सभी मनुष्य का एक ही धर्म है - मानव धर्म। जिसका संस्कृत में इसका भावगत नाम भागवत धर्म में है। अरबी फारसी में इसका निकटवर्ती शब्द रुहानी इंसानियत तथा अंग्रेज़ी में spiritual humanity के रूप में निकटवर्ती क्षेत्र लेकर समझा जा सकता है। यह जो मानव धर्म है। जिसका संस्कृत में भावगत नाम भागवत धर्म है। इसको समझने के लिए विषय लिया गया है।
भागवत धर्म के चार स्तंभ अथवा चरण है। विस्तार, रस, सेवा एवं तदस्थिति। इसको समझने से पूर्व भागवत धर्म का अर्थ वैष्णवीय पंथ नहीं है। जो विष्णु अथवा कृष्ण को केन्द्रित करके बनाया गया हो। शुद्ध मानवीय गुणों पर आधारित है। जो मनुष्य को भगवान बनाता है। इसलिए इसमें जाति, सम्प्रदाय, देश इत्यादि का स्थान नहीं है। सभी मनुष्य भगवान बन सकते हैं। इसलिए भागवत धर्म को मानव धर्म कहा जाता है।
भागवत धर्म के चार स्तंभ
१. विस्तार : - विस्तार शब्द का शाब्दिक अर्थ फैलना अथवा बृहद बनना है। शास्त्र में कहा गया है कि बृहदएषणा प्रणिधानं च धर्म:। बड़ा बनने की अभिलाषा रखना एवं बड़े बनने का प्रयत्न करना मनुष्य का धर्म है। मनुष्य का निजी स्वभाव एवं निजी विशेषता उसे विस्तार की ओर ले चलती है। इसलिए मानव धर्म का प्रथम स्तंभ विस्तार होता है। यदि आपकी साधना आपके मन को सभी प्रकार की संकीर्ण कुंठाओं तथा अपने पराये के भाव से उपर उठाती है, तो आप मानव धर्म के पहली सीढ़ी पर चढ़ रहे हो। जाति, सम्प्रदाय, नस्ल, रंग, लिंग इत्यादि भेद मनुष्य के दिलोदिमाग को शोभा नहीं देते है। यह शैतानी दिमाग़ की संपदा है। मनुष्य का विकास शैतान बनने में नहीं ब्रह्म बनने में है। ब्रह्मत्व की यात्रा में विभिन्न सोपान आते हैं लेकिन वह हमारा विषय नहीं है।
२. रस : - मानव धर्म का दूसरा स्तंभ 'रस' को बताया गया है। रस शब्द का प्रवाह के अर्थ में समझा जाता है। विस्तार मनुष्य को बड़ा बनना सिखाता है। यह यात्रा का प्रवाह ब्रह्म की ओर होना चाहिए। यह प्रवाह निरस नहीं रसमय होना आवश्यक है। अत: मनुष्य ब्रह्म भाव में विचरण करते हुए, ब्रह्म की ओर चले, यही मानव धर्म द्वितीय स्तंभ रस है। मनुष्य इस परम रस में मस्त हो जाता है, उसे आनन्द कहते हैं। आनन्दमय कर्म करते आनन्दमय जीवन की कला रस नामक द्वितीय सीढ़ी पर मनुष्य चढ़ चुका है। इसे ही आर्ट ऑफ लिविंग कहते है।
३. सेवा :- मानव धर्म अर्थात भागवत धर्म का तृतीय स्तंभ सेवा है। फलेषणा रहित दूसरों की मदद करने का नाम सेवा है। यश, आशीर्वाद अथवा शुभकामना की आश रखे बिना एकतरफा समाज के प्रति अपना फर्ज निभाना सेवा। सेवा में भी ब्रह्म आवश्यक है। जिसकी सेवा कर रहा है, उसमें नारायण का रुप देखने से उसकी सेवा नारायण सेवा हो जाती है। नारायण सेवा ही सेवा शब्द का सच्चा अर्थ है। विस्तार मनुष्य को धर्म की ओर चलता है, रस उसे ब्रह्म भाव में डुबो देता है तथा सेवा मनुष्य भावातीत की ओर ले चलता है। जहाँ से उसे चोथी सीढ़ी के दर्शन होते हैं। मनुष्य नारायण सेवा को साधना के रूप में कर रहा अर्थात वह धर्म की तृतीय सीढ़ी पर चढ़ चुका है।
४. तदस्थिति : - विस्तार मनुष्य का धर्म है, रस मनुष्य का अर्थ है, सेवा मनुष्य का काम है तथा तद स्थिति मोक्ष की अवस्था है। ब्रह्मत्व की अर्जित करना अर्थात ब्रह्म पद को प्राप्त करना। भागवत धर्म की सिद्धि ही इसका चौथा स्तम्भ तद स्थिति है। मनुष्य इस धरती पर परमपुरुष बनने आया है। यह बात मनुष्य की समझ में आ जाती है। तद स्थिति प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है अर्थात वह भागवत धर्म की चौथी सीढ़ी पर चढ़ चुका है।
मानव धर्म अर्थात विस्तार, रस, सेवा एवं तद स्थिति नामक चार तत्वों का सामुहिक नाम है। संस्कृत भाषा में इसके भावगत रुप में भागवत धर्म नाम आता है। इसलिए भागवत धर्म शब्द का अर्थ किसी प्रकार के मत मतान्तर की पुष्टि करना नहीं है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौध, पारसी, यहुदी इत्यादि मनुष्य के धर्म नहीं है। मनुष्य का धर्म मानव धर्म है। जिसका संस्कृत में भावगत नाम भागवत धर्म है। जातिवादी, साम्प्रदायिक, क्षेत्रवादी इत्यादि को अपनी बुद्धि को इन संकीर्ण मानसिकता से मुक्त कर नव्य मानवतावाद में प्रतिष्ठित होकर भागवत धर्म को धारण करना चाहिए।
-----------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
-----------------------------
0 Comments: