लोकतंत्र
की
दारुण कथा
करण सिंह
की
कलम से
एक व्यक्ति ने कहा कि आज लोकतंत्र सुरक्षित नहीं है क्योंकि चुनाव जीतने के बाद भी कोई पार्टी सुरक्षित नहीं है। दिल्ली में ऐसा दलाल बैठा जो एम.एल.ए. को खरीद लेता है तथा तख्ता पलट कर देता है। उसकी क्रुद्ध निगाह सदैव शिकार ढूँढने में लगी रहती है। इसलिए आप कितना भी लिखो रामराज नहीं आ सकता है। मैंने उनसे कहा - "बजरंग बली की कसम दिलाकर लोकतंत्र बहाल कराया है, अब ऐसा कुछ नहीं होगा।" उसने कहा - "बजरंग बली से सत्पुरुष डरते है सत्ता के सौदागर नहीं" उसकी पीड़ा में एक मार्मिक दर्द था। उसके दर्द ने मेरे मन में अनेक प्रश्न खडे किये, उनका उत्तर जानने के लिए आपसे रुबरु हो रहा हूँ।१. क्या आदर्श संस्कृति की रक्षा, सत्ता को येनकेन प्रकारेण अपने हाथ में रखने होगी? २. सत्ता के मोह में आदर्श संस्कारों का गला घोंट देना चाहिए? इत्यादि न मालूम कितने प्रश्न है, जो जयश्री राम की मर्यादा में उठते है। मेरे समक्ष चलचित्र बनकर नाच रहे थे। भारतवर्ष ने सृष्टि के प्रारंभिक क्षणों में रामराज नामक एक परिकल्पना दी थी। जिसे आज तक राजनीति, अर्थनीति एवं समाजनीति अपना आदर्श मानती आ रही है। आधुनिक भारतवर्ष के एक पुरोधा महात्मा गाँधी ने रामराज का सपना फिर से भारतवर्ष के आमजन को दिखाया था। उन्होंने अपने विचारों में ग्राम स्वावलम्बन के माध्यम से कुशल राज्य के निर्माण की अभिलाषा देश के समक्ष रखी थी। दुख की बात तो यह है कि राजनीति में 'तु गंदा, मैं अच्छा' के खेल में रामराज के आदर्श प्रतिमान की धज्जियां उड़ा दी। इसलिए मेरा आप से प्रश्न है क्या यह लोकतंत्र है? जिसमें मात्र सत्ता का खेल होता है। शायद शतप्रतिशत उत्तर आएगा 'नहीं' फिर हम लोकतंत्र के ऐसे खेल को क्यों देख रहे हैं?
मैं राजनेता नहीं, न ही राजनीति मेरा व्यवसाय है। मैं तो इतिहास का विद्यार्थी हूँ - लोकतंत्र में हो रही भूलों को इतिहास दिखाता हूँ। भारतवर्ष के इतिहास के वे पृष्ठ, विश्व इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है, जहाँ सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया था। उस व्यवस्था को लागू किये बिना हम लोकतंत्र के हो रहे चीरहरण को नहीं रोक सकते हैं। भारतवर्ष के इतिहास में राजनैतिक लोकतंत्र नहीं था, फिर भी इस देश ने दुनिया में सबसे पहले लोकतंत्र दिया तथा सच्चा लोकतंत्र दिया। वहाँ न गुप्त मतदान था, न ही ईवीएम की तकनीकी रहस्यमय दुनिया थी। वहाँ सत् साहस एवं आध्यात्मिक नैतिकता थी। अपनी बात स्पष्ट पटल पर रखने की हिम्मत थी। और तो और इसी लोकतांत्रिक सोच के कारण ऋषि मुनियों की पर्षद ने वेद इत्यादि शास्त्र की रचना कर दी। मैं इतिहास के यह बातें इसलिए कह रहा हूँ कि दुनिया को लोकतंत्र की परिभाषा सिखाने का सामर्थ्य रखने वाला देश स्वयं लोकतंत्र की परिभाषा सत्ता के मोह में भूल रहा है। विकास के नाम पर दिल्ली की यात्रा शुरू कर बजरंग बली की शपथ में भी लोकतंत्र को भूल रहे है। धिक्कार है ऐसी राजनीति को, जो मनुष्य को सत्ता के मद में नैतिकता से हटा दे। इसलिए सत्पुरुष कहते है "हमें राजनीति नहीं, समाजनीति चाहिए, हमें राज्य नहीं समाज चाहिए।" सत्पुरुषों का यह कथन लोकतंत्र की आत्मा है। इसके बिना राजनेता सत्ता के व्यापारी बनकर बैठ जाएंगे तथा हमें 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' मात्र गीत में ही दिखेगा।
भारतवर्ष में जिस लोकतंत्र की चर्चा हुई थी वह एक आदर्श लोकतंत्र था यद्यपि वहाँ सबको मत देना का अधिकार नहीं था लेकिन मतदान देने के अधिकारी से कदापि मतदान का अधिकार नहीं छिन्ना जाता था। इस युग में युग के महान विचारक श्री प्रभात रंजन सरकार ने आदर्श लोकतंत्र का नाम आर्थिक लोकतंत्र दिया। आर्थिक लोकतंत्र आधारशिला सबको न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी देने से रखी जाती है तथा सदविप्र राज्य में जाकर प्रतिष्ठित होती है। आर्थिक लोकतंत्र के महानायक सदविप्र शब्द का अर्थ समझे बिना आदर्श लोकतंत्र की तस्वीर नहीं देखी जा सकती है।
