गुरु पूर्णिमा है अथवा आचार्य पूर्णिमा

भारतवर्ष में आषाढ़ी पूर्णिमा को आचार्य पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता था। इस दिन आचार्य दल विभिन्न गाँवों में योग्य शिक्षार्थी की तलाश में निकलते थे तथा गाँव के आस-पास अपना पडाव डालते थे। वहाँ वे अपने प्रवास काल में दूर-दूर तक संदेश वाहक के माध्यम से शिक्षार्थी तथा उसके अभिभावकों को उनके आने की सूचना तथा गुरुकुल का परिचय देते थे। एक मास तक अभिभावकों एवं जन सामान्य को समाज एवं जीवन शिक्षा देकर शिक्षार्थी पर अपना अधिकार सिद्ध करते थे। एक माह तक आचार्य का आचरण, ज्ञान, व्यवहार तथा जीवनशैली देखकर अभिभावक व शिक्षार्थी गुरुकुल तथा आचार्य, शिक्षार्थी व अभिभावक के व्यवहार व लक्षण के आधार शिक्षार्थी का चयन करते थे। इसलिए एक स्थान पर एक से अधिक गुरुकुल के एकाधिक आचार्यों का पड़ाव होता था। आजकल शाला के चयन में अभिभावक कुछ इस प्रकार की कसरत करते है। आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावणी पूर्णिमा तक गुरुकुलों का प्रवेशोत्सव रहता था। श्रावणी पूर्णिमा के दिन आचार्य शिक्षार्थी को अपने आश्रय में लेता था। अब शिक्षार्थी के शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की संपूर्ण जिम्मेदारी गुरुकुल के प्रधान आचार्य की होती थी। आचार्य दल प्रधानाचार्य के निर्देशन में शिक्षार्थी को गढ़ने लग जाता था। उस काल में कुछ गुरुकुल के योग्य प्रधान आचार्य को गुरु नामक पद भी दिया जाता था। लेकिन सदगुरु मात्र दिव्य सत्ता को ही कहा जाता था। कालांतर में आध्यात्मिक से लोग विमुख हो गए तथा समाज में आडंबर, पाखंड तथा दिखावे का बोलबाला हुआ तब कुछ साधु सन्यासी गुरु बनकर समाज में आगे आए तथा समाज पर अप्रत्यक्ष रुप से शासन करने लगे। प्रारंभ में यह लोग ब्राह्मण वर्ण के होते थे कालांतर में अन्यों ने भी अपने आध्यात्म बल से लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। उससे समाज से गुरु शब्द का मूल अर्थ एवं मूल परिभाषा लुप्त होने लग गई, उसके स्थान पर नये अर्थ तथा नई परिभाषा बनने लगे। गुरुरेव परम् ब्रह्म के स्थान पर गुरुर साक्षात परब्रह्म हो गया। छंद व मंत्र का पार्थक्य भूल गए। आरती, प्रार्थना, स्तुति, आराधना, अर्चना इत्यादि को ही साधना मानने लग गए। कुछ लोग नाम जप तथा कीर्तन को आध्यात्म का अंतिम उपकरण मानने लग गए थे। कुछ बिरले साधकों में मुक्ति की आकांक्षा जन्म लेने के कारण सदगुरु की प्राप्ति होती है तथा वे ध्यान धारणा तथा ब्रह्म सदभाव के पथ पर चलते थे। वे गुरु तथा आचार्य का भेद समझते थे। पर उन्होंने समाज को समझाने का प्रयास नहीं किया। उनकी यह भूल समाज अंधकार की दुनिया में जाने से नहीं रोक पाई। इसलिए आज के समाज धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों की भरमार है। इसलिए कुछ लोग समझने को तैयार नहीं तो कुछेक समझना चाहकर भी नहीं समझ पाते है। लेकिन एक दिन आशा सूर्य उदय अवश्य होगा तथा समाज सभी विसंगतियों को छोड़कर कर आनन्द मार्ग पर चलेगा। 

अंत में विषय का विश्लेषण यही परिणाम देता है कि भारतीय परंपरा में आषाढ़ पूर्णिमा एक आचार्य पूर्णिमा है। 
हस्ताक्षर
श्री आनन्द किरण "देव"

मेरे आचार्य - आचार्य रामाश्रयानंद अवधूत को आलेख समर्पित

नोट - यह मौलिक चिंतन है
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