गुरु पूजा (GURU POOJA)

साधना के बाद गुरु पूजा करने का प्रावधान है। जिसमें एक बार ध्यान मंत्र, तीन बार गुरु वंदना मंत्र तथा एक बार समर्पण मंत्र का सस्वर गायन किया जाता है। उसके बाद गुरु को साष्टांग कर किया जाता है। 

गुरु की पूजा करने का नाम गुरु पूजा है। गुरु मनुष्य को ब्रह्म से मिलता है। इसलिए गुरु का आभार प्रकट करना एवं‌ धन्यवाद प्रकट करने की व्यवहारिक प्रक्रिया का नाम गुरु पूजा दिया गया है। 

                गुरु ध्यान 
साधना समाप्ति के बाद उसी आसान में सबसे पहले गुरु का ध्यान किया जाता है। जिसमें गुरु के स्वरूप को धारण करने के लिए एक मंत्र का सहारा लिया जाता है। जिसमें गुरु को नित्यं शुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनम् माना जाता है। 
नित्यं - अविनाशी, शास्वत एवं निरंतर रहने वाला,
शुद्धं - किसी अन्य से निर्मित नहीं, मिश्रण नहीं एक वही सत्ता है। 
निराभासं - आभास नहीं वास्तविक है। 
निराकारं - जिसे किसी सीमा में बांधा नहीं जाता है, आकार की सीमा से परे। 
 निरंजनं - जिसे किसी रंग में प्रकट नहीं किया जा सकता है, 
प्रथम पंक्ति का अर्थ अर्थात रंग रहित, आकार रहित, वास्तविक, एकदम शुद्ध नित्य सत्ता जिसका मुझे ज्ञान होता है कि नित्यबोधं चिदानन्दं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम्। 
नित्यं - सदैव, हमेशा
बोधं - ज्ञान होना
चिदानन्दं - चित्त को आनन्द देने वाले
गुरुं ब्रह्म - गुरु ब्रह्म
नमाम्यहम् - मैं नमन करता हूँ। 
ध्यान मंत्र का पुरा अर्थ हुआ - रंग रहित, आकार रहित, वााास्तविक, एकदम शुद्ध नित्य सत्ता जिसका मुझे नित्यं बोध होता है कि वह मेरे चित्त को आनन्द देने वाले है ब्रह्म गुरु हैं। उन्हें मैं नमन करता हूँ। इस प्रकार परम ब्रह्म को गुरु रुप में धारण कर गुरु वंदना के लिए चलता है। 

               गुरु वंदना
साधक पैरों घूटनो से मोड़कर पीछे की ओर तलवा कर दोनों हाथों में विभिन्न रंग के फूल भरकर गुरु का वंदन करता है। कहता है कि 
"अखंड मंडलाकारं व्याप्तम येन चराचरम तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः 
गुरुरेव परम ब्रह्म तस्मै‌ श्री गुरवे नमः"

जब शिष्य का चित्त अखंड मंडलाकारम् ब्रह्म से जुडकर चराचर में व्याप्त होता तब उसे ऐसे महामानव के दर्शन होते हैं। जो उसके अज्ञान के अंधकार को ज्ञान रुपी शलाकाओं से हटाकर सत्य दर्शन करने वाले चक्षुओं को प्रदान करते हैं। इसलिए व्यक्ति उस सत्ता को गुरु कहकर नमन करता है। तब वह पाता है कि उसके यह सदगुरु ही सृष्टि के रचनाकार ब्रह्मा, पालनहार विष्णु तथा संहारकर्ता महेश है। अन्ततोगत्वा वह यह जान लेता है कि गुरु ही परमब्रह्म है। इसलिए वह अपने आपको इस सदगुरु को समर्पित कर देता है। 

इस महान भाव से तीन बार गुरु का वंदन कर गुरु को समर्पण करने के लिए चलता है। 

               गुरु समर्पण
गुरु वंदना मुद्रा में ही अपने अस्तित्व रुपी फूल को दोनों करों में भरकर बोलता है -
तव् द्रव्यं जगतगुरो तुभ्यमेव समर्पयं
हे जगत गुरु तुम्हारे द्रव्य को तुम्हीं समर्पित करता हूँ। 
ध्यान मंत्र के माध्यम से जिस गुरु को पाता है, गुरु वंदना में उसे अपना गुरु स्वीकार करके उन्हें नमन कर स्वयं समर्पण करने के तैयार होता है। उसी समय वह पाता है कि जो मेरे गुरु हैं वह जगत गुरु हैं। अतः गुरु जगत का गुरु देखकर स्वयं को उन्हें समर्पित कर देता है। ऐसा इसलिए कि जगत गुरु के रूप में देखते ही स्व तत्व हट जाता है तथा स्व सहित स्वयं को गुरु को समर्पित कर देता है‌। 

                गुरु साष्टांग
साष्टांग ( = स + अष्ट + अंग प्रणाम = आठ अंगों के द्वारा प्रणाम) में हाथ, सिर, छाती, पैर, दृष्टि, हृदय, वचन और मन इन आठों से युक्त होकर और जमीन पर सीधा लेटा कर नमस्कार करने वाले प्रणाम को साष्टांग प्रणाम कहा जाता है। हाथ, सिर, छाती तथा पैर नाम चार बाहरी तथा दृष्टि, हृदय, वचन व मन नामक चार आंतरिक के अंगों से प्रणाम करने की प्रणाली साष्टांग है। साष्टांग एवं दंडवत एक नहीं होते हैं। भय, गुलामी तथा दबाव में किया जाने वाली दासता स्थित को दंडवत कहा जाता है लेकिन हृदय परिवर्तन, इच्छा एवं महानता को स्वीकार कर किया गया समर्पण को साष्टांग कहा जाता है। अतः गुरु को साष्टांग किया जाता है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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