आनन्द मार्ग दर्शन पर एक अध्ययन पत्र-01

        दर्शन बनाम पूर्णत्व
(आनन्द सूत्रम के प्रथमोध्याय पर एक अध्ययन पत्र)
      
        श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम का प्रथम अध्याय एक आध्यात्मिक दर्शन है। इसमें दर्शन की पांच विधाओं को समझाया गया है। ब्रह्म तत्व, सृष्टि तत्व, ज्ञान तत्व , क्रिया तत्व एवं भक्तितत्व  का भी उल्लेख किया गया है।
ब्रह्म तत्व - प्रथम चार सूत्र ब्रह्म तत्व के संदर्भ में चर्चा करते हैं। बताया गया है कि शिव एवं शक्ति का मिलित नाम ब्रह्म है। शिव को साक्षी चैतन्य आत्मा के अर्थ प्रयुक्त किया है। आत्मा का अर्थ सर्व प्रतिसंवेदी बताया गया है। आत्मा के कारण ही जगत की सभी वस्तुओं का अस्तित्व है। इस तथ्य को समझाते हुए बताया गया है कि शरीर की जड़ तरंगें मानस पटल पर टकराने से मानस पटल पर उस जड़ वस्तु का बोध होता है। इसी प्रकार मानस तरंग भी आत्मिक सत्ता से टकराने पर उन मानस तरंगों का प्रतिफलन होता है और  आत्मा एवं जीव अविच्छिन्न हैं का बोध जग पड़ता है। शक्ति को स्पष्ट करते हुए द्वितीय सूत्र में बताया गया कि शक्ति शिव की ही शक्ति है। शिव अर्थात पुरुष सर्वानुस्यूत सत्ता हैं तथा शक्ति अर्थात प्रकृति पुरुष की आश्रिता है। पुरुष स्वदेह में प्रकृति को जितना कार्य करने का अवसर देता है, वह केवल उतना ही कार्य कर सकती है। समझाया गया है कि प्रत्येक वस्तु के उपादान एवं निमित्त कारण होते हैं। इसके अतिरिक्त निमित्त के साथ उपादान का संयोग स्थापक क्रिया भाव भी है। क्रिया भाव की मात्र के अनुसार ही निमित्त की उपादान के साथ दृढ़ता या शिथिलता निर्धारित होती है। सृष्टि के विकास में पुरुष उपादान एवं प्रकृति निमित्त के साथ उपादान की सम्पर्क स्थापिका शक्ति है तथा निमित्त कारण के रूप में पुरुष मुख्य तथा प्रकृति गौण है। निमित्त कारण के द्वारा उपादान कारण में जो विकृति या अभिव्यक्ति होती हैं उसे ही जागतिक विकास कहते हैं वह प्राकृत गुणत्रय के द्वारा सम्पन्न होती है। सृष्टि के विकास क्रम में सूक्ष्म से स्थुलत्व की गति को संचर क्रिया, क्रमवर्द्धमान व केन्द्रतिगा कहलाती है तथा चरम जड़ता के पश्चात स्थुलत्व से सूक्ष्म की ओर गति को प्रतिसंचर, क्रमह्यस्वमान व केन्द्रनुगा कहलाती हैं। प्रकृति का अभिप्रकाश पुरुष की ईच्छा शक्ति से ही होता है। ब्रह्मचक्र या सृष्टिचक्र का प्राण केंद्र पुरुष स्व - भाव  हैं। समग्र ब्रह्मचक्र का उपादान कारण पुरुष या  शिव हैं और उनके इस प्राणकेन्द्र को परम शिव या पुरुषोत्तम कहते हैं।
सृष्टि तत्व - आनन्द सूत्रम का पांचवां एवं छठा सूत्र हमें सृष्टि निर्माण एवं अणु के मन मुक्ति के भाव जागृत कर मुक्त होने की लीला सृष्टि चक्र का वर्णन है

