श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का नामकरण विषाद योग किया गया है। इस अध्याय के 47 में से 21 अर्जुन, 15 संजय, 10 दुर्योधन व एक धृतराष्ट्र का उवाच है।
विषाद शब्द का अर्थ दु:ख अथवा दु:ख में किया गया विलाप है। इस अध्याय में दो प्रकार विलाप दिखाई देते हैं। प्रथम दुर्योधन का विलाप तथा द्वितीय अर्जुन का विलाप। दुर्योधन ने अपना विलाप पांडवों एवं कौरवों के आचार्य द्रोण के समक्ष प्रकट किया, जिसमें वह पांडवों सैन्य शक्ति का छोटी पर सशक्त होने तथा अपनी सैन्य शक्ति बड़ी एवं सशक्त होने का जिक्र कर चिंता व्यक्त करता है कि मेरे सेना रक्षक भीष्म उभय पक्षपाती है जबकि उनकी सेना के रक्षक भीम निज पक्षपाती है। यह एक प्रकार दुख था, जो अपने आचार्य के समक्ष प्रकट कर रहा है। आचार्य से कोई जबाब पाये बिना ही स्वयं अपने को संभाल कर भीष्म की रक्षा का आदेश देता है। दुर्योधन के विषाद में अपने पक्ष में खड़ा होकर ही दोनों पक्षों का मूल्यांकन है। जबकि दूसरा विषाद अर्जुन का है, जो दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा होकर हार जीत के बाद की स्थिति को लेकर है। दुर्योधन का विषाद मात्र हार जीत तक ही है, जिसमें वह अपने सफलता पर अंदर से संदेह करता है। अपने आचार्य के समक्ष प्रकट करने बाद भी बाहर से किसी को दिखाना नहीं चाहता है। युद्ध के बाद दुर्योधन को मात्र वसुंधरा के सुख भोग की लालसा है जबकि अर्जुन इन सब से परे अपने सांसारिक परिजनों के न रहने का विषाद है। अर्जुन को अपनी जीत के विषय में कोई संदेह नहीं है, परन्तु वह इसे प्रकट नहीं करता है तथा उसे अज्ञात बताता है।
विषाद योग के इस तथ्य में एक ज्ञान एवं समझने की बात यह है कि एक सत व्यक्ति अपने अच्छाई, कामीयाबी एवं खुशी अपनों के साथ बाटकर अथवा दिखाकर संतुष्टि का अनुभव करता है लेकिन यदि इसको देखने व अनुभव करने वाला अपना ही नहीं रहेगा तो सफलता, सम्मान एवं पुरुस्कार पाकर ही शुन्य महसूस करता है। दूसरी ओर अज्ञानी, नासमझ एवं दुर्जन व्यक्ति आत्म सुख के लिए ही जीता है। उसके लिए उसके स्वजन केवल उसका पद, शक्ति व सत्ता है। इस किस्म का व्यक्ति अपने माता, पिता, भाई, बहिन, पुत्र, पत्नी, सगे संबंधियों व मित्रों का उपयोग मात्र अपने सुख के लिए ही करता है।
प्रथम अध्याय के इस विषाद को संजय नेपथ्य में रहकर कथा को संचालन की भूमिका में करता है तथा धृतराष्ट्र मात्र कथा का उदघोष करता है। इस अध्याय में मुख्य पात्र दुर्योधन व अर्जुन है। दुर्योधन शब्द का अर्थ - वह वृत्ति जिसे साधुजन नियंत्रण में लाना चाहते है लेकिन वह नियंत्रण में नहीं आती है। इस वृत्ति का नियंत्रण व नियमन मुश्किल एवं दुष्कर है लेकिन असंभव नहीं है। रोग दु साध्य अवश्य है लेकिन असाध्य नहीं है। इस प्रकार दुशासन का अर्थ जिसे शासन में लाना मुश्किल है। दूसरी ओर अर्जुन ऊर्जा(एनर्जी) का प्रतीक है। अर्जुन को मणिपुर चक्र बताया गया है, जिसकी स्थित मनुष्य की नाभि में है। शरीर विज्ञान के अनुसार नाभि को शारीरिक क्रियाओं नियंत्रण बिन्दु बताया गया है अथवा जीव के शरीर निर्माण मूल एवं आरंभिक बिन्दु है। योग शास्त्र के अनुसार यहाँ अग्नि तत्व की प्रधानता है। मणिपुर चक्र के निचे स्वाधिष्ठान व मूलाधार चक्र है। जो क्रमशः नकुल एवं सहदेव के प्रतीक है। नकुल अर्थात जिसका कोई किनारा नहीं जल तत्व तथा सहदेव सभी वास देने वाला पृथ्वी तत्व। इस प्रकार मणिपुर चक्र के उपर अनाहत व विशुद्ध चक्र भी है। अनाहत वायु प्रधानता वाला शक्तिशाली तत्व भीम का प्रतीक है जबकि भौतिकता एवं आध्यात्मिक का निर्णायक बिन्दु विशुद्ध चक्र सबसे सूक्ष्म पंच महाभूत आकाश तत्व धारण किये युधिष्ठिर है। युद्ध में स्थित है वह युधिष्ठिर है, इसे सम व विषम परिस्थितियां विचलित नहीं करती है। यहाँ महाभारत के एक ज्ञान छिपा हुआ है - दुर्योधन की प्रतिस्पर्धा युधिष्ठिर से है लेकिन उसका प्रतिद्वंधी भीम है। वह भीम को हराना चाहता है लेकिन उसका सामना अर्जुन से होता है। वह जहाँ भी सहायता के लिए जाता है, वहाँ अर्जुन को पहले से पाता है। अत: वह जीवन भर अर्जुन के तोड़ को ढूंढने में घुमता है। कर्ण को पाता है लेकिन विश्वास नहीं होता है।
अब विषाद योग के सार में भौतिकता का नियंत्रण बिन्दु नाभीचक्र अर्जुन आध्यात्मिक के चरम नियंत्रक श्रीकृष्ण तक पहुंचते है। भौतिकता आध्यात्मिक से प्रश्न करती है कि मोह माया का त्याग कैसे करूँ; जबाब में आध्यात्मिकता जो कुछ कहती है, वह गीता बन जाती है।
उत्कृष्ट कार्य निरंतर रखे अच्छा लगा
जवाब देंहटाएं