आनन्द मार्ग दर्शन पर एक अध्ययन पत्र - 02

कर्मधारा बनाम पूर्णत्व
( आनन्द सूत्रम के द्वितीयोध्याय पर एक अध्ययन पत्र)
      आनन्द सूत्रम का द्वितीय अध्याय एक मनुष्य एवं साधक की कर्मधारा से परिचित करवाता है। एक सफल मानव की कर्मधारा कैसी होती है? यह आनन्द सूत्रम के दूसरे अध्याय में स्पष्ट होती है। आनन्द सूत्रम में कर्मधारा यात्रा के मुख्य चार स्तंभ लक्ष्य, पथ, पथिक एवं साधन के संदर्भ में द्वितीय अध्याय का अध्ययन करेंगे।
लक्ष्य    -  आनन्द सूत्रम के द्वितीय अध्याय के प्रथम दस सूत्र मनुष्य के जीवन लक्ष्य का ज्ञान देते हैं।
(1) लक्ष्य का निर्धारण ➡ दर्शन में मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति करना बताया गया है। मनुष्य की कर्म गति आनन्दानुमुखी है। अनुकूल वेदनीय तरंग के संस्पर्श  में आने को ही सुख बोध कहा जाता है।  जीव मात्र ही स्वयं ही को बचाकर रखना चाहता है। सुख के अभाव में उसका सत्ता बोध विपन्न हो पड़ता है। सुख की व्याप्ति  को वह अपने परम आश्रय के रुप में चाहता है। अन्य शब्दों में सुख की अनुरक्ति जीव को परम वृत्ति है। कोई भी जीव अल्प में सन्तुष्ट नहीं है - मनुष्य तो और भी नहीं है। वह अनन्त सुख चाहता है। इस अनन्त  सुख का नाम आनन्द है। सुख एवं दु:ख  इन्द्रियों की  माध्यम उपलब्ध हैं जबकि आनन्द अर्थात अनन्त सुख इन्द्रियवृत्ति परे है। अनन्त एक अनेक नहीं आनन्द एवं ब्रह्म वस्तुतः एक ही है। इसी आनन्दधन सत्ता का नाम ब्रह्म है। जो शिवशक्तयात्मक है।
  
       आनन्द अर्थात ब्रह्म ही मनुष्य का लक्ष्य है। आनन्द सूत्रम के प्रथम चार सूत्र लक्ष्य निर्धारण करता है।
(2) लक्ष्य का मूल्यांकनजीवों में अनन्तत्व की तृष्णा रहती है। वह सान्त वस्तु से संभव नहीं है अनन्त की उपलब्धि जीव की सर्वतृष्णा से निवृत्ति होती है। ज्ञात अथवा अज्ञात भाव से मनुष्य अनन्तत्व की ओर चल रहा है।  मनुष्य जब ज्ञात रूप से इस वृहत को पाने के लिए चेष्टा करता है और तज्जन्य ईश्वर - प्रणिधान करता है तब उस भाव का नाम धर्म है और उस प्रचेष्टा का नाम धर्मसाधना है। वृहत की एषणा एवं उसका प्रणिधान धर्म है। यह धर्म सद् कार्य है। अत: साधना सभी के लिए करने योग्य है। अनुन्नत मानसिकता के कारण मनुष्येतर जीव धर्म साधना नहीं कर पाते हैं किन्तु मनुष्य तो कर सकता है। अत: जो मनुष्य ऐसा नहीं करते है, वे मनुष्य पदवाच्य नहीं है
          धर्म, कर्म एवं मर्म की कसौटी पर कसकर मूल्यांकन करने पाया की मनुष्य का लक्ष्य अनन्त सुख  अर्थात आनन्द यानी ब्रह्म है। आनन्द सूत्रम के द्वितीयोध्याय के पांचवां से सप्तम् सूत्र लक्ष्य की ओर बढ़ने का संदेश देता है।
        
