आनन्द मार्ग से..........
--------------------------------------
जल प्रयोग
---------------------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
आजकल दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केप टाउन जल के महत्व को लेकर भारतवर्ष एवं देश देशान्तर में लोगों को जागरूक करने का प्रेरणा स्रोत बना है। आनन्द मार्ग ने मनुष्य की व्यवहारिक प्रक्रिया षोडश विधि में जल प्रयोग पहला बिन्दु दिया है। वह मनुष्य को आंतरिक, बाह्य तथा अति महत्वपूर्ण अंग के लिए जल प्रयोग की उचित वैज्ञानिक रीति से परिचित कराता है। जल का दुरूपयोग मनुष्य एवं उसके समाज के लिए घातक है। इसके लिए किसी केप टाउन जाने की आवश्यकता नहीं है। किसी के उपदेश एवं आदेश की भी आवश्यकता नहीं है। यह हम सबकी जिम्मेदारी है। जल के सदुपयोग के प्रति गैर जिम्मेदार लोग भी दोष मुक्त नहीं है। जल का प्रयोग जल के सदुपयोग एवं दुरूपयोग दोनों की ओर मनुष्य को लेकर चलता है। दुरूपयोग तो मात्र व्यर्थ जा रहे पानी को रोकना कहकर मुक्त हो जाता है लेकिन सदुपयोग को सदैव जागरूक रहना होता है। क्योंकि जहाँ सदुपयोग नहीं होगा वहाँ सदैव निश्चित दुरूपयोग होने की संभावना रहती है।
जल प्रयोग एक विधा है, कैसे?
1. लघुशंका के बाद मुत्रेन्द्रि को शीतल जल से साफ करना जल प्रयोग की पहली तथा अति महत्वपूर्ण विधा है। शरीर अपशिष्ट पदार्थ के निष्कासन के समय मूत्र का थोड़ा बहुत भाग मुत्र नलिका में रह जाता है तथा यह मुत्र नलिका को धीरे धीरे अवरुद्ध करता है। जिससे कई लैगिक अलैंगिक बिमारियों के जन्म लेने की संभावना है। यदि बिमारियाँ शरीर की पुष्टता एवं अन्य किसी कारण से जन्म नहीं ले तो भी इस प्रक्रिया के नहीं करने मनोविकार का जन्म लेना लगभग निश्चित है। यदि किसी सौभाग्य से मनोविकार हम से दूर रहते हैं तो आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में दुषित शारीरिक पदार्थ अवरोधक बनते हैं। इसका कोई किन्तु परन्तु नहीं है। इसलिए तो बिना विज्ञान समझे प्राचीन काल में बैठकर मुत्र त्याग के साथ मुत्र नलिका की धुलाई करते थे। आज भी हजरत मुहम्मद साहब के अनुयायी यह क्रिया करते हैं। बैठकर मुत्र त्यागना, मुत्रेन्द्रि को जल से साफ करना एवं मूत्रेन्द्रि के चमड़े को पीछे खिंच कर रखना तथा लंगोट का व्यवहार करना साधक की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है।
2. जल प्रयोग का द्वितीय बिन्दु उचित मात्रा में वातानुकूलित एवं शरीर विज्ञान सहमत जल पीना है। इस क्षेत्र में लापरवाही बरतने का अर्थ है - जानबूझकर आपदा को बुलाना। किस समय जल पीना है तथा किस समय नहीं पीना है इसका ज्ञान भी आवश्यक है। एकादशी व उपवास के दिन निर्जला रहना भी जल प्रयोग की उचित रीत है।
3. जल का बाहरी प्रयोग के क्षेत्र में सजग रहना ही जल प्रयोग का उचित अर्थ है। स्नान शीतल अथवा सुषम जल से जितनी जरुरत है, उतने जल से करना, कपड़ा धोने, बर्तन साफ करने, घर बाहर, वाहन इत्यादि की सफाई में जल प्रयोग की मात्रा सभी की मांग को ध्यान में रखकर करनी चाहिए। यही संगच्छध्वम् का एक अर्थ है।
4. जल प्रयोग के अंतिम बिन्दु में जल का अधिकतम उपयोग आता है। जल का एक ज्यादा काम में जितना हो सकें उपयोग लेना ही जल प्रयोग की उचित समझ है तथा प्रगतिशील उपयोग तत्व के प्रति हमारी जिम्मेदारी का एक अंग है।
5. जल का व्यर्थ जाना जल प्रयोग की शब्दकोश में नहीं है इसलिए इसके प्रति जागरूक रहना ही जल प्रयोग के साथ न्याय है।
परिशिष्ट में जल प्रयोग का आध्यात्मिक उन्नति के संबंध है? जल प्रयोग के प्रति जागरूक नहीं रहने वाले साधक से नीति पर चलने की आश नहीं की जा सकती है। जो व्यक्ति स्वयं के साथ न्याय नहीं कर सकता है वो व्यक्ति समाज के साथ न्याय नहीं कर सकता है। जो स्वयं एवं समाज के साथ न्याय नहीं कर सकता है। वह कभी आध्यात्मिक जगत में प्राप्त होने वाली अलौकिक शक्तियों के साथ न्याय नहीं कर सकता है। जहाँ आध्यात्मिक शक्ति का न्याय नहीं होता है वहाँ आध्यात्मिक प्रगति नहीं रहते हैं। उसके स्थान पर अवनति व दुर्गति रहती है। इसलिए इस आलेख मेरी कलम के द्वारा जल प्रयोग का उचित ध्यान नहीं देने से आध्यात्मिक उन्नति अवरुद्ध होती है लिखाया गया है। शायद यह पहली बार किसी लेखनी में आया है। इसके जिन्होंने लिखाया उन्हीं को धन्यवाद देता हूँ।
---------------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
0 Comments: