मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्णत्व को प्राप्त करना है। साधना को पूर्णत्व प्राप्त का साधन बताया जाता है। साधना शब्द का शाब्दिक अर्थ साध्य को साधना है। जिसमें साधक, साधन एवं साध्य होता है। साध्य ब्रह्म होने पर साधना ब्रह्म साधना कहलाती है। इससे साधक ब्रह्म बन जाता है। साधन साधक को साध्य से जोड़ने वाला आध्यात्मिक उपकरण होता है। जो गुरु द्वारा शिष्य को प्रधान किया जाता है। साधना न दाना होता है न ही उपहार होता है। यह मुमुक्षु की योग्यता का प्रतिफल होता है। चूंकि गुरु ब्रह्म होता है। इसलिए उन्हें मुमुक्षु के साथ न्याय करने के लिए साधना रुपी प्रतिफल प्रदान करता है। इसलिए कभी भी भूलकर भी साधना को दान तथा उपहार न माने। यह हमारी योग्यता का फल है। जिसके हम अधिकारी है। वस्तुतः अधिकारी वह होता है जो अधिकार को संभाल कर रख सकता है। प्रत्येक साधक पूर्णत्व प्राप्ति का अधिकार है। इसलिए उसके पास साधना है। साधना को शक्ति भी कहा गया है। वह शक्ति जिसके बल पर साधक साध्य को पा जाता है। साधक एवं साध्य के बीच में जो अन्तराल है। उस साधना मार्ग अथवा पथ कहते हैं। चूंकि साध्य का अर्थ आनन्दधन अवस्था आनन्द है। इसलिए साधना मार्ग आनन्द मार्ग कहलाता है।
आनन्द मार्ग एक साधना है। जिस पर चल कर मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य आनन्द अर्थात परमानंद को प्राप्त करता है। आनन्द एवं परमानंद वस्तुतः एक ही है। सिर्फ मन की तसल्ली के एक विशेषण लगाया जाता है। आनन्द मार्ग एक साधना है। जो पहले मनुष्य को उसका दर्शन बताता है। इसलिए हम आनन्द मार्ग को दर्शन भी कहते हैं। चूंकि आज विषय साधना है। इसलिए आनन्द मार्ग एक साधना है। उसी को समझेंगे।
मनुष्य की साधना सबसे पहले मनुष्य से ही शुरू होती है। इसलिए पहले अपने को मनुष्य बनना एवं समझना होता है। जो स्वयं मनुष्य बनाती अथवा समझाती है, उस विधा को यम नियम कहते हैं तथा जो शास्त्र इस विधा को धारण करता उसे जीवन वेद कहते हैं। अत: आनन्द मार्ग साधना का प्रथम अंग यम-नियम साधना है।
यम-नियम साधना
यम एवं नियम एक दूसरे के पूरक है इसलिए उन्हें दो अलग-अलग विधा के रूप में नहीं समझा जा सकता है। यद्यपि आष्टांग योग समझने के लिए यम व नियम को दो अलग-अलग अंग के रूप समझा जाता है। चूंकि हमारा विषय आनन्द मार्ग साधना है। इसलिए हम यम-नियम को एक विधा के रूप लेकर चलते हैं। यम-नियम मनुष्य को नैतिकवान, आध्यात्मिक एवं जिम्मेदार बनाता है। इसलिए साधना लोक में प्रवेश से पूर्व यम-नियम साधना सिखनी, करनी एवं पालनी होती है। यम - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का सामूहिक नाम है तथा नियम शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान का सामूहिक नाम नियम है। यम-नियम में आदर्श मानवता का बीज नियत है। आध्यात्मिक यात्री से मानवता की समाज आश रखता है। अत: यम-नियम को साधना के रूप में लेना चाहिए। यम-नियम एक सिद्धांत ही नहीं एक साधना भी है। यम-नियम एक सिद्धांत के रूप में समष्टि एवं व्यष्टि जगत की शुचिता बनाये रखने में व्यष्टि का योगदान है जबकि यम-नियम साधना के रूप में एक तपस्या है। तपस्या नाम आते ही साधना की तीसरी महत्वपूर्ण विधा आसन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो साधना के साथ साधक के लिए करणी कर्तव्य है।
