यम नियम

 

साधना से पूर्व यम नियम की शिक्षा एवं दीक्षा दी जाती है। क्योंकि यम नियम भी एक साधना जो मनुष्य में से साधक को निकालता है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने साधक के लिए यम नियम का पालन करना अनिवार्य किया है। उन्होंने तो चरम निर्देश में स्पष्ट कहा है कि यम नियम के बिना साधना हो ही नहीं सकती है। अत: यम नियम का पालन करने के लिए चलते हैं। 

                     यम 
समष्टि शुचिता के लिए व्यष्टि द्वारा अपनाये गए सर्वमान्य सिद्धांत को यम नाम दिया गया है। 
अपने आसपास के परिदृश्य को शुद्ध बनाने के लिए व्यक्ति यम साधना करता है। जिसके बल पर साधक महान आत्मा में प्रतिष्ठित होता है। लोग उन्हें महात्मा अथवा साधु पुरुष कहकर नमन करता है। यम के बल पर मनुष्य का मन विकारों से रहित होता है। इसके बल पर पाश पर नियंत्रण पाया जाता है। "अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः"  अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह नाम पांच यम है। यम वे सिद्धांत है निषेध कार्य से व्यक्ति को  परिचित कराते हैं। 

               1. अहिंसा

हिंसा मार कूट,अशांति एवं विध्वंस की प्रतीक है। जहाँ विनाश निवास करता हैं। इसमें दक्ष व्यक्ति उग्र, क्रोधी एवं अस्थिर दिमाग का होता है। इसके हाथों कभी भी खुद का, उसके परिवार का एवं समाज का उद्धार नहीं हो सकता है। यह स्वयं की, अपने परिवार की तथा समाज की क्षति करता है। इसलिए रूहानी यात्रा के राही को इससे मुक्त होना चाहिए। हिंसा से मुक्त अवस्था का नाम अहिंसा है। अहिंसा का अर्थ है कष्टकारी, विध्वंकारी एवं अनुचित दिमाग से मुक्ति पाना है। इसके लिए अहिंसा को एक यम के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। व्रत, अणुव्रत, महाव्रत अथवा सिद्धांत के रूप में स्वीकार करना अधूरी धारणा है। अहिंसा के साधक को मन, वचन एवं कर्म से परपीड़ा के भाव को भी मन में नहीं लाना होता है। अतः मन, कर्म व वचन से भाव को ही त्यागना होता है। जब तक साधना के रूप में नहीं लिया जाता तब अहिंसा में प्रतिष्ठित होना संभव नहीं है। 

                 2. सत्य 

झूठ व मिथ्या मनुष्य को अस्थिर, पाखंडी, आडम्बरी तथा बनावटी बनता है। इसलिए यह व्यक्ति स्वयं को, अपने परिवार को तथा समाज को खड़े में गिरा देता है। अतः रहस्य के जिज्ञासु एवं पिपासू को इससे मुक्त अवस्था सत्य का वरण करना होता है। सत्य की सदैव जीत होती है, ऐसा शास्वत सिद्धांत है। सत्य साधक सदैव साधारण, सरल एवं सीधा इंसान होता है। उससे सभी प्रेम, अपनापन तथा मधुरता का संबंध रखते हैं। सत्य की परिभाषा बताती है कि पर हितार्थ बोले गये वचन, किये गए कर्म तथा अपनाई गई नीति का नाम सत्य है। यह सिद्धांत स्वयं को मजबूत, ताकतवर एवं सुदृढ़ बनता है। सत्य व अहिंसा को कायरता मानने वाले इसकी साधकीय ताकत से अनभिज्ञ है। सत्य को भी यम के रूप में स्वीकार करना व्यष्टि एवं समष्टि हित में है। 

               3. अस्तेय 

चोरी, बेईमानी, लूट, डैकती एवं छीनाझपटी करने वाले सदैव असामाजिक तत्व की गिनती में आते हैं। ऐसे व्यक्ति से सुसभ्य समाज निर्माण नहीं किया जा सकता है। यह समाज में घृणित होते हैं। ऐसे व्यक्तियों का जीवन नरक समान है। आदर्श मनुष्य एवं साधक के लिए इस प्रकार का जीवन स्वीकार नहीं किया गया है। अतः मनुष्य को अस्तेय को यम रुप में मानकर चलना होता है। व्यक्ति की लालसा, अभाव एवं असमान्य प्रवृत्ति उसे चोरी का पथ स्तेय का पथ पकड़ा सकती है। लेकिन अस्तेय साधक को कदापि यह अवस्थाएँ कुपथ पर नहीं ले जा सकती है। अस्तेय का अर्थ है - बिना आज्ञा के किसी की वस्तु को नहीं चुराना, ग्रहण नहीं करना अथवा ऐसा भाव भी नहीं रखना है। मन, वचन एवं कर्म से चोरी नहीं करना अस्तेय है। परायी वस्तु धूल समान की नीति को मानकर चलना होता है। 

               4. ब्रह्मचर्य 

ब्रह्मचर्य दो शब्दो 'ब्रह्म' और 'चर्य' से बना है। ब्रह्म का अर्थ परमात्मा; चर्य का अर्थ विचरना, अर्थात परमात्मा मे विचरना, सदा उसी का ध्यान करना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। मन का विषय ब्रह्म के अतिरिक्त कोई ओर रहने पर मनुष्य की प्रगति नहीं हो सकती है। अर्थात मन को ब्रह्म विषय देने का नाम ब्रह्मचर्य है। ऐसा साधक सबको ब्रह्ममय देखता है। अतः साधक को ब्रह्मचर्य यम के रूप में स्वीकार करना चाहिए। जब जब भी साधक विषय ब्रह्म हट जाता है तब तब मनुष्य का जीवन विकारों से भर जाता है। विकार अतृप्त जीवन के प्रतीक है। मनुष्य का जीवन सफल करने की साधना ब्रह्मचर्य साधना है। 