(3) लक्ष्य का प्रमाणीकरणदर्शन में आत्मा को सर्वप्रतिसंवेदी साक्षी स्वरुपा दिखाया गया है। मन के ऊपर आत्मा का प्रतिफलन जीवात्मा है तथा उस दिशा के प्रतिफलक आत्मा को परमात्मा कहा गया है। जीवात्मा अणु चैतन्य हैं तथा परमात्मा भूमा चैतन्य है । विषयी को पुरुष का अवभास होता है वह जीवात्मा है। सारा  सत्ता बोध आत्मा के उपर निर्भर है। आत्मा सत्ता में स्थिति है। विश्व के प्राणकेन्द्र पुरुषोत्तम ओतयोग के  माध्यम से व्यष्टि से  एवं प्रोतयोग के माध्यम समष्टि के साथ संयुक्त है। अत: दर्शन के माध्यम प्रमाणित होता है कि मनुष्य का लक्ष्य आनन्दधन सत्ता दर्शन के पुरुषोत्तम है। आनन्द सूत्रम के द्वितीयोध्याय के अष्टम् से दशम् सूत्र कर्मधारा का लक्ष्य आनन्द एवं दर्शन के पुरुषोत्तम एक ही बिंदु के दर्शाता है।
पथ  -  लक्ष्य के निर्धारण के बाद कौनसा पथ?  एक समस्या है जिसकी निर्देशन आनन्द सूत्रम के द्वितीय अध्याय के ग्यारहवें से चौदहवा सूत्र में मिलती है।
       मनुष्य की कर्मधारा में परमतत्त्व को आनन्दोमुखी बताया है। उस वृहत को पाने की चेष्टा ईश्वर प्रणिधान है। जोएक धर्म साधना है। जगत में रहते हुए मनुष्य की लक्ष्य की ओर गति को पथ  की आवश्यकता होती हैं।
         आनन्द सूत्रम में बताया है कि जगत का बीज मन के अतीत में है। सृष्टि कब एवं  क्यों उत्पन्न हुई, यह प्रश्न अवान्तर है। मन की परिधि के परे है। सृष्ट जगत् जब गुणाधिगत हैं, अत: सिद्ध होता है कि जगत् की उत्पत्ति सगुण ब्रह्म से हुई है। यह जगत ब्रह्मी देह के भीतर है। ब्रह्म के बाहर नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। ब्रह्म सत्य है तथा जगत् भी आपेक्षिक सत्य है।
      आनन्द सूत्रम द्वितीयोध्याय के ग्यारहवां से चौदहवाँ सूत्र मनुष्य के इस पथ की जानकारी देता है। ब्रह्म मुखी मनुष्य को जगत के साथ तालमेल मिलाकर आगे बढ़ना होगा। एक मनुष्य का पथ आनन्द मार्ग है। जो आत्म मुक्ति की साधना एवं जगत सेवा का रास्ता दिखता है। ब्रह्म एवं जगत में से किसी की भी  अवहेलना करने से नहीं चलेगा।
पथिक -  लक्ष्य एवं पथ की जानकारी होने के मैं कौन जानना आवश्यक है। स्वयं को जानने तय होता है। वास्तव में व्यक्ति का स्वरूप क्या है। आनन्द सूत्रम के पन्द्रहवें से बीसवें सूत्र में कर्ता का निर्णय किया गया है।
        पुरुष: अकर्ता है। वह फल साक्षीभूत है भाव केंद्र स्थित होकर गुण का नियंत्रण करता है। इसलिए वह गुणाधीश हैं। विषय संयुक्त महत्तत्त्व कुछ भी नहीं करता है। वास्तव में अहम् कर्म का कर्ता तथा कर्मफल भी वही भोग करता है। जीव का चित्त कर्म का फल रुप ग्रहण करता है। कर्म के कारण चित्त में विकृति आती है पुनः पूर्वावस्था प्राप्त करना कर्मफल भोग है। स्वर्ग व नरक नाम कोई भी वस्तु नहीं है। कर्म के अनुकूल फलभोग हेतु मिलने वाला परिवेश को इनकी संज्ञा दी गई है। सत् स्वर्ग तथा कु नरक रुप से प्रतिभात है। आनन्द सूत्रम के द्वितीयोध्याय पन्द्रहवां से बीसवां सूत्र पथिक  से परिचित करवाता है।
          एक आनन्द मार्गी मनुष्य का मन है। वही मुक्ति की ओर चलता है।
साधन - लक्ष्य, पथ व पथिक के बाद साधन की ओर ध्यान आकर्षित करने लिए आनन्द सूत्रम के द्वितीय अध्याय के इक्कीसवें से चौबीसवें सूत्र का अध्ययन करते हैं।
           मनुष्य भूमाचित्त जड़ स्वरूप व्योम, मरुत्, तेज, अप एवं क्षिति पंच महाभूत में स्थिति है। इस पंच महाभूत में विचार एवं भाव शब्द, स्पर्श, रुप, रस व गंध पंच तन्मात्र के माध्यम संचालित है। वस्तु देह में कर्ण, त्वक, चक्षु जिह्वा व नासिका पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से बहि:स्थ भूत समूह से तन्मात्र ग्रहण करते हैं तथा वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपदस्थ पंच कर्मेन्द्रियों का काम आभ्यंतरीण बाहर उत्साहित करना है।  कौन वस्तु किस महाभूत के अन्तर्भुक्त है यह तत्सृष्ट तन्मात्र के द्वारा निरूपित किया जाता है। आकाश में शब्द , वायु में शब्द व स्पर्श, अग्नि में शब्द, स्पर्श एवं   रुप , जल में शब्द, स्पर्श, रुप एवं रस तथा पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रुप, रस एवं गंध वहन करने का सामर्थ्य है। भूत तन्मात्र  प्राणेन्द्रिय का काम वस्तुभाव के  साथ चित्त भाव को संयुक्त करना तथा लघुता, गुरुता, उष्णता, शीतलता का बोध चित्त में सृष्ट करना है। इन्द्रियद्वार, नाड़ीरस एवं स्नायु कोष के भाव ग्रहण बिन्दु को इन्द्रिय कहते हैं। 
           आनन्द सूत्रम के इक्कीसवां से चौबीसवां सूत्र साधन चयन में सहायक है।
           जीव की कर्मधारा आनन्द की ओर है मनुष्य बुद्धिजीवी होने के सुनियोजित ढंग आनन्दधन सत्ता की ओर गतिमान है। वह इस सगुण से उत्पन्न जगत पंचभौतिक शरीर के माध्यम उपर उठता है। अन्तोत्वगत्वा मनुष्य अपने कारण में लय होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
           गीता के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करे तो इस अध्याय में ज्ञानकर्म सन्यास योग, कर्म सन्यास योग, मोक्षसन्यास योग एवं  राजविद्याराजगुह्या योग सहित कई अध्याय का सार तत्व से सूक्ष्म ज्ञान मौजूद हैं।
अत: मनुष्य स्पष्ट कह सकता है कि हमारी कर्मधारा हमें परमतत्त्व की ओर ले जाती है।
    
        श्री आनन्द किरण
(नोट - यह विचार मूलतया श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम् के  है। लेखक द्वारा मात्र विश्लेषित अनुसंधान किया गया है। )
Previous Post
Next Post

post written by:-

0 Comments: