श्रीमद्भगवद्गीता - अष्टम अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में 26 श्रीकृष्ण उवाच एवं 2 अर्जुन उवाच सहित 28 अध्याय है। इस अध्याय का नाम अक्षर ब्रह्म योग है। जिसमें चित्तितत्व ब्रह्म का ज्ञान दिया गया है। 

अर्जुन के आठ प्रश्न ब्रह्म, आध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदेव व अधियज्ञ क्या है? तथा यह शरीर कैसे तथा युक्त चित्त वाला पुरुष अंत में आपको कैसे प्राप्त होता है। इस श्रीकृष्ण ने कहा अक्षर ब्रह्म है, निज स्वरूप आध्यात्म है, भूत भाव उत्पन्न करने वाला त्याग कर्म है, उत्पत्ति विनाश वाला अधिभूत है, हिरण्यमय पुरुष अधिदेव है तथा शरीर में अणु चैतन्य मैं हूँ। जो व्यक्ति मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मुझे प्राप्त होता है अर्थात ब्रह्म भाव में शरीर त्यागने वाला ही जीवन लक्ष्य को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति जिस भाव से देह का त्याग करता अन्ततोगत्वा उसी को प्राप्त होता है। इसलिए अर्जुन के माध्यम साधकों परमतत्व को स्मरण करने के शिक्षा देते है। निर्गुण ब्रह्म को परमपद बताया है। इसको प्राप्त करने का उपाय भृकुटि में ॐ कार के उच्चारण कर परम प्रकाश ध्यान करने को बताया गया है। श्रीकृष्ण कहते निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्त व्यक्ति वापस नहीं आता है, शेष लोगों को जन्म मरण के इस चक्र में तब तक आना होता जब तक परम पद प्राप्त नहीं कर लेता है। अक्षर को पाना परमागति है तथा क्षर एक गति है, जिसमें सभी को घुमना ही होता है। इसके साधना के सूक्ष्म ज्ञान उत्तरायण अर्थात उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर बढ़ रहे साधक की गति सद है दक्षिणायन अर्थात विपरीत गामी गति अधोगति है। इन दोनों ही गतियों से उपर ब्रह्म भाव में लीन रहने वाला परमपद का अधिकार है। 


इस प्रकार अर्जुन को श्रीकृष्ण ने ब्रह्म तत्व का ज्ञान दिया।
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