सदविप्र किसी जाति का द्योतक नहीं है। सदविप्र एक ऐसे मानव का द्योतक है, जो आध्यात्मिक नैतिकवान भूमाभाव साधक है, जिसके जीवन जीने की शैली जीवन वेद है। यम नियम, पंचदशशील व षोडश सूत्र उसके जीवनचर्या के अभिन्न अंग है। इस अवस्था को कोई भी मनुष्य पा सकता है। इसमें जाति, सम्प्रदाय, नस्ल लिंग इत्यादि कोई भेद नहीं है। इसके लिए न्यूनतम योग्यता है निर्मल हृदय एवं दृढ़ संकल्प शक्ति। इसको जगाकर कोई भी मनुष्य सदविप्र बन सकता है। यहाँ एक प्रश्न अवश्य ही मूल्यवान है सदविप्र राज की ओर आर्थिक लोकतंत्र क्यों जाता है? सदविप्र राज के बिना आर्थिक लोकतंत्र को संभाल कर रखा नहीं जा सकता है इसलिए आर्थिक लोकतंत्र सदविप्र राज की ओर जाता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो सदविप्र राज अर्थात नीति निपुण आध्यात्मिक नैतिकवान भूमाभाव के साधक का राज। अर्थात राजनीति में अनैतिकवान एवं चरित्रहीन व्यक्तियों का प्रवेश निषेध है। यही नहीं ऐसे लोगों को मतदान का अधिकार भी नहीं है। इसलिए कहा गया है कि व्यवस्था कितनी भी अच्छी क्यों न हो, जब तक उसके संचालन करने वाले अच्छे इंसान नहीं होगे तब तक व्यवस्था अच्छी नहीं रह सकती है। लगभग सभी देशों के संविधान अच्छे राष्ट्र के निर्माण के लिए लिखे गए थे, उसमें उनके सामर्थ्य के अनुसार अच्छी व्यवस्था रखी गई थी, लेकिन सत्ता में अच्छे व्यक्ति ही आए, ऐसी व्यवस्था नहीं देने के कारण आधुनिक लोकतंत्र सवालिया निशान बनकर रह गया।
क्या यह लोकतंत्र है ? प्रश्न का सही हल आर्थिक लोकतंत्र है। जिसकी आधारशिला न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी को रखी गई है। उस व्यवस्था में आर्थिक संसाधन के उत्पादन, वितरण एवं उपभोग में एक लोकतांत्रिक परंपरा का समावेश है। सबकी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का चरम उपयोग व सुसंतुलित उपयोग कर स्थूल, सूक्ष्म व कारण जगत के चरमोत्कर्ष की व्यवस्था है। यहाँ विवेकपूर्ण वितरण एवं संचय प्रवृति पर लगाम रखी गई है। आर्थिक लोकतंत्र न केवल न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी देता है अपितु गुणीजन का आदर व समाज के मान वर्धमान करने वाला अर्थ चक्र भी देता है। यह देश, काल, पात्र के अनुसार परिवर्तनशील भी है इसलिए यह प्रगतिशील उपयोग तत्व है।
चूंकि आर्थिक लोकतंत्र हमारा विषय नहीं है इसलिए इसका अधिक विश्लेषण में न जाकर विषय की ओर लौटना ही बुद्धिमत्ता है। क्या यह लोकतंत्र है? समस्या का सटीक हल के क्रम में आर्थिक लोकतंत्र की परिभाषा देना आवश्यक हो गया था, इसलिए प्रगतिशील उपयोग तत्व की ओर जाना आवश्यक हुआ। लेकिन विषय राजनैतिक लोकतंत्र में वोटों की रोटियाँ सेकते राजनेता के चालचलन का है। मुह से विश्व गुरु भारत के बात कहकर, अनैतिकता की चौसर बिछाने वाले शकुनि कभी भी चाणक्य नहीं बन सकता है। धर्म की बड़ी बातें करके देश की आर्थिक व्यवस्था को गलत दिशा देने वाले दुर्बुद्धि दुर्योधन चन्द्रगुप्त नहीं बन सकता है। यद्यपि उपरोक्त शब्द राजनैतिक प्रहार है तथा राजनीति मेरी विषयवस्तु नहीं है, फिर भी विषय के मर्म एवं विषय देने वाले दर्द के लिए इस शब्दों का प्रयोग करना मेरी लेखकीय मजबूरी थी। सत्ता का सुख भोग ही लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र एक तपस्या है। जिसमें आदर्श मूल्यों के लिए बलिदानियाँ देनी होती है। लोकतंत्र में व्यक्ति कभी भी देश एवं समाज से बड़ा नहीं होता है तथा बड़ा नहीं बनाया जाता है। यद्यपि लोकतंत्र में व्यक्ति की गरिमा एवं योग्यता का सदैव आदर होता है लेकिन कभी व्यक्ति की महिमामंडन देश व समाज से अधिक नहीं की जाती है। जय लंकेश का जबाब कभी भी जयश्रीराम से नहीं दिया गया, उसका जबाब हर हर महादेव से मिला। जिसका अर्थ धर्म की रक्षार्थ हर सैनिक आज महादेव है।
विकास के नाम सत्ता के सिंहासन पर बैठकर हमारे विकास को देखकर जनता वोट करने की बजाए, उन्हें व्यक्ति, धर्म एवं राष्ट्र के खतरे की काल्पनिक कहानी के माध्यम में अपने पक्ष में रखने के लिए मजबूर किया जाए तो उसका परिणाम नकारात्मक है।
आओ मिलकर ऐसा लोकतंत्र बनाये जहाँ सर्वे भवन्तु सुखिनः की वाणी सदा गुंजती रहे।
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