भारतवर्ष में राष्ट्राध्यक्ष के चुनाव चल रहे है, लेकिन किसी पर का हा हुल्लड़ नहीं दिख रहा है। देश में एक वार्ड पंच, पार्षद व सदस्य के चुनाव में भी उत्सव सा माहौल दिखता है, वही राष्ट्राध्यक्ष के चुनाव में सन्नाटा कैसा? यह समझना आलेख का उद्देश्य है।
राष्ट्रपति जनप्रतिनिधि है, ऐसा हमारे संविधान में लिखा हुआ है। इस तथ्य ने भारत को गणतंत्र बनाया है, अन्यथा लोकतंत्र होने के बावजूद भी भारत गणराज्य नहीं कहलाता। जिस तथ्य के कारण देश की छवि निर्धारित होती है, वह जन इच्छा तथा जनमत का प्रतिनिधि न होकर राजनैतिक चाल एवं दलों की संख्या का एक गणित बनकर रह गया है। हमारे संविधान ने राष्ट्रपति के लिए सशक्त, मजबूत एवं जागरूक मतदाता दिये है, उनको जनमत बनाने के लिए जनसंख्या का फार्मूला प्रदान किया गया है। लेकिन वास्तव में इन वोटर्स को अन्तरआत्मा से फैसला लेने का अधिकार नहीं है। यह पार्टी के अनुशासन एवं विहिप की डोर से बंधे बंधुआ वोटर मात्र है, जिनका वोट पार्टी आलाकमान के इशारे पर दबने वाला एक बटन मात्र है। सच्चे अर्थों में यह लोकतंत्र का देश के साथ किया गया एक मजाक है। देश का ऐसा चुनाव है, जिसमें हार जीत पहले से ही तय होती है। वोटिंग तथा गणना तो औपचारिकता होती है, जिसे कानून सहमत बनाने के लिए निभाई जाती है।
राष्ट्रपति चुनाव की शोभायात्रा हर 5 वर्ष बाद संसद व विधान भवन से निकल कर राजभवन, जिसे कि राष्ट्रपति भवन कहा जाता है, में समा जाती है। फिर पांच साल तक नामात्र राष्ट्रनायक बनकर शोभायमान होने वाला पद है। इसलिए सभी जानते है कि राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी की हार जीत से देश के भाग्य तथा भविष्य की तस्वीर पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। इसलिए इस पद का चुनाव लोकतांत्रिक मूल्यांकन नहीं एक लोकतांत्रिक प्रथा है, जिसका निवहन संविधान को जबाब देने के लिए किया जाता है। इससे अधिक लिखना तथा कहना अतिश्योक्ति है।
राष्ट्रपति एक जनप्रतिनिधि है, यह एक लोकतांत्रिक हास्य है। जहाँ जनता की इच्छा जनप्रतिनिधियों की इच्छा में बंद लोकतंत्र है, वही जनप्रतिनिधियों की इच्छा पार्टी अनुशासन एवं पार्टी विहिप की अनुपालना का लोकतांत्रिक आदेश मात्र है। स्थानीय निकायों के सभापति एवं विधानसभाओं में सत्ता के खेल की बाड़ाबंदी के रुप में लोकतंत्र का चिरहरण हम सबने देखते है, फिर भी चुप इसलिए है कि जहा गैरकानूनी कुछ भी स्पष्ट घटित नहीं होता है। हम खुशनसीब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में अबतक प्रत्यक्ष रुप से ऐसी लोकतंत्र की बाड़ाबंदी हमने नहीं दिखे है। लेकिन ऐसा किसी भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि बाड़ाबंदी नहीं दिखेंगी। यदि डोनाल्ड ट्रंप जैसा प्रत्याशी भारतीय लोकतंत्र में आ गया तो यह बदनसीब दिन भी हमें दिखा सकता है। अत: इसे लोकतांत्रिक हास्य की संज्ञा दी जाए तो कैसे अनुचित हो सकता है।
विषय के अंत में परिणाम यह निकल कर आया कि राष्ट्रपति चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रथा तथा संविधान के साथ नेताओं द्वारा किया गया हास्य है।
वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था पर एक सूक्ष्म और सटीक विश्लेषण
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