श्री श्री आनन्दमूर्ति जी
ध्येय में प्रतिष्ठित होने की प्रक्रिया को ध्यान कहा जाता है। ध्यान सिखने से पहले ध्येय का ज्ञेय के रूप में स्वीकारना आवश्यक है। जब तक साधक अपने ध्येय को ज्ञेय के रूप में नहीं स्वीकारता है ध्येय जान नहीं सकता है। ध्येय का ज्ञान होना ही ज्ञेय के रूप में स्वीकारना है। मनुष्य का ध्येय क्या यह ज्ञेय से पता चलता है। अतः मनुष्य को बहुत अधिक सतर्क रहने की जरूरत है कि वह अपने ध्येय के रूप में किसे स्वीकार करता है। इसलिए ध्यान को षष्टम सौपान पर रखा गया है। यहाँ आते आते साधक परिपक्व हो जाता है तथा वह अपने ध्येय ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। सभी शास्त्रों, उपदेशों, व्याख्यानों एवं प्रवचनों का सार है कि मनुष्य का लक्ष्य ब्रह्म है। ब्रह्म प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। अतः प्रमाणित होता है कि मनुष्य का ध्येय ब्रह्म है। ब्रह्म का ध्यान ही मनुष्य का ध्यान है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के लिए कोई ध्येय नहीं है। यहाँ एक निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि ध्यान का अर्थ ब्रह्म का ध्यान है।
ध्यान शब्द का अर्थ मिल जाने के बाद ज्ञेय के लोक में फिर से चलते हैं। जिससे हम ब्रह्म को जान पाएंगे। ब्रह्मज्ञान को सबसे चरम व परम ज्ञान बताया गया है। हमें भी ब्रह्म का ज्ञान ही करना है। ब्रह्म ज्ञान को आत्मज्ञान भी कहते हैं। इसलिए नीति शास्त्र आत्म तीर्थ को सबसे बड़ा एवं अंतिम तीर्थ बताया है। जो इस तीर्थ को करता वही सच्चा तीर्थंकर है। मनुष्य तथा उसका जगत इस आत्म तत्व से ही बना है तथा आत्मा ही मनुष्य एवं उसके जगत के अस्तित्व का आधार है। अतः आत्मज्ञान ही सच्चा, पक्का एवं अच्छा ज्ञान है। आत्मा के दो स्वरूप दर्शन में मनुष्य देखता प्रथम परमात्मा तथा द्वितीय जीवात्मा। वस्तुतः जीवात्मा एवं परमात्मा में कोई भेद नहीं है। यह ज्ञान ही मनुष्य का ज्ञेय है। मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान बताता है कि सबकुछ ब्रह्म है। ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस ज्ञान का मनन नहीं करने के कारण अद्वैत जगत को मिथ्या कह देता है। वस्तुतः जगत भी ब्रह्म है इसलिए यह मिथ्या नहीं है। जगत एक ऐसा ब्रह्म है अक्षर नहीं है। इसलिए इसे आपेक्षिक सत्य कहा जाता है। ब्रह्म ज्ञान से हमें ज्ञात हुआ कि मनुष्य क्षर ब्रह्म का निवासी है तथा अक्षर ब्रह्म का राही है। दर्शन की भाषा में इसे सगुण एवं निर्गुण ब्रह्म कहता है। सगुण ब्रह्मलोक का निवासी मनुष्य भी सगुण ब्रह्म का ही एक रुप जीवात्मा है। सगुण ब्रह्म एवं निर्गुण ब्रह्म के बीच मईन पर्दा है। जो प्रकृति या माया कहलाती है। ज्ञेय लोक बताता है कि निर्गुण ब्रह्म मनुष्य का लक्ष्य है। सगुण ब्रह्मलोक लोक का निवासी मनुष्य निर्गुण को ध्येय के रूप में धारण करने में अक्षम है तथा सगुण बंधन मुक्त नहीं कर सकता है। इसलिए उसके सेतु तारक ब्रह्म ही मनुष्य का ध्येय है।
