण भी शामिल हैं। लेकिन धर्म को नहीं छोड़ते थे।
ऋषि मुनियों के समाज निर्माण में योगदान समझने के बाद कतिपय ऋषियों से परिचय कर विषय को समाप्त करते हैं।
१. ब्रह्मर्षि वशिष्ठ - ऋषि परंपरा में सबसे बड़ी उपाधि ब्रह्मर्षि होती थी। वशिष्ठ संभवतः धरती के प्रथम व्यक्ति थे। जिन्हें ब्रह्मर्षि की उपमा मिली थी। उनसे पूर्व इस उपमा से उपमित किसी ऋषि का नाम नहीं मिला है। इन्हें अयोध्या नामक राजकुल का राजगुरु व राजपुरोहित बताया गया है। राजगुरु का अर्थ राज्य के लिए शिक्षा, दीक्षा, नीति तथा व्यवस्था की रीति नीति निर्धारित करने वाला व्यक्ति। यह पद राज्य में राजा से उपर होता था। राजपुरोहित का अर्थ रीतिरिवाज एवं धर्म कर्म का निर्धारण करने वाले व्यक्ति से है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के पास अयोध्या नामक गणराज्य की दोनों धरोहर होने के कारण वशिष्ठ का अयोध्या को एक आदर्श राज्य बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है। वशिष्ठ पीठ द्वारा रचित रामराज्य दुनिया का प्रथम सामाजिक नाट्य था। जिसको तात्कालिक तथा बाद के समाज ने खुब सराहना की थी।
२. राजर्षि विश्वामित्र - राजा से ऋषि बनने वाले विश्वामित्र ब्रह्मर्षि के पद को भी प्राप्त किया था। विश्वामित्र का समाज निर्माण में योगदान अनोखा रहा है। इन्होंने हर मुश्किल से मुश्किल तथा नामुमकिन से नामुमकिन चुनोती को स्वीकार किया है। उसने हर घमंड को चकनाचूर करने का प्रयास किया है लेकिन उनके कर्म से जन सामान्य को दुखी नही किया है।
३. देवगुरु बृहस्पति एवं दैत्यगुरु शुक्राचार्य - प्राचीन भारत में आर्य सूर तथा अनार्य असूर के संघर्ष की कहानियाँ भरी हुई है। सुर यानि देवगुरु तथा असुर दैत्य गुरु की भूमिका में क्रमशः वृहस्पति तथा शुक्राचार्य का नाम आता है। मनुस्मृति की भांति ही शुक्र तथा वृहस्पति स्मृति चर्चा में थी।
४. नारदमूनि - भारतीय भक्ति शास्त्र में नारद का नाम आता है। यह काल्पनिक पात्र था अथवा वास्तविक यह विषय का बिन्दु नहीं है लेकिन शास्त्र में जो भी पात्र चित्रित है, वह समाज का आदर्श पात्र है। उससे समाज प्रभावित हुआ है। यह सदैव एक संदेश वाहक की भूमिका में रहा था। इसलिए आज का समाज उन्हें दुनिया का प्रथम पत्रकार मानता है।
५. परशुराम ऋषि से देवत्व पद तक - परशुराम एक ऋषि थे, उन्होंने ने कर्म शक्ति के बल पर भगवान पद को प्राप्त किया था। उनके कर्म ने युग पर हस्ताक्षर किए थे।
६. महर्षि वेदव्यास - वेद, महाभारत तथा पुराणों के रचनाकार समाज शिक्षा के अग्रदूत थे। उनकी पीठ आज भी आख्यान पीठ है।
७. ऋषि बाल्मीकि - समाज के निम्न वर्ग एवं हेय कर्म से संबंधित रखने वाले व्यक्ति ने ऋषि पद प्राप्त किया था। उनके हस्ताक्षर रामायण नाम ग्रंथ पर हुए तथा उन्होंने राम नाम का अविष्कार किया था।
८. विश्वकर्मा एवं देव समाज - कुछ प्राकृतिक शक्तियों एवं कर्म कौशल के धनी को देवता एवं भगवान कहा गया है। जिसमें विश्वकर्मा शिल्प के देवता श्रेणी में रखा है।
८. उत्तर के आचार्य एवं उनके कार्य - द्रोण, चाणक्य तथा धर्माचार्य - परिवर्तित काल के आचार्य को ऋषि परंपरा के समक्ष रखकर अध्ययन करते हैं। जिसमें चर्चित नाम आचार्य द्रोण है। जो एकलव्य के अंगूठे के कारण चर्चित रहे हैं। उनका महाभारत समाज निर्माण में योगदान था, आचार्य चाणक्य का तात्कालिक समाज निर्माण में योगदान अतुलनीय है। अन्य धर्माचार्य व राजाचार्यों ने समाज निर्माण में योगदान दिया।
९. बुद्ध, महावीर एवं धार्मिक शिक्षकों का समाज निर्माण योगदान -बुद्ध व महावीर जैसे धार्मिक शिक्षकों ने मनुष्य की जीवन शैली निर्माण के दिशा में चिन्तन दिया जिसको लेकर समाज का निर्माण हुआ है।
१०. महापुरुष एवं समाज निर्माण - समाज निर्माण में ऋषि मुनियों के योगदान के अध्याय को अन्तिम रूप देने के क्रम में महापुरुष के योगदान को नमन किया जाता है।
-----------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
-----------------------------
0 Comments: