श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय में 28 श्रीकृष्ण व 1 अर्जुन उवाच सहित 29 श्लोक है। जिसका नाम कर्म सन्यास योग रखा गया है। चतुर्थ अध्याय में कर्म सन्यास योग के सैद्धांतिक पहलू चर्चा की गई, जिसे ज्ञान कर्म सन्यास योग नाम से समझाया गया है। पंचम अध्याय कर्म सन्यास के व्यवहारिक पक्ष चर्चा है। यहाँ एक बात रेखांकित है वह कर्म से व्यक्ति के सन्यासी बनने की कला है।
अर्जुन श्रीकृष्ण से पुछता है कि कर्मयोग एवं कर्मों से सन्यास योग दोनों की बात बताई गई है, उन में से जो उपयुक्त रास्ता है, उस पर चर्चा करें। जबाब में श्रीकृष्ण कहते है वस्तुतः दोनों कोई पार्थक्य नहीं है, मात्र व्यक्ति की समझ में पार्थक्य दिखाई देता है। श्रीकृष्ण ने अधिक स्पष्ट करने कहा ज्ञानयोग एवं कर्मयोग को भी पृथक अल्प बुद्धि के व्यक्ति मानते है। अपने बात को अधिक अच्छी तरह से समझाने लिए भगवान कहते है ज्ञान योगी कर्म से मैं कर्ता भाव को हटाकर चलता तथा कर्मयोगी कर्म को ब्रह्ममयी बनाकर चलता है। इन दोनों व्यवहारिक बनाने के लिए कर्म सन्यास योग है, जिसमें योगी अपने सभी कर्मों को परम पुरुष को अर्पण करके चलता है। कर्म योगी ममतत्व रहित, आसक्ति भाव को त्यागकर अंतकरण को शुद्ध करते हुए भगवत प्राप्ति की ओर चलाता है तथा अन्ततोगत्वा सच्चिदानंद में विलिन हो जाता है। ज्ञानयोगी कर्तापन, कर्मपन व कर्मफल के भाव त्यागकर साधना कर अपने नवचक्र के शरीर में आनन्द का प्रकाश का अनुभव परम आनन्द को प्राप्त होता है। इस प्रकार के व्यक्ति सभी को समत्व देखकर चलते है। अब इनके लिए विप्र चंडाल, गाय, हाथी में भेद नहीं रहता है। इस प्रकार के योगी सुख दुःख के अनित्य खेल परे आनन्द की अवस्था में रहते है। उन्हें ब्रह्मवेत्ता, पूर्णत्व प्राप्त आदि नामों से जाना जाता है। इस अवस्था में अणु व भूमा, जीवात्मा व परमात्मा नर व नारायण का पार्थक्य नहीं रहता है।
यह अध्याय साधक को यही प्रेरणा देता है कि हे जगतगुरु तुम्हारा द्रव्य तुम्ही को समर्पित है के भाव में प्रतिष्ठित होकर भावातित बनना ही जीवन लक्ष्य है।
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