आसन साधना
आसन मात्र क्रिया नहीं एक साधना भी है। इसमें साधक अपने शरीर को सुखद: स्थित में बैठने क्रिया एक आनन्दोपल्बधि की साधना भी करता है। विभिन्न स्थित में शरीर को सुव्यवस्थित कर श्वास प्रवास की गति के संचालन के द्वारा चञ्चल मन को अपने मूल लक्ष्य की ओर चलाने की साधना का नाम आसन है। आजकल इसे योगासन अथवा योग भी प्रचलित नाम कहते हैं। योगिक चिकित्सा एवं योगाथैरेपी नाम चिकित्सा कार्य भी किये जाते हैं। सबका उद्देश्य निरोगी काया, निरोगी मन का निर्माण कर आध्यात्मिक साधना के लिए शरीर को तैयार करना है। आसन का संबंध श्वास क्रिया होते ही साधना के चतुर्थ आयाम प्राणायाम की ओर चलते हैं।
प्राणायाम साधना
आनन्द मार्ग साधना का चतुर्थ लेशन सहज योग प्राणायाम है। यह श्वास विज्ञान है। यह प्राण को नियंत्रित कर ब्रह्म भाव से सिंचन करता है। इसलिए प्राणायाम मात्र पेट, फेफड़ों व नाक की उछल कूद नहीं साधारण, सहज एवं विशेष योग की साधना है। जैसे प्राणायाम में प्राण वायु के नियंत्रण एवं ब्रह्म भाव का आरोपण आता है। प्रत्याहार साधना की चलना होता है।
प्रत्याहार साधना
मन को वापस करने का नाम प्रत्याहार साधना दिया गया है। गुरु के उद्देश्य में वर्णार्ध्य दान को प्रत्याहार का सबसे सहज रास्ता बताया गया है। वर्ण का अर्पण कर की जाने वाली गुरु पूजा एवं भूत शुद्धि द्वारा मन को भौतिक जगत से हटाना, आसन शुद्धि द्वारा मन को उपयुक्त स्थान पर स्थापित करना तथा चित्त शुद्धि द्वारा मन को विषय देना प्रत्याहार साधना में ही सिखा जा सकता है। जैसे ही मन को विषय देना शब्द आया धारणा साधना की ओर चलते हैं।
धारणा साधना
"चित्त को किसी विशेष देश में बाँध कर रखना धारणा कहलाता है।" - आनन्द मार्ग चर्याचर्य।
(१) ब्रह्म धारणा - साधना में चित्त को प्रथमतः ब्रह्म धारणा में बांधकर रखा जाता है। जहाँ साधक प्रथम में अहम् ब्रह्मास्मि के भाव में चित्त को नहलाता रहता है। शास्त्र भी ब्रह्म सदभाव को सबसे उत्तम साधना बताया है। द्वितीय में चित्त सबकुछ में ब्रह्म देखकर ब्रह्ममय बन जाता है। जब तक चित्त ब्रह्ममय नहीं बनता है। उसके सभी प्रयास बंधन का कारण बनता है।
(२) तत्व धारणा - साधना का तृतीय सौपान तत्व धारणा कहलाता है। जहाँ चित्त धरणीं, वरुणं, शिखिनं पवनं व गगनं को धारणा करता है। चूंकि प्रथम व द्वितीय प्रयास में चित्त ब्रह्ममय है, इसलिए इन्हें ब्रह्म बनाता तथा इसमें ब्रह्म को देखता है। तभी द्वितीय लेशन सिद्धहस्त होने पर तृतीय लेशन किया जाता है। अन्यथा साधक जड़ साधना में लिप्त हो जाता है।
