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श्री आनन्द किरण "देव"
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1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडा हिन्दू राष्ट्र के नाम पर लिखा गया था। 1947 में यह एजेंडा अखंड भारत के साथ जुड़ गया। कालांतर में राष्ट्रवाद, घारा 370, समान आचार संहिता एवं एकात्मक मानववाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एजेंडे के अंग बनते गए। चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने राजनैतिक यात्रा में अब तक सफल रहा है। इसलिए भारतीय संस्कृति के मूल्य के सापेक्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडा देखने जा रहे है। चूंकि राष्ट्र एवं समाज पहले दल व संगठन बाद में होता है इसलिए पहले भारतीय संस्कृति के मूल्यों को लिखूँगा तत्पश्चात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडे को इसमें बैठा भारतवर्ष को देखेंगे।
भारतीय संस्कृति के मूल्य
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(१). वसुधैव कुटुंबकम - भारतीय संस्कृति का पहला मूल्य इस धरा को एक कुटुबं में समाता है। जहाँ बंधुत्व ही बंधुत्व है, नफरत का कोई स्थान नहीं। यहाँ कोई स्वदेश या कोई परदेश नहीं। त्रिभुवन को स्वदेश कहकर सारे जहाँ को स्वीकारा है। इसलिए एक ही नारा शेष रह जाता है विश्व बंधुत्व कायम हो।
(२). सर्वे भवन्तु सुखिनः - भारतीय संस्कृति सबके सुख एवं कल्याण की कामना करती है तथा तदरुप व्यवस्था भी करती है। यहाँ अपना पराया का कोई स्थान नहीं है तथा ऐसा करने वालों की लघु चैतन्य कह कर निंदा की जाती है।
(३). आध्यात्मिक नैतिकता युक्त समाज - भारतीय संस्कृति एक ऐसे समाज की अवधारणा देती है, जिसके प्रत्येक नागरिक का जीवन मंत्र आध्यात्मिक नैतिकता हो। व्यक्तिगत प्रगति के लिए आध्यात्मिकता को स्वीकारा गया है। जिस पर चलकर मनुष्य अपने शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति सुनिश्चित करते हुए जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर हो। मनुष्य सामुहिक जीवन में खुशहाली एवं शांति के लिए नैतिकता को मानकर चलता है। उसके जीवन में बनावटीपन एवं आडंबर नाम की कोई वस्तु नहीं होती है।
(४). गतिधारा संघच्छध्वम् - भारतीय संस्कृति ने समाज को एक साथ चलने, बोलने, रहने तथा उपासना करने की शिक्षा दी है। इसलिए समाज के किसी भी अंग में आत्मसुख के स्थान पर सम सामाजिकता का समावेश होता है।
(५.) आचरण संहिता एवं आहार शुद्धि का स्थान - भारतीय संस्कृति में व्यष्टि एवं समष्टि के लिए आचरण संहिता एवं आहार शुद्धि पर बल दिया गया है। व्यष्टि एवं समष्टि का आचरण ऐसा होना चाहिए कि वह व्यष्टि को देवत्व में प्रतिष्ठित करें तथा समष्टि स्वर्ग सा परिवेश उपलब्ध कराये।
(६). रामराज्य की स्थापना - भारतीय संस्कृति सर्वजन हित एवं सर्वजन सुख पर आधारित एक रामराज का संकल्प देता है। उस राज्य की एक समाजनीति हो - विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था एवं केन्द्रिकृत राजव्यवस्था। इसे आधुनिक भाषा आर्थिक लोकतंत्र कहा जाता है।
(७). भारतवर्ष शब्द को चरितार्थ करने वाला मानव समाज की अवधारणा - भारतीय संस्कृति में भारतवर्ष शब्द को चरितार्थ करने वाले एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की अवधारणा दी गई है। जहाँ जाति, सम्प्रदाय एवं अन्य भेद का तनिक भी स्थान नहीं है।
(८). नव्य मानवतावादी सोच की झलक - भारतीय संस्कृति में सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण करने वाली नव्य मानवतावादी सोच की झलक मिलती है। मनुष्य तथा उसके समाज की सोच में देश, काल एवं पात्र के बंधन में आबद्ध करके नहीं रखा गया है। यद्यपि उसकी सामाजिक आर्थिक नीति को देश, काल पात्र की सीमाओं का आदर करना होता है। लेकिन उसकी सोच में रुग्णता का स्थान नहीं देना आवश्यक है।
