श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय-02

श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में 72 श्लोक है, जिसमें से 63 श्रीकृष्ण, 6 अर्जुन एवं 3 संजय उवाच के नाम से जाने जाते है। यह श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा बड़ा अध्याय है, इसका नामकरण साख्य योग किया गया है। साख्य शब्द का शाब्दिक अर्थ संख्या होता है। अर्थात जब हम ज्ञान का विश्लेषण संख्यात्मक विभाजन के आधार पर करते है सांख्य की ओर चलते है। अधिक स्पष्ट समझने के लिए बिन्दुवार क्रमिक विश्लेषण है। पृथ्वी के प्रथम दार्शनिक महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन दिया था, जिसमें 25 तत्व के माध्यम से दर्शन का ज्ञान दिया। अतः सांख्य शब्द का भावार्थ ज्ञान से लिया जाता है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय को गीता सार भी कहा गया है। जिसमें श्रीकृष्ण भगवान शोक व्याकुल अर्जुन को ज्ञान, कर्म एवं भक्ति के माध्यम से सतपथ पर चलने की प्रेरणा देते है। मनुष्य का जीवन धर्म, अधर्म, कर्तव्य अकर्तव्य, दायित्व अदायित्व, फर्ज अफर्ज के दो पहलूओं को लेकर यात्रा है, जिसमें सत्य असत्य, धर्म अधर्म, न्याय अन्याय के मध्य संघर्ष होता है। वस्तु यह ही धर्म युद्ध है, जिसे आपको मुझे सबको लड़ना होता है। एक सैनिक परिवार व अपने जीवन की चिंता करने लग जाए तो वह अपने कर्तव्य का निवहन नहीं कर पाता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण शोकातुर अर्जुन को साधारण एवं विशेष समझ के माध्यम से कर्तव्य करने की प्रेरणा देते है। कुछ मनुष्य सबकुछ जानते हुए भी विषाद में पड़ जाते उन्हें साधारण सा बोध कराते ही अपने दायित्व को समझ जाते हैं तथा कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर हो जाते है। दूसरे कुछ बहुत अधिक संवेदनशील होते उन्हें कर्तव्य पथ लाने लिए विशेष रीति से समझना पड़ता है। 

श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन को प्रारंभ में साधारण समझ देते है तथा उन्हें कहते है - इस प्रकार कायर बनकर हिम्मत मत हारो, मोहमाया में पड़कर हताश मत हो तुम एक योद्धा हो युद्ध करो, युद्ध नहीं करना शोभा नही देता है लेकिन अर्जुन इस साधारण सी बात से नहीं समझता तथा अपना विषाद दो रुप प्रकट करता है - प्रथम आदरणीयजन यद्यपि वह गलत राह पर है तथापि वे मेरे आदरणीय परिजन है इसलिए उनसे संघर्ष नहीं कर सकता हूँ, द्वितीय दुष्ट आततायी शत्रु भी मेरे परिजन है, इसलिए मारने की बजाय में रण छोड़ना उचित समझता हूँ। विवाद से बचने के लिए अपना अधिकार छोड़ देना, इस प्रकार गलत व्यक्ति को गलती करने लिए बढ़ावा देना है। यहाँ एक गाल पर थप्पड़ मारने वाले के सामने दूसरा गाल करना अथवा नहीं करना की दुविधा है। अतः श्री कृष्ण मर्म, धर्म एवं कर्म के माध्यम से अर्जुन को विशेष समझ देते है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के ज्ञान को तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम आत्मज्ञान द्वारा समता बोध करते हुए कर्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा देता है। द्वितीय कर्मयोग के माध्यम आगे बढ़ने की प्रेरणा देते है। अंत भक्ति के माध्यम से स्थिर प्रज्ञ बनकर जयी होने की शिक्षा दी गई है।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मनुष्य के चलने के दो मार्ग है ज्ञान मार्ग एवं कर्म मार्ग। यहाँ भक्ति को मार्ग नहीं ध्येय बताया गया है। दोनों ही पथ की सफलता एवं संतुलन के भक्तिनिष्ठा को धारण करके ही चलना होता है। वस्तुतः गीता बताती है कि मनुष्य के प्रगति का एक ही मार्ग है। जिसमें पहले ज्ञान द्वारा सत्य असत्य को पहचाना एवं पथ की जानकारी लेना है, द्वितीय क्रियाशीलता के माध्यम लक्ष्य तक पहुँचना है। यह पथ मनुष्य के लिए तभी आनन्ददायक होता है जब इसमें भक्ति हो। अंततोगत्वा भक्ति ही मनुष्य को परमपद में प्रतिष्ठित कराती है। श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय आनन्द मार्ग चुनने का संकेत दिया गया है। 

