प्रउत ही क्यों?
विज्ञान की प्रगति ने पृथ्वी ग्रह को एक परिवार में बदल दिया है। आज सम्पूर्ण विश्व संचार, परिवहन, व्यापार एवं ज्ञान विज्ञान इत्यादि क्षेत्र में लगभग एक दिखाई देने लग रहा है। कतिपय राजनीति की दीवारें एवं अविवेकी आर्थिक व्यवस्था के चलते उपरोक्त सकारात्मक परिवेश होने के बावजूद मनुष्य एवं उसका समाज अविश्वास में जी रहा है। ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से मानव मनीषा अदभुत पूर्ण विकास करने के बावजूद भी युद्ध एवं विनाश के भय में जी रहा है। जिसका कारण हमारे सामने है कि मनुष्य ने मनुष्य बनकर नहीं एक साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय एवं नस्लीय व्यक्तित्व बनकर अपने को रिलिजन, देश, राज्य एवं जाति में बंद होकर करके रखा है।
व्यक्ति को मानसिक एवं बौद्धिक दृष्टि से मुक्त कर एक मनुष्य बनाने का प्रयास कई सतपुरूषों द्वारा किया गया है तथा किया जा रहा है। लेकिन समाज का भौतिक परिवेश अनुकूल नहीं होने के कारण उपरोक्त सज्जनों को अपेक्षित एवं वांछित सफलता नहीं मिल पाई है। जिन महापुरुषों सम्पूर्ण मानवता को बंधुत्व की डोर में बांधने का संदेश दिया था; उनके अनुयायियों ने उस महापुरुष को अपने मत एवं पथ का आराध्य एवं अग्र पुरुष बनाकर रख दिया है।
शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रतिभा के धनी मनुष्य एवं उसके समाज को भौतिक, बौद्धिक एवं आत्मिक क्षेत्र में एकता की डोर में बांधने के लिए आया है प्रउत।
प्रउत दर्शन मनुष्य को उसके जीने योग्य परिवेश का निर्माण करने के सूत्र देकर निर्देशना देता कि इसके अनुकूल विश्व का निर्माण करें। प्रउत क्यों का प्रमेय तो यहाँ ही सिद्ध हो जाता है, लेकिन प्रउत ही क्यों का प्रमेय और भी उपपत्ति की मांग करता है। इसे सिद्ध करने के लिए सर्वप्रथम पृथ्वी पर चल रही कतिपय अवधारणाओं का अवलोकन किया जाना आवश्यक है। इस पृथ्वी पर मौटे रुप से उदारवाद, व्यवहारवाद, मानवतावाद, राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रीयतावाद व वैश्विक अवधारणाएँ प्रचलित है। यह अवधारणाएँ मनुष्य को बौद्धिक क्षेत्र में निर्मित करने की चेष्टा कर रही है लेकिन इस में से किसने भी मानव मन की आवश्यकता एवं अभिलाषा समझने की कोशिश नहीं की है।
जहाँ राष्ट्रवाद मनुष्य एक सीमा में आबद्ध रखकर भाईचारे की बात कहता है; वही अन्तर्राष्ट्रीयतावाद मनुष्य कुछ बड़ा बनाता है। वैश्विक अवधारणा मनुष्य विश्व के प्रति चिन्तन करने का अवसर देता है, लेकिन इन में से किसी ने विश्व परिवार के सृजन की आवश्यकता को महसूस नहीं किया है। कुछ मनुष्य कह सकते है कि वैश्विक दृष्टिकोण विश्व परिवार की रचना की ओर ले चलता है। यहाँ एक बात समझना आवश्यक है कि सहानुभूति व सहिष्णुता से मनुष्य की अभिलाषा शांत नहीं होती है। इसके लिए मनुष्य में पड़ौसी के प्रेम की नहीं, बंधुत्व के प्रेम की आवश्यकता है; इसलिए विश्व बंधुत्व की आवश्यकता है। प्रउत विश्व को पुकारता है कि विश्व बंधुत्व कायम हो। यहाँ पारिवारिक संबंध व अपनत्व की एकता है।
अब उदारवाद, व्यवहारवाद एवं मानवतावाद की बात करते है। यह मनुष्य कल्पना लोक उपर उठकर वास्तविक लोक में जीने का संदेश लेकर आए थे। उदारवाद मनुष्य उदारता का पाठ पढ़ाने आया था। यह उदारता का पाठ पढ़ाते पढ़ाते धर्म निरपेक्षता पर सवार होकर आत्मिक लोक से कोशों दूर जाकर भौतिकवाद में समा गया। जहाँ पदार्थवाद के लेकर उलझ गया। तथाकथित उदारवाद मनुष्य के मन की अभिलाषा को समझकर शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के पर मनुष्य को ले चलता तो यह अपने मूल अर्थ में सफल हो जाता। वही व्यवहारवाद पूर्णतया भौतिकवादी दर्शन है। मनुष्य के आदर्शवादी सूत्रों को अव्यवहारिक करार देता है। जिसके कारण मनुष्य एक आर्थिक प्राणी बनकर रह गया। उदारवाद एवं व्यवहारवाद, मनुष्य अय्याशी एवं भोगविलास में जाने से रोकने में असफल रहे। इस धरातल पर क्षेत्र, नस्ल, जाति एवं सम्प्रदायवाद पर प्रहार करते हुए मानवतावाद आया। इसने मनुष्य की जरूरत समझकर चलना आरंभ किया लेकिन यह समझने की भूलकर बैठा की धरा मात्र मनुष्य की ही नहीं सम्पूर्ण जीव व अजीव जगत की है। यहाँ मनुष्य को अपने विकास की प्रमा को इस भांति समायोजित करके चलना