(९) समस्त मानवों का एक ही धर्म, एक ही दर्शन एवं एक ही जीवन शैली - भारतीय संस्कृति बताती है कि मत व पथ में विभिन्नता रहने पर भी समस्त मानवों का एक ही धर्म होता है - वह मानव धर्म है। इसका भावगत नाम संस्कृत में भागवत है। यदि अरबी फारसी में इसका समानांतर अर्थ खोजे तो रुहानी इंसानियत मिल सकता है। अंग्रेज़ी में ह्यून धर्म शब्द सही है। भारतीय संस्कृति ने न केवल एक ही धर्म की बात की है अपितु अनके सैद्धान्तिक दर्शन के बावजूद मानव का एक मात्र जीवन दर्शन आनन्द मार्ग होने की झलक मिलती है। इसने परम आनन्द की प्राप्ति जीवन सिद्धि माना। मनुष्य की जीवन शैली को भी आनन्द मार्ग पर चलने की ओर इशारा करती है। दु:ख, दु:ख का कारण खोजते व्यक्ति आनन्द की ओर चलता है, यह एक पथ अथवा मत है, जबकि दूसरा मत एवं मत आनन्दमय दुनिया को मानते हुए छोटे परिवार के छोटे सुख से वृहद परिवार बड़े सुख की ओर चलता है। यहाँ समस्त मनुष्य की संस्कार बनी एक ही संस्कृति है।
(१०). ब्रह्म गुरु की धारण - भारतीय संस्कृति गुरु के रुप में ब्रह्म को स्वीकार करती है। यह गुरु ही मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के लिए मार्ग दर्शक होता है। जिसका एक मानवीय रूप स्वीकार किया गया है।
भारतीय संस्कृति की मोटे सांस्कृतिक मूल्यों को देखने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे को इसमें बैठाकर अध्ययन करते हैं।
(१). हिन्दू राष्ट्र की अभिकल्पना एवं भारतीय संस्कृति - भारतीय संस्कृति चराचर जगत की सीमाओं से पार जाकर परमतत्व में भी समा जाती है। उसे हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा से नहीं पकड़ा जा सकता है। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को कितना भी बड़ा किया जाए, कई न कई सीमा रेखा बन ही जाती है। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा भारतीय संस्कृति के वसुधैव कुटुंबकम को छूने असफल हो जाती है।
(२). अखंड भारत की अवधारणा एवं भारतीय संस्कृति - भारतीय संस्कृति विश्व परिवार की अवधारणा है। वहाँ अखंड भारत एक बहुत छोटी अवधारणा हो जाती है।
(३). मातृभूमि का वंदन एवं भारतीय - भारतीय संस्कृति त्रिभुवन को स्वदेश मानती है। समस्त पृथ्वी, ग्रह, ग्रहांतर मनुष्य का देश है, इसलिए मातृभूमि की अवधारणा की भारतमाता अनन्त नहीं है। जबकि भारतीय संस्कृति अनन्त की अवधारणा है। धरती माता - कृषि, उद्योग एवं समाज के विकास के लिए आई थी। भारतीय संस्कृति अनन्त की वंदना की शिक्षा देती है।
(४). ध्वज गुरु की अवधारणा एवं भारतीय संस्कृति - भारतीय संस्कृति में ध्वज का महत्व है लेकिन गुरु के रूप में नहीं। पादुका से आज्ञा लेकर राज करने की अभिधारणा रामायण में है लेकिन गुरु वशिष्ठ है। इसलिए ध्वज गुरु की अभिकल्पना भारतीय संस्कृति में नहीं है। यह मनुष्य जीवन लक्ष्य की ओर नहीं ले जा सकता है एक संकल्प की ओर अवश्य ही ले जाने में मदद कर सकता है।
(५). एकात्म मानववाद एवं भारतीय संस्कृति - एकात्म मानववाद एक वलय है जो व्यक्ति को सृष्टि से जोड़ता है लेकिन यह सृष्टि को व्यक्ति की ओर लेकर नहीं चल पाता। मनुष्य का सृष्टि चक्र भूमा चैतन्य से भूमामन, भूमामन से पंचमहाभूत, पंचमहाभूत से जीवजगत, जीवजगत से मनुष्य तथा मनुष्य से भूमामन व भूमामन को जोड़ने वाला है। ठीक उसी प्रकार उसका समाज चक्र भी मनुष्य की समस्त क्षमता के प्रभाव का आदर करते हुए सभी संभावना के विकास करने वाले को चक्र नाभी बताता है।
(६). अन्य - धारा 370, समान आचार संहिता, राममंदिर - यह सभी राजनैतिक एजेंडा है तथा गौसेवा एक धार्मिक एजेण्डा है। जिसका अध्ययन भारतीय संस्कृति की साथ आवश्यक नहीं बनता है।
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