श्रीमद्भगवद्गीता का सातवें अध्याय के 30 श्लोक श्रीकृष्ण के उवाच है। इस अध्याय का नामकरण ज्ञान विज्ञान योग किया गया है। इस अध्याय में शिव अर्थात पुरुष एवं शक्ति अर्थात प्रकृति के संदर्भ में चर्चा की गई है।
इस अध्याय के आरंभ में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि योग साधना के बल मुझे जानने का रहस्य बताता हूँ। जो मुझे जान लेता है,उसे के लिए ओर जानना शेष नहीं रहता है। यह अवस्था में विरलों कोई ही प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण बताते है कि यह जो दिखाई देता है वह मेरी प्रकृति का खेल है, जो अपरा रुप में मन अर्थात चित्त, अहंकार अर्थात अहम, बुद्धि अर्थात महत् तथा पंच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश तत्व है। परा प्रकृति के माध्यम से आत्मा ( अणु चैतन्य) के आलोक साधक जान पाता है। इस प्रकार यह माया दिखाई देती वस्तुतः सबकुछ मैं ही मेरे अतिरिक्त कुछ नहीं है। माला के सब मोती मुझ धागे से बंधे हुए है। इसके बाद श्रीकृष्ण कुछ विस्तार से कहते है जल में स्वाद, सूर्य चन्द्र में प्रकाश, मंत्रों में ॐ, आकाश में शब्द, मनुष्य में पुरुषार्थ, पृथ्वी में पुण्य गंध, अग्नि में उष्मा, वायु में प्राण, तपस्वी का तप, सभी प्राणियों का आदि अनादि बीज, बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वी का तेज, बलवानों में आसक्ति रहित बल और सब प्राणियों का जीवन मैं हूँ। इस प्रकार श्रीकृष्ण अपनी सर्वव्यापी स्वरूप का भान कराते है। मैं मेरी प्रकृति के सतो गुण, रजोगुण व तमोगुण के अधीन मैं नहीं हूँ लेकिन जीव इसके वशीभूत होकर मुझे नहीं जाना पाता है। मेरी इस माया से पार पाना मुश्किल है लेकिन जिसने मेरी शरण ले ली है वह इस माया से पार हो जाता है। जो विपरीत बुद्धि वाले मेरी शरण को ग्रहण नहीं करते प्रकृति उन्हें ठग लेती है। यहाँ चार प्रकार साधकों का वर्णन किया है प्रथम आर्त ( दु:ख से निवृत्ति चाहने वाला) द्वितीय अर्थाथी ( धन की चाहत रखने वाला), तृतीय जिज्ञासु( परमात्मा को जानने वाला) व चतुर्थ ज्ञानी ( परमात्मा को जानने वाला) है। यह चारों अच्छे है लेकिन ज्ञानी अर्थात आत्मज्ञानी इसमें श्रेष्ठ क्यों परमतत्व को जानता है तथा उसका अनुभव करता है। यह ज्ञानी जन्मजन्मातर के संस्कार भोगकर मेरी शरण में आकर मुझे पा जाते है। श्रीकृष्ण कहते है ज्ञान विहीन व्यक्ति अपनी कामना पूर्ति के देवताओं को पूजते है, उनके इस रुप से मैं ही क्षणिक सुख देता हूँ। इस प्रकार यह लोग भ्रम होने के कारण मुझे नहीं जानने के कारण मेरे दूर है । यद्यपि मैं सभी को जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता है। इस कारण यह सभी आवागमन के चक्र में घुमते लेकिन जिसने मुझे जान लिया, वह मुझ में मिल गया है।
इस प्रकार इस अध्याय में प्रकृति एवं परम पुरुष लीला का विज्ञान बताकर भक्ति तत्व का ज्ञान कराया गया है।
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