(1) संचरधारा ➡सृष्टि के प्रथमार्द्ध में वृत्ति की वृद्धि प्रवृत्ति है। ब्रह्मचक्र के प्राण केन्द्र से प्रकृति के प्रभाव के कारण पुरुष के जड़ाभिमुखी गति को प्रवृत्ति कहा जाता है। साक्षी स्वरूप पुरुषोत्तम में प्रकृति के प्रथम सम्पात में प्रकृति के सत्त्व गुण के प्रभाव से अस्तित्व बोध जगता है। जिसे दर्शन की भाषा में महत्तत्व कहा जाता है। प्राकृत के दूसरे सम्पात में प्रकृति के रजो गुण के प्रभाव से कर्त्तृत्व बोध तथा स्वामित्व बोध उत्पन्न होता है। पुरुष की इस परिवर्तित अभिव्यक्ति को अहंतत्त्व कहा जाता है। अन्तिम सम्पात में प्रकृति के तमोगुण के प्रभाव से पुरुष विषय भाव पुरुष की चरम स्थूलत्व प्राप्ति । पुरुष की इस अवस्था को चित्त कहा जाता है । चित्त सत्ता जीवात्मा के लिए जब अनिभव्य या वेदनीय रुप से गृहीत होती तभी वह पंच महाभूत, दस इन्द्रियाँ तथा तन्मात्र के रुप में प्रतीयमान होती हैं।  यह सृष्टी चक्र प्रथम अंग संचरधारा कहलाती है।