पड़ता है कि उसका लोक त्रिकोण एवं प्रमा त्रिकोण पूर्णरूपेण सही रहे। इसलिए मनुष्य के लिए आवश्यकता नव्य मानवतावाद। यहाँ मैं रुककर एकात्म मानववाद पर भी दृष्टिपात करता हूँ। इसके अनुसार मनुष्य जगत के लिए जगत मनुष्य के लिए नहीं। यह मूल भूल ही एकात्म मानववाद को मूहँ के बल पर गिराता है। पुनः मानवतावाद की ओर चलते है। मानवतावाद ने मनुष्य का बाहरी रुप एवं बाहरी क्रियाकलाप ही देखा। मनुष्य के अंदर भरी प्रचंड संभावनाओं के आधार पर मनुष्य का निर्माण करना भूल गया। मनुष्य प्रथम अंदर से निर्मित होता है फिर परिवेश की मर्यादा देखकर अपने को उसके अनुकूल चलाता है। यदि मानवतावाद ने मनुष्य शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप समझकर मनुष्य तथा उसके समाज का गठन किया होता तो आज मानव जाति वैमनस्य, अविश्वास एवं दोषपूर्ण सिद्धांतों को नहीं ढ़ोती।
इन सबके चलते भौतिक जगत में सामंतवाद के हाथ बचने के लिए पूंजीवाद का जन्म हुआ। पूंजीवाद से बचाने के लिए साम्यवाद आया। जिसने समाजवाद एवं विकासवाद के वस्त्र भी धारण किये। पूंजीवाद एवं साम्यवाद ने कभी भी मनुष्य एवं उसके समाज को नहीं समझा मात्र अपनी-अपनी बोझिल अवधारणाएँ मनुष्य पर थोपते गए। मनुष्य अपने अपरिपक्वता के कारण उस बोझ के तले दबता गया एवं शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की संरचना रही लेकिन वैचारिक दृष्टि से मनुष्य एक विचारशील पशु बन गया। इसलिए मनुष्य को एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जो मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप का दर्शन करवा कर उसके अनुसार समाज संचालन कार सके। उसको लेकर इस धरती विराट पुरुष श्री श्री आनन्दमूर्ति जी आये उन्होंने मनुष्य के लिया दिया आनन्द मार्ग तथा स्वयं एक महासदविप्र श्री प्रभात रंजन सरकार बनकर जगत लिए दिया नव्य मानवतावाद एवं उस पर आधारित सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के लिए 'प्रगतिशील उपयोग तत्वतत्व' नामक दर्शन दिया।
अब हम प्रउत ही क्यों प्रमेय की सिद्ध करने का प्रयास करते है। प्रउत मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखकर एक परिपूर्ण मानव की ओर ले चलता है। प्रउत समाज को सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के प्रगतिशील उपयोग तत्व के आधार पर संश्लिष्ट समाज की रचना करता है। यहाँ शासन शक्ति एवं अर्थ शक्ति के अधिकार में स्पष्ट विभाजन है। यह आत्म सुखार्थ की बजाए सम समाजिकता को लेकर बढ़ता है। यहाँ बुद्धि किसी भावधारा में नहीं विचारपूर्ण मानसिकता पथ को चलती है। यहाँ जगत की विचित्रता का अंगिकार किया जाता है तथा न्यूनतम आवश्यकता को सबके आवश्यक माना जाता है। प्रउत गुणीजन की प्रतिभा का भी सम्मान करता साथ में मनुष्य जीवन स्तर को उत्तरोत्तर उन्नत करने समाज के मानक में वृद्धि करता है। इन सबके लिए प्रउत किसी को भी समाज की अनुमति के बिनाधन संचय अधिकार नहीं देता है। प्रउत अधिकतम उपयोग, विवेकपूर्ण वितरण, संभावना के उपयोग की संतुलित व्यवस्था एवं देश, काल व पात्र के अनुसार परिवर्तन को प्रगतिशील उपयोगिता बता है और प्रउत सबसे बड़ी विशेषता यह सर्वजन के हित एवं सुख के लिए आया है। यह सूत्र इस विश्व में अन्यत्र कही नहीं है। इसलिए कहा जाता है कि प्रउत ही तथा मात्र प्रउत ही विश्व धरा को सुन्दर, सुरक्षित एवं आत्मनिर्भर बना सकता है। जहाँ मनुष्य को जीव कोटि से ब्रह्म कोटि में क्रमोन्नत होने का सुयोग प्राप्त होता है। इसलिए प्रउत का आह्वान है कि दुनिया के नैतिकवादियों एक हो एक हो।
उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर हमनें सिद्ध किया कि प्रउत जगत कल्याण का एक मात्र रास्ता है। अब हमारी परीक्षा है कि हम प्रउतमय जीवन जीने को तैयार है अथवा नहीं। यदि हम तैयार है तो देर करने की आवश्यकता नहीं है प्रउत का आधार पर जियो एवं औरों को प्रउत के आधार जीने लिए तैयार करो।
प्रउत लाओ, विश्व बचाओं कहने कि नहीं करने की आवश्यकता है । कहने में राजनीति है करने में समाज नीति है। राजनीति में नहीं, समाज नीति में प्रउत रहता है।
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श्री आनन्द किरण शिवतलाव
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