               5. अपरिग्रह 

परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति इस ओर इशारा करती है जो विचारणीय है। परि आसमंतात ग्रहणाति आत्मानं इति परिग्रहः- जो मन को सब ओर से घेर लेता है, जकड देता है वह परिग्रह है। मन जिससे बन्ध जाता है उसका नाम परिग्रह है। इसलिए कहा गया है कि संग्रह की प्रवृत्ति मनुष्य को पाप के पथ पर ले चलती है। पाप का पथ अधर्म, अनीति एवं अन्याय का द्वार है। अतः यह मनुष्य का पथ नहीं है। साधना मार्ग के पथिक को तथा आदर्श मनुष्य को अपरिग्रह यम मानकर चलना होता है। अपरिग्रह' शब्द से तात्‍पर्य है कि आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करना।अपरिग्रह साधना का अर्थ हैं वस्तुओ से टूटना अथवा उससे मोह भंग करना और उससे किस प्रकार का लगाव ना रखना। 

                  नियम 

व्यक्तिगत शुचिता के लिए व्यक्ति द्वारा अपनाये गए सर्वमान्य सिद्धांत नियम है। यम जहाँ निवृत्ति मूलक है, वही नियम प्रवृत्ति मूलक है। नियम मनुष्य के जीवन नियमित, नियंत्रित एवं संयमित करता है। नियम के पांच प्रकार हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। 

                  1. शौच 

स्वच्छता, शुचिता एवं शुद्धता का नाम शौच है। बाहर एवं अंदर से स्वच्छ होना अथवा रहना शौच कहलाता है। शौच को एक नियम के रूप अंगीकार करने वाला सदैव स्वस्थ एवं मस्त रहता है। एक साधक को शौच का अनुसरण करना होता है। अशौच मलिनता की अवस्था होती है। जो‌ किसके लिए भी हितकारी नहीं है। 

                 2. संतोष 
बिना मांगे जो मिलता है, उसमें संतुष्ट रहने का भाव संतोष है। असंताषी मन सदैव दुखों का घर होता है। इसलिए साधक को संतोष नियम का पालन करना होता है। 
  
                3. तप 
स्व: इच्छा से दूसरो कष्ट को उठाकर चलना तप है। तप साधक को तपस्वी बनाता है। इससे मन निर्मल होता है तथा इसके तपस्या का मार्ग सहज होता है। अतः साधक को तप नियम मानकर चलना होता है। 

               4. स्वाध्याय 
समझ कर एवं अर्थ जानकर धर्म शास्त्र, दर्शन शास्त्र एवं समाज शास्त्र का अध्ययन करना स्वाध्याय है। इससे मनुष्य में ज्ञान की प्रवृत्ति का विकास होता है, जो मनुष्य को पथभ्रष्ट होने नहीं देती है। अतः स्वाध्याय को नियम मानकर साधक चलता है। 

            5. ईश्वर प्रणिधान 

संपद एवं विपद में ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखने की साधना का नाम ईश्वर प्रणिधान है। ईश्वर में विश्वास रखने वाला सदैव सकारात्मक रहता है।

यम नियम में प्रतिष्ठित साधक भूमाभाव की साधना कर सकता है। यम नियम में प्रतिष्ठित होने के लिए उन्हें पालन करने का अभ्यास निरंतर करते रहना चाहिए, इसका निरिक्षण भी करना भी जरूरी है। निरिक्षण के बाद त्रुटि सुधार एवं तत्पश्चात यह आदतन एवं स्वभाव में आ जाता है। अन्ततोगत्वा प्रतिष्ठित होने की स्थिति आती है। यम नियम की इस यात्रा में संकल्प की आवश्यकता है, विकल्प के सभी द्वार, खिड़कियां एवं रोशनदान बंद कर देने होंगे तभी संकल्प सिद्धि में प्रणीत होता है। यही यम नियम की साधना है। 

अहिंसा से यात्रा आरंभ होती है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य होती हुई अपरिग्रह में जाकर यम को‌ परिपूर्ण बनाती है। संग्रह की प्रवृत्ति ब्रह्म को विषय नहीं मानने के कारण जन्म लेती है, ब्रह्म को विषय से दूर चौर्यवृति रखती है, चौर्यवृति का जन्म मिथ्याचार होता है तथा मिथ्याचार विध्वंसक बन जाता है। इसलिए जड़ मूल माया को काटने के सबसे क्रुर अवस्था से सूक्ष्मतम अवस्था त्याग की ओर चलते हैं। त्याग अपरिग्रह में तथा क्रुरता हिंसा में है। 

इसीप्रकार शौच सबसे जड़ तथा ईश्वर प्रणिधान सबसे सूक्ष्म नियम है। संतोष, तप व स्वाध्याय जड़ से सूक्ष्म यात्रा का क्रमिक विन्यास है। शौच से संतोष तरल है, संतोष से तप, तप से स्वाध्याय तथा स्वाध्याय से ईश्वर प्रणिधान तरल है। ईश्वर प्रणिधान करने के लिए स्वाध्याय तैयार करता है, स्वाध्याय की आधारभूमि तप बनती है, तप का जन्म संतोष से होता है तथा संतोष की सोच शौच में निवास करती है। यम से नियम बनते हैं। उसे साधना की यात्रा शुरू होती है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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