ध्यान का अर्थ तारक ब्रह्म का ध्यान है। तारक ब्रह्म मनुष्य को प्रेम एवं ममत्व प्रदान करता है। साधक को यहाँ अपनापन का अनुभव करता है। यह सभी अनुभव बताते है कि तारक ब्रह्म का मानवीय स्वरूप ही मनुष्य का ध्येय है। तारक ब्रह्म के मानवीय स्वरुप का महासंभूति कहते हैं। महासंभूति काल में तारक ब्रह्म सगुण स्वरूप में होते है। यद्यपि महासंभूति सदैव मुक्त पुरुष होते हैं कि जगत का कार्य करने के कारण सदैव मुक्त अवस्था का स्वरूप बनाये नहीं रखते हैं। एक साधारण पुरुष की भूमिका का भी निवहन करना पड़ता है। यदि महासंभूति ने अपने दिव्य स्वरूप सदैव धारण कर दिया तो जगत इसे सहन एवं वरण नहीं कर पाता है। इसलिए परम पुरुष महासंभूति काल अपनी मुक्त एवं दिव्य अवस्था के एक विशेष मुद्रा का निर्माण करते हैं। महासंभूति की यह विशेष मुद्रा साधक के लिए ध्येय है। साधक इसी ध्यान करता है। वे लोग सौभाग्यशाली हैं कि जिनके गुरु महासंभूति है। उन्हें तारक ब्रह्म का ध्यान गुरु एवं मुक्ति-मोक्ष दाता दोनों के रूप में प्राप्त होता है।
ध्यान के ज्ञेय एवं ध्येय तत्व की जानकारी प्राप्त करने के बाद ध्यान साधना की ओर चलते हैं। ध्यान साधक में साधक को भूत शुद्धि, आसान शुद्धि एवं चित्त शुद्धि करनी होती है। उसके बाद निर्धारित चक्र में महासंभूति के शारीरिक स्वरूप का निर्धारित मुद्रा में ध्यान किया जाता है। यद्यपि इसमें प्रक्रिया आवश्यक नहीं है उपरोक्त संक्रिया के बाद सीधा ध्यान लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन साधक की मनोदशा के अनुसार प्रक्रिया करने की भी स्वाधीनता है। ध्यान में कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं होती है। इसलिए साधक के मन में जो भाव आते है। वही खेल ध्येय के साथ खेलता है तथा वह उस साधक की ध्यान प्रक्रिया बन जाती है। यह प्रक्रिया सदैव स्थिर भी नहीं रहती है, साधक की मनोदशा के अनुसार बदलती रहती है।
साधक निर्देशिका शास्त्र में ध्यान को मध्य अवस्था बताया गया है तथा ब्रह्म सदभाव को उत्तम रखा गया है। चूंकि यहाँ ब्रह्म का ही ध्यान हो रहा है अतः उक्त ध्यान ब्रह्म सदभावना की चरम अवस्था है। यहाँ एक बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि जिन साधकों को तारक ब्रह्म गुरु के रूप में प्राप्त नहीं हुए हैं। वे तथाकथित अपने दीक्षा गुरु (वस्तुतः यह आचार्य है,गुरु नहीं) का ध्यान करते है अथवा किसी काल्पनिक देवता अथवा वास्तविक महापुरुष का ध्यान करते हैं। उनका ध्यान में उन्हें ब्रह्म मानने पर भी ब्रह्म सदभावना की पूर्ण दशा नहीं रहती है तथा वह सगुण का ध्यान हो जाता है। इसमें हानि रहने पर भी उत्तम अवस्था नहीं है। इसलिए साधक निर्देशिका ध्यान को मध्यम अवस्था कहती है।
ध्यान अभ्यासी को समाधि मिलती है इसलिए ध्यान के प्रति सच्ची समझ एवं भक्ति आवश्यक है। भक्ति मनुष्य को भगवान को मिलाती है। इसलिए ध्यान में भक्ति का रहना आवश्यक है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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