श्रीमद्भगवद्गीता पर प्रथम दृष्टि


धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः

मामका पाण्डवाश्चैव किम कुर्वतु संजय।


 श्रीमद्भगवद्गीता को विश्व के सभी धर्म शास्त्र में प्रथम स्थान पर रखा गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में वेदों का कर्मयोग, उपनिषदों का ज्ञान योग, महाकाव्यों का भक्ति योग, कुरआन ए शरीफ का एकेश्वरवाद, बाइबिल की नैतिक शिक्षाएं, गुरुग्रंथ साहिब का गुरु वाणी, जेद ए अवेस्ता का प्रकृति मूल्य, जातक कथाओं का सार, जिन साहित्य का कैवल्य ज्ञान, सभी दर्शनों का सार तत्व एवं जीवन का मूल्य विद्यमान है। श्रीमद्भगवद्गीता किसी देश, समुदाय की संपदा नहीं संपूर्ण मानव समाज की धरोहर है, यह किसी पंथ व मत के लिए नहीं संपूर्ण सृष्टि के लिए श्रीकृष्ण द्वारा प्रदान की गई थी। श्रीकृष्ण इस धरा पर किसी विचाराधारा के प्रचारक के रुप में नहीं आए थे, वे धर्म संस्थापना के लिए आए थे। धर्म मत पंथ, रिलिजन अथवा मजहब में नहीं समाता है। धर्म तत्व को धारण करने के लिए मनुष्य की बुद्धि को तथाकथित मानवतावाद में नहीं उससे उपर एवं विराट नव्य मानवतावाद के सांचे में ढ़लना होता है। इसके अभाव में व्यक्ति धर्म के मर्म को नहीं समझ पाता है। 


श्रीमद्भगवद्गीता के संदर्भ में मेरी टीका किसी जाति व सम्प्रदाय से प्रभावित होकर नहीं लिखी जा रही है, अपितु यह संपूर्ण मानव समाज को प्रगति के पथ चलता देखने के लिए लिखी जहा रही है। हम सभी जानते हैं कि महर्षि वेदव्यास की यह पुस्तक श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के संवाद का संग्रह है। महर्षि वेदव्यास ने जय संहिता नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसका कालांतर में नाम महाभारत पड़ गया। जय संहिता श्रीकृष्ण की महाभारत योजना तथा उसके क्रियांवयन को समाज के पटल पर रखता है। मनुष्य अपने बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार उसे समझने एवं समझाने का प्रयास करता है। इसी जय संहिता में श्रीकृष्ण द्वारा धर्म व अधर्म की जो समझ रेखा खिंची गई, उस गीता नाम से जाना गया। चूंकि यह श्री कृष्ण द्वारा गाई गई थी इसलिए इसे भगवद्गीता नाम दिया गया है। 