(2) प्रति संचरधारा ➡गुणधारा की जब चरम अवस्था आती हैं, तमोगुण का अवक्षय प्रारंभ होता है। वृत्ति की ह्रासप्राप्ति निवृत्ति हैं। पुरुष द्वारा प्रकृति के अधिकार संकुचित करने के फलस्वरूप पुरुष के आकर्षण से प्रकृति विश्वकेन्द्र पुरुषोत्तम की ओर अग्रसर होता रहता है। इसी के प्रभाव से क्रमशः जड़ पंच महाभूत जीवदेह, जीवप्राण तथा जीवमन में रूपांतरित होती रहती है। गुण के अवक्षय के अन्त में जीव मानस पुरुषोत्तम में लीन हो जाता है। यह प्रतिसंचर अवस्था की चरम गुण वर्जित अवस्था है। यहाँ व्यष्टि जीवन का प्रलय है।
ज्ञान तत्व - आनन्द सूत्रम के सातवें से पन्द्रहवां सूत्र ज्ञान तत्व से परिचित करवाता है।
          (1) ब्रह्म तत्व का ज्ञान ➡ सातवां सूत्र ब्रह्म तत्व का ज्ञान देते हुए बताता है दृक् अर्थात साक्षीभाव पुरुष हैं तथा दर्शन अर्थात क्रियाभाव शक्ति है। दृक् के अनस्तित्व में दर्शन असिद्ध रहता है। मनन, वचन, चरण, ग्रहण इत्यादि सभी क्रिया भाव जिस साक्षीतत्व से निष्पन्न होता है वह दृक् पुरुष हैं। ब्रह्म तत्व के ज्ञान को अधिक स्पष्ट करने के क्रम में यदि जड़ सत्ता को क्रिया भाव माना जाए तो चित्तसत्ता "विषय संयुक्ता मैं" आपात साक्षी सत्ता है। ठीक इसी प्रकार चित्त के समक्ष अहम् "कृर्तभाव व स्वामित्वभाव मैं", अहम् के समक्ष महत्त "मैं हूँ" तथा महत्त के समक्ष आत्मसत्ता "मैं जानता हूँ कि मैं हूँ" चरम साक्षीत्व हैं ।
     (2) संचरधारा का ज्ञान  ➡ आठवां सूत्र संचरधारा के सूक्ष्म ज्ञान से परिचय करवाता है। संचरधारा में चेतन पुरुष महत्त, अहं, चित्त में रूपांतरित होता रहता है। तत्पश्चात चैतिकसत्ता पर तमोगुण के बंधन से आकाशतत्व तथा ततोधिक बंधन से मरुत्, अग्नि, जल एवं क्षितितत्व का उद्भव  होता है। इस क्षिति तत्व में भी गुण बन्धन का मात्राभेद है। बंधन की दृढ़ता से भूतदेह में आन्तराणिक तथा आन्तर्पारमाणिक दूरत्व ह्रास होता रहता है। बाह्यिक गुण बंधन के चाप तथा आभ्यंतरीण संघर्ष वस्तु देह में अधिक से अधिकतर गुणाभिव्यक्ति कराता है। गुणाभिव्यक्ति का अर्थ गुण सामर्थ्य नहीं गुणप्रकाश तथा गुणवैचित्र्य है। व्योम में शब्द, मरुत् में शब्द व स्पर्श, तेज में शब्द, स्पर्श एवं रुप, जल में शब्द, स्पर्श, रुप एवं रस तथा क्षिति में शब्द, स्पर्श, रुप, रस एवं गंध तन्मात्र वहन करने का सामर्थ्य है। गुण सामर्थ्य में वृद्धि नहीं होने के कारण तन्मात्र वहन करने का परिणाम समान रहता है। उदाहरणार्थ आकाश तत्व में एक मात्र शब्द तन्मात्र वहन करता उसका परिणाम यदि 100 है तो क्षिति तत्व में पांचों तन्मात्र वहन करने का मिलित सामर्थ्य भी 100 ही रहेगा।
        (3) प्रतिसंचर धारा का ज्ञान ➡ नवां सूत्र से पन्द्रहवां सूत्र प्रतिसंचर धारा के ज्ञान का अभिप्रकाश है। वस्तु देह के क्षिति तत्व में होने के बाद भी गुण का प्रयोग चलता रहता है, तो उस क्षेत्र में भूत समूहों की समता नष्ट हो जाने पर जड़स्फोट होता है। जिसकी वजह से क्षिति तत्व में अत्यधिक आभ्यंतरीण संघर्ष होता है जिससे चूर्ण विचूर्ण होकर सूक्ष्मतर भूत में रूपांतरित हो जाता है अर्थात गति ॠणात्मक संचरात्मिकता हो जाती हैं। जडस्फोट के बदले जीव देह की  उत्पत्ति होती है । गुण के प्रभाव वस्तु देह के ऊपर गुण का बंधन जितना दृढ़ होता रहता है, उसके अभ्यन्तर में भी संघर्ष उतना अधिक बढ़ जाता है। यह जो संघर्ष या शक्ति चालन है इसे 'बल' या 'प्राण कहा जाता हैं। यद्यपि प्राण का अस्तित्व अल्प या अधिक परिणाम में है तथापि प्राण का व्यक्तीकरण सभी में समान रूप में नहीं होता है। परिणामभूत बल यदि उस देह के किसी अंश में अपना केंद्र पाये तो उस क्षेत्र में उस देह के क्रियाशील बल समूह की समष्टि को 'प्राणा:' या जीवनी शक्ति कहते हैं। अत्यधिक संघर्ष के फलस्वरूप कुछ परिमाण में जड़ चूर्ण विचूर्ण होकर चित्ताणु या मानस धातु में रूपांतरित हो