गुरु पूर्णिमा अथवा आचार्य पूर्णिमा ?

सनातनन परंपरा में आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रुप चयन किया है। इस दिन व्यक्ति अपने गुरु एवं गुरुजन के प्रति श्रद्धा व आस्था प्रकट करते है। 

गुरु के संदर्भ में भारतीय समाज में भिन्न भिन्न दृष्टिकोण दिखाई देते है। कुछ लोग गुरु की आवश्यकता महसूस नहीं करते है, तो एक दृष्टिकोण ध्वज को गुरु मानते है। इन सबमें एक बहुत प्रचलित मान्यता व्यक्ति गुरु है। वास्तव में व्यक्ति गुरु की धारणा एक व्यक्तित्व गुरु की धारणा है। हमारे समाज में हर व्यक्ति की गुरु नहीं माना जाता है। एक व्यक्तित्व को गुरु मानता है। इसलिए व्यक्तित्व गुरु के संदर्भ में चर्चा करते है। गुरु के समानार्थ शिक्षक, अध्यापक, आचार्य, व्याख्याता, प्राध्यापक इत्यादि शब्द विद्यमान है। इनमें से शिक्षक, अध्यापक, व्याख्याता एवं प्राध्यापक शब्द आधुनिक शिक्षा के विद्यालय, महाविद्यालय के है। आचार्य एवं गुरु दो शब्द ऐसे है जहाँ प्राचीन भारतवर्ष की परंपरा के दर्शन होते है। अतः इन दो शब्दों को समझने की कोशिश करते है। 

१. गुरु शब्द - गु का अर्थ अंधकार एवं रु का अर्थ प्रकाश। इसलिए गुरु को अंधकार से प्रकाश, असत से सत, मृत्यु से अमृत, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलने वाले व्यक्तित्व को गुरु बताया गया है। सच में इस शब्द का अर्थ है कि जो व्यक्ति मनुष्य को अपूर्णत्व से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित करने की कला में दक्ष है अथवा अपने अहैतुकी कृपा से उक्त स्थित में व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने की क्षमता रखने वाले व्यक्तित्व को गुरु बताया जाता है। इसलिए व्यक्ति गुरु की अवधारणा व्यक्तित्व गुरु के बिना नहीं रहती है। व्यक्तित्व का निर्माण करने के क्रम में व्यक्ति को विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना होता है। इस अवस्था के प्रत्येक पडाव में व्यक्ति में कुछ विशेषताओं का समावेश होता है, जिसे साधारण व्यक्ति अपने साधारण चक्षु से देखने पर गुरु मानने की भूल कर बैठता है। अतः एक सूत्र मानकर चलना है कि पूर्ण पुरुष ही गुरु होते है। इसलिए शास्त्र गुरु पद पर ब्रह्म को रखा है अथवा ब्रह्म ही मनुष्य तथा उसके समाज के गुरु होते है। 

२. आचार्य शब्द - जो व्यक्ति अपने आचरण से दूसरो को ज्ञान का पाठ पढ़ा जाते है, उन्हें आचार्य कहा जाता है। इसलिए गुरु एवं आचार्य का समान शब्द मानना भूल है। 

३. गुरुजन शब्द - यह शब्द उन आदरणीय व्यक्तियों के लिए प्रयोग करते है, जिनसे व्यक्ति कुछ प्राप्त करता है। इसलिए इसे भी गुरु मानना बड़ी भूल है। 

४. गुरुकुल परंपरा - भारतवर्ष में प्राचीनकाल में गुरु परंपरा थी। जिसमें एक प्रधान आचार्य होते थे तथा उन्हीं नाम गुरुकुल चलता था। उनके देहांत के बाद नये प्रधानाचार्य को भी उसी नाम से जाना जाता था। इस प्रकार व्यक्तित्व का नाम ही पद बन जाता था। इन प्रधान आचार्य के महान आचरण को देखकर समाज उन्हें गुरुवर कह देता था। इसलिए इस शब्द को भी गुरु मानना एक भूल है। 

५. गुरुपूर्णिमा - प्राचीन काल श्रावणी पूर्णिमा के दिन को शिक्षार्थी की शिक्षा आरंभ का दिन स्वीकार किया गया था। इसलिए गुरुकुल प्रधानाचार्य को छोड़कर शेष आचार्य उस गुरुकुल के परिक्षेत्र के नगर, कस्बे एवं ग्राम में अलग-अलग स्थान पर नियुक्त किये जाते थे। वे संबंधित नियुक्ति स्थान (नगर, कस्बे व ग्राम) में पूर्णकालिक रहकर प्रवेश उत्सव का संचालन करते थे। गुरुकुल के लिए शिक्षार्थियों का चयन करते थे तथा गुरुकुल की विशेषताओं एवं परंपराओं के बारे में अभिभावकों, शिक्षार्थी एवं जन साधारण को शिक्षित करते थे। उन आचार्यों के अपनी नियुक्ति क्षेत्र में पहूंचने की तिथि आषाढ पूर्णिमा होती थी। इसलिए इस पूर्णिमा को आचार्य पूर्णिमा कहा जाता था तथा यही इसके सही व उपयुक्त नाम है। 
              मेरे आचार्य जी
        आचार्य रामाश्रयानंद अवधूत
आनन्द मार्ग प्रथम आचार्य, तात्विक व पुरोधा प्रणय दा

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1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुंदर दादा जी आपने गुरु की अतिसुंदर व्याख्या की है!बाबा नाम केवलम्
    🙏🙏🙏🙏🙏

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