आज हमारे समक्ष जो श्रीमद्भगवद्गीता है,उसमें 700 श्लोक कुल 18 अध्याय में विभाजित है। ऋषियों में इसमें उपस्थित ज्ञान विज्ञान के अनुसार इन अध्यायों का नामकरण किया गया है। इन 700 श्लोक में से अर्जुन ने 84 श्लोकों के माध्यम से अपनी जिज्ञासा श्रीकृष्ण के समक्ष रखी, जिसे श्रीकृष्ण ने अपने 574 श्लोकों माध्यम से समझाया गया। मूलतः श्रीमद्भगवद्गीता गीता धृतराष्ट्र के श्लोक के जबाब में संजय द्वारा बताई गई है। अत: संजय के 699 श्लोक व धृतराष्ट्र का एक श्लोक मूल्यांकन योग्य है। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का पहला श्लोक महर्षि वेदव्यास धृतराष्ट्र के मुख कहलाते है, इस श्लोक को संपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता का गाइडिंग एवं कंट्रोलिंग श्लोक कहा गया है। यह श्लोक धृतराष्ट्र द्वारा संजय को धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में उसकी एवं पांडु पुत्रों की द्वारा क्या कर रहा की जानकारी के लिए आया है। इस श्लोक में धृतराष्ट्र, संजय, धृतराष्ट्र पुत्र, पाण्डु पुत्र, धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, युद्ध की इच्छा, सम्मिलित होना नामक आठ तत्व का उल्लेख है। इन आठ तत्वों संतजन, ज्ञानी एवं महापुरुषों ने प्रकाश डाला है। उनके सारतत्व में जो ज्ञान अभि प्रकाशित हुआ उसके अनुसार धृतराष्ट्र शब्द का अर्थ - धृत माने अंधा राष्ट्र माने जो धारण करके खड़ा है, इस प्रकार धृतराष्ट्र का अर्थ हुआ - मनुष्य का अंधा मन। उपरोक्त जन ने मनुष्य के मन को अंध बताया है, जो अच्छा बुरा कुछ नहीं देखता है। अतः उसे देखने के लिए दूसरें तथ्य की आवश्यकता होती है। इसलिए श्लोक में द्वितीय तत्व के रुप संजय को चुना गया है। महापुरुष बताते है कि संजय शब्द बुद्धि अथवा विवेक होता है। मन इस संजय की सहायता से ही शुभ, अशुभ, अच्छा, बुरा, सही, गलत की पहचान करता अथवा दूसरे शब्दों में कहा जाए तो संजय ही मन को उक्त की पहचान कराता है। इसलिए आत्मज्ञान में बुद्धि व विवेक को मन का सारथी बताया गया है। प्रस्तुत श्लोक में तीसरा तत्व धर्मक्षेत्र है। धर्मक्षेत्र का अर्थ वह स्थान जहाँ धर्म का पालन एवं धारण होता है। यह क्षेत्र मनुष्य का शरीर है। मनुष्य जीवन में ही प्राणी सत्य असत्य, पाप पुण्य, शुभ अशुभ, करणीय अकरणीय इत्यादि मार्मिक प्रश्नों पर मंथन होता है; इस मंथन से निकले मख्खन आत्म मोक्ष व जगत हित को धारण कर चलता है, वह मनुष्य कहलाने का अधिकार बन जाता है। इसलिए महापुरुषों ने मानव शरीर को धर्मक्षेत्र की उपमा दी है। श्लोक का चतुर्थ तत्व कुरुक्षेत्र है। कुरुक्षेत्र शब्द का अर्थ कर्मक्षेत्र, जहाँ मनुष्य अपने पुरुषार्थ के बल पर अपने दुनिया बनानी है। अत: महापुरुषों ने संसार को कुरुक्षेत्र की उपमा दी है। अत: श्लोक में अंधामन विवेक से पुछ रहा है कि शरीर एवं संसार में अच्छाई व बुराई के मध्य जो निरंतर संधर्ष अथवा संग्राम चल रहा है। जिसे शास्त्र में धर्मयुद्ध कहा गया है। इसमें मेरे एवं पाण्डु पुत्र क्या कर रहे है, उसका वर्णन करो। 


श्लोक के आगामी पायदान पर धर्मयुद्ध नाम तत्व आता है। इसमें लड़ने के इच्छुक सत्य तथा असत्य पक्ष के योद्धा है। मनुष्य के शरीर के अंदर सतपथ पर ले जाने वाले तत्व एवं कुपथ पर ले जाने वाली वृत्तियों के मध्य संघर्ष होता है। उदाहरण एक अधिकारी रिश्वत लेता है जबकि दूसरा नहीं लेता है। इसमें जो क्यों शब्द है, उसका उत्तर ही गीता के ज्ञान को समझा सकता है। ठीक इसी प्रकार संसार में सज्जनों एवं दुर्जनों के मध्य संघर्ष चलता है। यह संघर्ष सदैव खुनी हो आवश्यक नहीं है। 


श्लोक के उत्तर भाग में धृतराष्ट्र मेरा तथा पाण्डु पक्ष नाम दो तत्वों का उल्लेख करता है। मेरा अर्थात मन का पक्ष एवं पाण्डव पक्ष अर्थात वह सत संकल्पित पुरुष जिसकी बुद्धि सत असत की अग्नि में तपकर, करणीय अकरणीय के तराजू में तुलकर धर्म का चयन कर दिया है, वही पांडु है। इसलिए पाण्डु पक्ष अर्थात सतपथ अथवा प्रगति का पथ तथा उसके विपरीत मन पक्ष अर्थात प्रगति के मार्ग के कंटक है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के शोधपत्र के अनुसार पंच महाभूत क्षिति, जल, अप, मरु व व्योम क्रमशः सहदेव, नकुल, अर्जुन, भीम व युधिष्ठिर नामक पांच पांडव है तथा इन तत्वों को पर क्रियाशील पचास वृत्तियां, जो अंदर एवं बाहर दोनों ओर प्रभाव दिखाने के कारण पचास गुणा दो सौ वृत्तियां कहलाती है। यह वृत्तियां मन अर्थात धृतराष्ट्र का पक्ष कौरव पक्ष है। 


यह श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम श्लोक का गुढ़ार्थ है। इसके विषय विस्तृत जानकारी के लिए गीता पर टीका लिखने वाले टीकाकार, गीता के श्लोकों की व्याख्या करने वाले व्याख्याकार, संतजन के जीवन अनुभव, महापुरुषों की वाणी एवं परम पुरुष श्रीश्री आनन्दमूर्ति जी के प्रवचन का अध्ययन किया जा सकता है। 

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