जाती है। व्यष्टि देह में चित्ताणुपुंज  केन्द्र में सामवायिक भाव ही चित्त बोध है। पुरुषोत्तम के आकर्षण के कारण चित्तधातु जब विद्या शक्ति के  प्रभाव क्रमश: बढ़ चलती है तब उस पर तमोगुण का प्राधान्य क्रमशः ह्रास एवं रजोगुण का प्राबल्य परिदृष्ट होता है। चित्त देह जिस अंश में  रजोगुण का प्राबल्य परिदृष्ट होता है। अहम् तत्व या कर्तृत्व युक्त या स्वामित्व युक्त मैं कहा जाता हैं। ठीक इसी प्रकार अहंतत्व के ऊपर रजोगुण का ह्रास एवं सतोगुण के प्राबल्य के कारण अहंतत्व के जिस अंश में सत्वगुण का प्राबल्य प्रतिष्ठित होती है उसे महत् तत्व कहा जाता है। शुद्ध मैं बोध।
क्रिया तत्व - सोलहवें से चौबीसवें सूत्र का वास्तविक से साक्षात्कार करवाने क्रिया तत्व का उल्लेख किया गया है। चित्त से अहम् की परिधि में वृद्धि बुद्धि तथा अहम् से महत् की परिधि में वृद्धि बोधी नाम दिया गया है। अनग्रसर जीवदेह एवं लतागुल्म में मात्र चित्त ही दृष्टिगोचर होता है। कुछ उन्नत लेकिन अग्रसर जीवदेह तथा लतागुल्म में चित्त एवं अहं दोनो दृष्टिगोचर होता है । अपेक्षाकृत उन्नत जीव, लतागुल्म तथा मनुष्य में महत्, अहम् तथा चित्त तीनों का विकास होता है। जहां मात्र चित्त है वह मात्र प्रकृति द्वारा संचालित होना ही एकमात्र विकल्प है। जहां चित्त एवं अहम्  दोनों का अभिप्रकाश है वहाँ प्रकृति संचालन के साथ बुद्धि द्वारा संचालित होने की संभावना है। जहां चित्त, अहम् एवं महत् तीनों का विकास हुआ है वहाँ बुद्धि के साथ बोधि भी संचालन होता है। बोधिसत्व के बल जब मनुष्य अपने अपने अणु महत्  को भूमा महत् रूपांतरित करने की अवस्था सविकल्प समाधि है। इस स्थिति में अणु चित्त एवं अहम् का अणु महत् विलय हो जाते हैं। जब अणु महत् को भूमा चैतन्य अर्थात चितिशक्ति में लीन करने का नाम निर्विकल्प समाधि है। यह अमानसिक अअवस्था है इसलिए यह मन का अनुभव्य नहीं है। अत: सविकल्प नहीं निर्विकल्प अवस्था चरम अभाव की अवस्था है। इस अभाव अवस्था में आत्मिक आनन्द की लहरें जैवी सत्ता को आच्छन्न कर देती है, इसके बाद भी अभुक्त संस्कार पुनः मन का उद्गम होता है। आत्मिक आनन्द की लहरों की धारा में प्रवाहित मनयुक्त साधक इसे मन; शून्य अवस्था आनन्दधन अवस्था है।
भक्ति तत्व - आध्यात्म की चरम परिणीत मुक्ति एवं मोक्ष की प्राप्ति है। संविकल्प एवं निर्विकल्प समाधि में प्रतिष्ठित साधक अभुक्त संस्कार के कारण पुनः मन को प्राप्त करता है। यह आध्यात्मिकता की चरम उपलब्धि नहीं है। अत: जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भक्ति तत्व को ध्येय के रूप साधक ग्रहण करता है। भक्ति के लिए आकर्षण बिन्दु परम ब्रह्म की ओर गतिशील होता है। अत: आनन्द सूत्रम के प्रथमोध्याय का  पच्चीसवां सूत्र इसी की अभिव्यक्ति है। भावयुक्त सगुण ब्रह्म और भावातीत निर्गुण ब्रह्म का जो सेतुस्थापक साधारण बिन्दु है। उसी का नाम है तारक ब्रह्म। यह मुक्ति एवं मोक्ष दाता हैं। महासंभूति में तारक ब्रह्म सगुण रुप में प्रतिभात होते हैं। इस सूत्र के अभाव में दर्शन पूर्ण नहीं हो सकता है। यह सम्पूर्ण दर्शन का सार तत्व है।
         आनन्द सूत्रम के प्रथम अध्याय में को श्रीमद्भगवद्गीता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसमें पुरुषोत्तम योग, सांख्य योग, प्रकृत गुणत्रय योग, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग एवं विश्वरूप दर्शन योग सहित कई योग का सार तत्व निहित है। यह तंत्र, योग एवं भक्ति का अनूठा संगम भी है। 

अत: एक साधक निर्भय होकर कह सकता है कि हमारा दर्शन हमें पूर्णत्व प्रदान करता है। 

        🙏श्री आनन्द किरण🙏
(नोट - यह विचार मूलतया श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम् के  है। लेखक द्वारा मात्र विश्लेषित अनुसंधान किया गया है। )

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