श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय के 34 श्लोक श्रीकृष्ण के उवाच है। इस अध्याय का नामकरण राजविद्यागुह्ययोग नाम दिया गया है। इसमें यह बताया गया है कि सब कुछ परम तत्व है तथा जो कुछ भी दिखाई देता है उन्होंने ही बनाया, उन्हीं में स्थित है तथा उन्हीं में लय होता है। इसिलिए एक साधक का दायित्व है कि उस परमतत्व को पकड़ कर रखें।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है अब में तुम्हें मेरा परम गोपनीय रहस्यमय विज्ञान का रूबरू करता हूँ। यह ज्ञान ही सभी ज्ञान विज्ञान एवं विद्याओं का राजा है। इस ज्ञान व रहस्य को नहीं जानने वाला ही आवागमन के चक्र पड़ा रहता है। श्रीकृष्ण कहते है कि यह चराचर जगत मुझ में ही स्थित है, इन पंच महाभूत का प्राण केन्द्र मैं ही हूँ । यह मेरे से उत्पन्न हुआ, अपने संस्कार क्षय कर मुझ में ही लय हो जाता है। जैसे वायु आकाश में स्थित है, ठीक उसी प्रकार यह जगत मेरे में ही स्थित है। यहाँ प्रभु श्रीकृष्ण कहते है कि सृष्टि रचना का यह कार्य मेरे द्वारा अनवरत चलता ही रहता है। यह मेरा आश्रय लेकर मेरे ही चारों ओर घुम रहे है, यही सृष्टि चक्र है। यहाँ श्रीकृष्ण अपने इस माया को दो भागों में बांटकर अर्जुन को विद्या एवं अविद्या माया के लक्षणों को बताते है। अविद्या के क्षेत्राधिकार में असुर, राक्षस इत्यादि तथा विद्या के क्षेत्राधिकार में महात्मा व दैवी प्रकृति आती है। इस माया के खेल से साधकों बचने के परम पुरुष को पकड़ रखने का रास्ता बताया है, इसलिए उनके नाम खुब कीर्तन करना चाहिए। यहाँ श्री भगवान अपने सर्वेश्वर रुप की ओर संकेत करते है कि यज्ञ मैं कर्ता मैं, हवि मैं आहुति में, स्वाहा मैं अर्थात सबकुछ परम पुरुष ही है। श्रीकृष्ण बताते है कि सूर्य, पृथ्वी, वर्षा, माता, पिता, मातामह, पितामह यह सब भी मैं ही हूँ। श्रीकृष्ण योगक्षेम वहाम्यहम् का भी उल्लेख करते है। देवी, देवता, भूत प्रेत, झाड़ फूंक इत्यादि में ग्रसित व्यक्ति की मुर्खता एवं अल्पज्ञता की ओर संकेत कर परिपूर्ण बनने के लिए तथा परमपद को पाने के लिए एकमेव साधन एवं रास्ता परम पुरुष की शरणागत एवं समर्पण को बताते है। ध्यान साधना, कीर्तन सबकुछ मन को परम तत्व की ओर ले जाने वाले करते हुए परम पुरुष को समर्पण करना ही प्रगति का पथ है।
इस प्रकार गीता एकेश्वरवाद में प्रतिष्ठित होने की शिक्षा देते है। केवल परम पुरुष का नाम लेना है। यह मनुष्य का कीर्तन है। मैं इसे बाबानाम केवलम के रुप में देखता हूँ।
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