श्रीमद्भगवद्गीता तृतीय अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय में 43 श्लोक है, जिसमें से 40 श्री कृष्ण व 3 अर्जुन उवाच है। इस अध्याय का नाम कर्मयोग  दिया गया है। इसमें कर्म, कर्म की अनिवार्यता, कर्म का तरीका एवं कर्म से विमुक्ति की ओर चलने की पथ निर्देशना दी गई है। 

अर्जुन ज्ञान से समभाव एवं कर्म से समता बोध की बात सुनकर दुविधा में पड़ गया तब उसने श्री कृष्ण से कहाँ कि ज्ञान की श्रेष्ठता प्रमाणित कर आप मुझे भंयकर कर्म में क्यों ढकेल रहे हो, उसके उत्तर में श्रीकृष्ण जी ने कर्मयोग ही समझा दिया। उन्होंने कहा कि निष्ठाएं ज्ञान ओर कर्म है लेकिन कोई भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता है। यदि कोई ऐसा कहता है तो वह कपटाचारी अथवा मिथ्याचारी है। बल पर कर्म को रोकने वाला मानसिक कुचिन्ता में लिप्त होकर कर्म कर रहा है। कर्म विज्ञान के अनुसार इस संसार में कोई भी अकर्मण्य नहीं है। यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन का शास्त्र में मनुष्य के जो निहित कर्म बताये उन्हें करने की सलाह दी है। यहाँ बहुत ही अच्छा शब्द आया है यज्ञ निहित कर्म को छोड़ कर शेष बंधन कारण है। इसलिए यज्ञ शब्द का अर्थ समझना अति आवश्यक है, यज्ञ शब्द का सेवा, कर्तव्य, परोपकार के लिए किया तप कार्य है। यहाँ एक ओर बात का भी उल्लेख किया गया है कि सृष्टि के आरंभ से यज्ञ द्वारा देवता की तृप्ति करने देवता तुम्हे मन वांछित सेवाएं देने का विधान प्रजापिता द्वारा बनाया गया बताया गया है। देवता शब्द का अर्थ सतपुरूष है, जो समाज सेवा के कार्यों खुश होते तथा समाज सेवक उपयुक्त सम्मान एवं स्थान देते ऐसा प्रकृति का विधान है तथा होती है। यह जो सम्मान, स्थान एवं पुरूस्कार अथवा पारिश्रमिक समाज सेवक को मिलता है। उसका अकेला उपयोग करने पर पतन की ओर ले जाती है, इसलिए जो प्राप्त हुआ सबके साथ बांटकर खाने को श्रेष्ठता का लक्षण बताया गया है। यहाँ एक बात रेखांकित की गई है कि प्राणी अन्न से, अन्न वर्षा से वर्षा यज्ञ से, यज्ञ कर्म से, कर्म वेद से तथा वेद ब्रह्म से उत्पन्न हुए बताया गया है। यहाँ यज्ञ शब्द अग्नि, ताप व सूर्य है तथा वेद प्रकृति का शास्वत सत्य है। यह बताकर श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम सभी मनुष्य को सृष्टि के विधान अनुसार काम करने की राह दिखाते है, यहाँ एक बात रेखांकित करते है कि यद्यपि पूर्ण पुरुष कोई कर्म करने की आवश्यकता नहीं भी संसार में रहता है तो उन्हें कर्म करना होगा क्योंकि समाज उन्हें आदर्श मानता है, इसके श्री कृष्ण स्वयं का प्रमाण देते है। इस प्रकार श्रीकृष्ण बताते ज्ञानी पुरुष आसक्ति रहित कर्म कर कर्ता का अभिमान भी नहीं करते है, अज्ञानी नासमझ इसका अभिमान कर अपने पतन की रहा है। इससे बचने एक रास्ता है अपने निर्धारित दायित्व को परम पुरुष को अर्पित करना यही धर्म की रहा है। यहाँ एक बात रेखांकित करते है कि सृष्टि के सभी जीव अजीव के लिए प्रकृत निहित कर्म एवं विशेषता उसका धर्म है। यह उसका स्वधर्म है तथा स्वधर्म का पालन करते हुए मरना परधर्म अर्थात अन्य प्राणियों के लिए निहित धर्म से अच्छा है। कर्म के इस ज्ञान को समझ कर अर्जुन पुछता की फिर मनुष्य पाप कर्म क्यों करता है? इसके जबाब श्रीकृष्ण काम, क्रोध इत्यादि रिपु को इसका उत्तरदायी बताया है। इसलिए रिपु दमन बनने की सलाह दी है। तृतीय अध्याय के अंत में लिखा कि इन्द्रियों से शरीर, शरीर से मन, मन से बुद्धि तथा बुद्धि से आत्मा को श्रेष्ठ बताकर काम रिपु से पृथक रहने की पर जोर दिया है। 

कर्मयोग के मार्मिक ज्ञान द्वारा श्रीकृष्ण मनुष्य को स्वधर्म अर्थात मानवता के पालन की शिक्षा है तथा उसी से निहित परम ब्रह्म को समर्पित करते हुए निष्काम कर्मशील बनने की प्रेरणा देते है। अत: मनुष्य के जीवन का आदर्श वाक्य है करते करते मरो एवं मरते मरते भी करो। 


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