श्रीमद्भगवद्गीता- चतुर्थ अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में 41 कृष्ण व 1 अर्जुन उवाच सहित 42 श्लोक है। इस अध्याय का नामकरण ज्ञान कर्म सन्यास योग किया गया है। इस अध्याय में परम पुरुष के धरा पर आगमन का उदघोष सहित कर्म से सन्यास की जीवन जीने की कला का ज्ञान प्रदान किया है। 

तृतीय अध्याय में यह प्रमाणित हो गया था कि जगत में सभी को कर्म करना ही होता है तथा कर्म करना सभी दायित्व है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा कि सृष्टि की रचना के समय मैंने कर्मयोग का सूक्ष्म ज्ञान, जो मैं तुम्हें सुना रहा हूँ, वह सृष्टि के उषाकाल में सूर्य को दिया था। अर्थात प्रकृति को कर्मयोग के साँचे में ही ढ़ाला है वही से मनु अर्थात मनुष्य एवं इक्ष्वाकु अर्थात राज्य व समाज के पास आया है। चूंकि कालक्रम में मनुष्य इसे भूल जाता है इसलिए इसे दोहराना पड़ता है। इस पर अर्जुन कहता हम तो आज है लेकिन सूर्य अर्थात प्रकृति तो प्राचीन है, इस पर भगवान कहते है कि जब जब धर्म की हानि एवं अधर्म का उत्थान होता तब मैं साधुजन के कल्याण व दुष्टों का विनाश कर धर्म की संस्थापना के लिए आता हूँ। जो मेरे जन्म एवं आगमन का उद्देश्य समझ जाते है तथा युग के निर्दिष्ट कर्तव्य कर्म करने लग जाते, वे हमराही अंततोगत्वा मुझे ही प्राप्त करते है। यहाँ यह तकनीक बात उठाई गई है कि कुछ योगी कार्य सिद्धि के लिए देवताओं पूजन करते अर्थात अपने आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग लौकिक शक्ति, सत्ता एवं वस्तुएँ पाने के लिए  करते है। वे परमतत्व से दूर रहते है। जागतिक व्यवस्था के संचालन के लिए शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य नाम वर्ण प्रधान चक्र रचना मेरे द्वारा की गई है अर्थात प्राकृत है। उसी  गुणों आधार पर समाज ने कर्म विभाजन व्यवस्था को स्थापित किया है। मनुष्य यदि इस ज्ञान को जानकर परम तत्व में लीन होकर अपना कर्म करता जाता है, वह बंधन में नहीं पड़ता है। जो करणीय अकरणीय पर विचार करता हुआ चलता है, वह पंडित है। इस प्रकार के ज्ञान द्वारा वे कर्म से आसक्त नही होता है लेकिन बुद्धिमान भक्त कर्ता, कर्म, सहकर्म, उपकर्म क्रिया, प्रक्रिया सभी पर ब्रह्म भाव लेकर भूत यज्ञ, नृयज्ञ, पितृयज्ञ व आध्यात्म यज्ञ रुपी दायित्व को संपादन परम को प्राप्त करता है। गीता में कहा गया कि वस्तु यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ तथा ज्ञान के द्वारा कर्म आसक्ति एवं विकार उत्पन्न होते है, उन्हें नष्ट करने सलाह देते है।

इस प्रकार गीता में कर्म सन्यास का ज्ञान कराते हुए बताया कि कर्म से पलायन नहीं, दायित्व पर ब्रह्म भाव से आरोपित करना ही कर्म सन्यास है। यह ज्ञान ही संसार में मधु विद्या है।
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