आत्मज्ञान - श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते कि विद्वान किसी मरने या जीवित रहने को शोक नहीं करते है क्योंकि मनुष्य वस्तुतः आत्म तत्व है जो न जन्म लेता है न ही मृत्यु को प्राप्त होता है। यह अजर, अमर एवं अविनाशी है। यह आज भी है, कल भी था तथा कल भी रहेगा। प्रथम व अन्तिम स्थित में अप्रकट था बीच ही प्रकट है। यदि कोई भूलवश आत्म तत्व अनित्य समझ ले तो भी यह शास्वत सत्य है कि जिसने जन्म लिया है, वह मरेगा तथा जो मरेगा वह पुर्नजन्म अवश्य लेगा। आत्म तत्व मात्र कपड़े की भांति शरीर बदलती है। इसे न गलाया जा सकता न ही सुखाय जा तथा न ही तोड़ा जा सकता है। अर्थात आत्म तत्व को न कोई नष्ट कर सकता है, न ही अवस्था परिवर्तन कर सकता है तथा न विभाजित कर सकता है। अतः श्री कृष्ण कहते है कि इस आत्मज्ञान को जानकर समता भाव में रहकर कर्तव्य करना चाहिए। कर्तव्य नहीं करने से अकिर्ती व अपयश प्राप्त होता है, जो वीर, धीर एवं स्वाभिमानी पुरुष के लिए मृत्यु से बढ़कर है। 

कर्म विज्ञान - श्रीकृष्ण ज्ञान की बात करने के बाद कर्म तत्व के विषय में समझाते है जो मनुष्य फल की इच्छा से जो कर्म किये जाते है, शवह मनुष्य के बंधन के कारण बन जाते है जबकि जो कर्म फल की इच्छा से रहित किये जाते है, वह बंधन के कारण नहीं है। इसलिए निष्काम कर्म की श्रेष्ठता का समझाया है तथा अर्जुन निष्काम कर्म हेतु प्रेरित किया। सकाम कर्म मनुष्य के लिए सुख व दुखदायी होते है जबकि निष्काम कर्म सुख व दुख से उपर आनन्ददायक है। इस प्रकार आसक्ति रहित कर्म करते हुए होकर समभाव में प्रतिष्ठित होना श्रेष्ठ पुरुष के लक्षण बताए गए है। 

भक्त व भक्ति - अर्जुन स्थिर प्रज्ञ पुरुष के लक्षणों के बारें में पुछता है, उसके जबाब में श्रीकृष्ण बताते है कि जो व्यक्ति सभी कर्मों को परम तत्व में समर्पित कर करता है तो मनुष्य के वे कर्म उसके बंधन नहीं बनते है। यहाँ मनुष्य अन्यन भाव से परम पुरुष को समर्पित हो जाता है, जो भक्ति की पराकाष्ठा है। ऐसा मनुष्य कर्म अपने प्रियतम की पूजा मानकर करता है, तब सकाम निष्काम दोनों परिधि उपर उठकर स्थिर प्रज्ञ बन जाता है। उसकी बुद्धि सम विषम, सर्दी गर्मी, सुख दुःख में विचलित नहीं होती है। इस विधि से वह बंधन मुक्त हो जाता है। 

इस प्रकार श्रीकृष्ण यंत्री बन जाते है एवं अर्जुन यंत्र इसलिए अर्जुन के कर्म श्रीकृष्ण के हो जाते है एवं अर्जुन संस्कार (अभुक्त कर्म) शुन्य अवस्था को प्राप्त कर जाता है। यह बिन्दु ही मोक्ष एवं मुक्ति का द्वारा बताया गया है। यही गीता का सार है 


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