श्रीमद्भगवद्गीता - दशम अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय में 35 श्रीकृष्ण एवं 7 अर्जुन उवाच सहित 42 श्लोक है। इसका नामकरण विभूति योग रखा गया है। परमतत्व को सृष्टि का आदि व अनादि तत्व के रुप चित्र संसार में अस्तित्व का होना प्रमाणित किया गया है। विभूति शब्द का अर्थ विराट पुरुष होता है। श्रीकृष्ण विराट पुरुष है, यह प्रमाण पत्र भी इस अध्याय में उपलब्ध है। 

प्रस्तुत अध्याय में श्रीकृष्ण भगवान कहते है कि मैं सृष्टि का आदि एवं अनादि मन से परे हूँ, इसलिए मेरा आदि व अंतर का पार ऋषि, राजर्षि महर्षि,देवर्षि, ब्रह्मर्षि, मुनि, महामुनि, देव, साधु संत, तात्विक व पुरोधा मेरा पता नहीं कर पाए। जो भी मेरा पता करने चला मुझ में ही समा गया। अर्थात हरि एवं हरिजस लिखा नहीं जा सकता है। श्रीकृष्ण कहते है कि मुझ जानने एवं पाने के लिए मुझ में ही विलिन होना होता है। इस पर अर्जुन पुछते है कि हे केशव! सभी तुम्हारे भीतर है इसलिए तेरा पार नहीं पा सकते है, मैं तेरा प्राणप्रिय सखा हूँ मुझे तेरी विभूति ज्ञान करवा, इस श्रीकृष्ण का जबाब इस प्रकार आया सब भूतों में मैं आत्मा, अदितियों में विष्णु, ज्योति में सूर्य, वायु में तेज, नक्षत्रों में चन्द्रमा, वेदों में, साम, देवों में इन्द्र, इन्द्रियों में मन, प्राणियों में चेतना, रुद्रों में शंकर, यक्षों में कुबेर, वसुओं में अग्नि, पर्वतों में सुमेरु, पुरोधाओं में वृहस्पति, सेनापतियों में स्कद, जलाशय में समुद्र, महर्षियों में भृगु, शब्दों में ॐ, यज्ञों में जप, पहाड़ों में हिमालय, वृक्षों में पीपल, मुनियों में नारद, गंधर्वों में चित्ररथ, सिद्धों (दार्शनिक) में कपिल, अश्वों में उचै:श्रवा, हाथियों में ऐरावत, शस्त्रों में वज्र, धेनुओं में कामधेनु, नागों में वासुकी, प्रजननों में कामदेव, सर्पों में शेषनाग, जलचरों में वरुण, पितृओं में आर्यमा, राजाओं में यमराज, दैत्यों में प्रहलाद, गणना में समय, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गुरुड़, पवनों में वायु, शस्त्रधारियों में श्रीराम, मछलियों में मगर, नदियों में गंगा, विद्याओं में ब्रह्म विद्या, संवाद में वाद, अक्षरों में अकार, समासों में द्वंद, कालों में महाकाल, मुखों में सर्वोत्तमुखी, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु, उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति, स्त्रियों में कीर्ति श्री, वाक्‌, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा, श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री, महिनों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में बसंत, छलों में जुआ, तेजस्वियों में तेज, व्यवसायों में विजय, सात्विक पुरुषों में सात्विक भाव, यादवों में वासुदेव पाण्डवों में अर्जुन, मुनियों में व्यास, कवियों में शुक्र, दमनकर्ताओं में दमन, जिगीषाओं में नीति, गोपनीयताओं में मौन, ज्ञानियों में तत्वज्ञान मैं ही हूँ। इस प्रकार सर्वत्र परम पुरुष की विभूति बताकर सबके उत्पत्ति, मध्य व अंत में वही प्रभु है। इस सृष्टि का नाभि केन्द्र श्रीकृष्ण है। सबको कोई उन्हीं चारों ओर घुम रहा है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के विभूति योग में बताया गया है संसार में विशिष्टता जो वह उस भूमा सत्ता का विकास ही विशालता है। उपरोक्त उदाहरण के माध्यम श्रीकृष्ण कहते है कि हे अर्जुन! सबका सारतत्व मैं ही। इसलिए संत महात्मा कह गये है कि सार सार ग्रहण करो, थोथा उडाय दो। 

 संसार के सभी भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक यात्रियों का एक मात्र लक्ष्य आनन्द को पाना इसलिए उनक सब का मार्ग ज्ञात अज्ञात रुप से आनन्द मार्ग। 
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