(३) अनन्त धारणा - साधना का चतुर्थ सौपान प्राणायाम अनन्त प्राण शक्ति में चित्त को बांधता है। स्वयं को ब्रह्म प्राण एवं ओब्जेक्ट को अनन्त प्राण ब्रह्म में बिठाता है। प्राणायाम के वक्त ब्रह्म भाव का बहता रहना साधक को ब्रह्म में पूर्णतया प्रतिष्ठित करता है।
(४) चक्र धारणा - साधना के पांचवे सौपान में चक्र में चित्त बांधकर रखा जाता है। उस समय चित्त ब्रह्मभाव में बहता रहता है। प्रत्येक चक्र में ब्रह्म के प्रकाश स्वयं लबालब भरकर मुक्ति मोक्ष का अधिकार बनता है।
(५) ध्यान में धारणा - अंत में ध्यान में चित्त बंध जाता है। वहाँ तारक ब्रह्म का गुरुरुप में ध्यान करता है अथवा गुरु का तारक ब्रह्म के रूप में ध्यान करता है। अन्ततोगत्वा तारक ब्रह्म की कृपा से ब्रह्म बन जाता है।
ध्यान साधना
शास्त्र में ध्यान को मध्यम बताया गया है। लेकिन ब्रह्ममय ध्यान उत्तम अवस्था में प्रतिष्ठित कर देती है।
(१) बिन्दु ध्यान अथवा ईश्वर प्रणिधान - प्रथमतः ब्रह्म को बिन्दुमय मानकर ध्यान करता है। इसको ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। ईश्वर को शरीर, मन एवं आत्मा के रूप में धारण करना। इसलिए ध्येय का ब्रह्म होना आवश्यक है। बिन्दु ब्रह्म है। इस बिन्दु में ही सिन्धु मिलता है। इसको साकार ध्यान कहाँ जाता है।
(२) निराकार ध्यान अथवा ब्रह्मचर्य - द्वितीय में निराकार का ध्यान है। ध्येय जो भी वह निश्चित आकार से बंधा नहीं है। पूर्णतया ब्रह्ममय होने के इससे ब्रह्मचर्य में भी समझ सकते हैं।
(३) तत्व ध्यान - जब पूर्णतय ब्रह्ममय अथवा ब्रह्मचारी बन जाने पर तत्व ब्रह्म का ध्यान करता है। उसके मूल में ब्रह्म देखकर पाता है कि यह ब्रह्म का विकास है। उसके सभी शक्तियां साधक की अपनी हो जाती है। जहाँ साधक शक्तिशाली बनकर मुक्त होता है।
(४) प्राणा ध्यान या अनन्त ध्यान - प्राणायाम में अनन्त ब्रह्म का ध्यान करते करते अनन्त ब्रह्म में परिणित होता है। आयु को वश में कर देता है।
(५) चक्र ध्यान - चक्र आध्यात्मिक शक्ति के पीठ है। इसका ध्यान कर ब्रह्म के विश्वरूप स्वरूप को धारणा करता है। अथवा विश्व के सभी रुपों को ब्रह्म में धारणा करता है। चक्र शोधन होकर जो सार अस्तित्व निकलता है वह ब्रह्म है। यही मक्खन चोर एवं रासलीला के आनन्द को पाता है। उसे आनन्द मार्ग के पूर्ण दर्शन होते हैं अथवा आनन्द मार्ग समझ में आता है।
(६) ध्यान - ध्यान का शुद्ध रूप गुरु ध्यान है। यह साकार निराकार की परिधि उपर निर्गुण ध्यान है। यद्यपि तारक ब्रह्म का साकार ध्यान दिखता है। वास्तव में निराकार ब्रह्म का ध्यान है। अन्ततोगत्वा मन ध्येय में प्रतिष्ठित हो जाता है।
समाधि साधना
साधना की अंतिम अवस्था समाधि है। जो सविकल्प सगुण तथा निविकल्प निर्गुण दोनों ही रुप में मिल सकती है। दोनों ही अवस्था में चूंकि धारणा व ध्यान का ब्रह्म रुप होने के कारण मुक्ति व मोक्ष में प्रतिष्ठित करती है। ब्रह्म साधना के अभाव में लगने वाली समाधि मुक्ति व मोक्ष की साधना नहीं है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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