मनोविज्ञान बनाम पूर्णत्व
( आनन्द सूत्रम के तृतीयोध्याय पर एक अध्ययन पत्र)
आनन्द सूत्रम का तृतीय अध्याय मन के विज्ञान के बारे में बताता है। अणु मन का भूमा मन की ओर बढ़ने तथा भूमा सामर्थ्य प्राप्त करने की दक्षता से परिचित करवाता है।
मन की संरचना -
जैवी सत्ता एवं ब्रह्म मन की संरचना का उल्लेख आनन्द सूत्रम के तृतीयोध्याय के प्रथम दो सूत्र की गई है।
अणुमन अथवा जैव सत्ता की संरचना ➡ अणु मन काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय एवं हिरण्मय कोष युक्त पंच कोष से बना है। जैवी सत्ता की स्थुल देह अन्नमय कोष है, काममय से हिरण्मय कोष तक सूक्ष्म देह व अहम् एवं महत् सामान्य या कारण देह कहते हैं। काममय कोष स्थुल मन, मनोमय सूक्ष्म मन तथा अतिमानस, विज्ञानमय, हिरण्मय कोष का मिलित नाम कारण मन है । इस प्रकार स्थुल, सूक्ष्म एवं कारण मन मिलकर जैवी सत्ता की सूक्ष्म देह है। स्थुल आधार अर्थात अन्नमय कोष स्थुल देह, चित्त के पांचों कोष- काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय एवं हिरण्मय कोष अर्थात तीन मन की अवस्था स्थुल, सूक्ष्म एवं कारण मन सूक्ष्म देह तथा अहम् व महत् कारण देह है। साक्षी पुरुष के परिपेक्ष स्थुल मन का साक्षी पुरुष प्राज्ञ, सूक्ष्म मन का साक्षी पुरुष तैजस् और कारण मन का साक्षी पुरुष विश्व है। यह पंच कोष कदली पुष्प के समान है। स्थुल को हटाने पर ही सूक्ष्म को समझा जा सकता है ।
ब्रह्म मन की संरचना ➡ ब्रह्म मन सप्त लोकात्मक है - भू, भूव:, स्व:, मह:, जन:, तप: एवं सत्य । भू एवं भव: लोक काममय कोष, स्थुल मन, स्थुल देह तथा साक्षी पुरुष ईश्वर कहलाता है। स्व: लोक मनोमय कोष, सूक्ष्म मन व सूक्ष्म देह का एक अंश तथा हिरण्यगर्भ नामक साक्षी पुरुष हैं। मह: लोक अतिमानस कोष, कारण मन का एक अंश, सूक्ष्म देह का एक अंश तथा साक्षी पुरुष विराट या वैश्वानर है । जन: लोक विज्ञामय कोष , कारण मन का एक अंश, सूक्ष्म देह का एक अंश तथा साक्षी पुरुष विराट या वैश्वानर है । तप: लोक हिरण्मय कोष, कारण मन का एक अंश, सूक्ष्म देह का एक अंश तथा साक्षी पुरुष विराट या वैश्वानर है । सत्य लोक अहम् एवं महत् मन सामान्य या कारण देह तथा पुरुषोत्तम साक्षी पुरुष के नाम जाना जाता है।
मन की कार्य प्रणाली एवं मन का आवागमन
आनन्द सूत्रम के तृतीयोध्याय के तृतीय से षष्ठम् सूत्र मन की कार्यशैली के विज्ञान पर चर्चा करता है।
(1) मृत्यु क्या ? ➡जाग्रदवस्था में स्थुल, सूक्ष्म व कारण तीनों मन क्रियाशील रहते हैं। स्वप्नावस्था में स्थुल मन निद्रा में जबकि सूक्ष्म व कारण मन क्रियाशील रहता है। निद्रितावस्था में स्थुल व सूक्ष्म मन निद्रा में तथा कारण मन क्रियाशील रहता है। जब कारण मन दीर्घ निद्रा या निष्क्रिय हो जाता है उस अवस्था को मृत्यु कहते हैं।
(2) पुनः जन्म कैसे? ➡ मनुष्य अपने जीवन काल में सत् या असत् कर्म करता रहता है। इसके कारण चित्त में एक प्रकार की मानसिक विकृति उत्पन्न होती है। सत् कर्म का सुफल एवं असत् कर्म का कुफल भोग करता है। इस कर्मफल भोग के द्वारा मन पुन: स्वाभाविक अवस्था में लोट आता है। मृत्यु एवं अन्य किसी कारण कृत कर्म का फल भोग नहीं होता है। वे विपाक अपेक्षित रह जाते हैं। इसे संस्कार कहते हैं। इन्हीं संस्कारों के भोग के लिए प्रकृति विदेही मन विभिन्न जीवों के गर्भ में संस्कार के अनुकूल जैवी देह से संयुक्त करा देती है।
(3) पुनः जन्म क्यों? ➡ पुनः जन्म क्यों होता है। इसके संदर्भ में आनन्द सूत्रम में दो कारण बताए है।
प्रथम ➡ विदेही मन को सुख या दु:ख का बोध नहीं होता है। सुख या दु:ख बोध के स्नायु कोष एवं आंशिक भाव से स्नायु तन्तु अर्थात शरीर का प्रयोजन है। आत्म तृप्ति हेतु कृत कार्य त्रुटिपूर्ण है। द्वितीय ➡ भूत - प्रेत नाम की कोई वस्तु नहीं है। प्रेत दर्शन एक प्रकार का भ्रान्ति दर्शन है। भय, क्रोध एवं मोह की अवस्था में मनुष्य के मन में सामयिक एकाग्रता आती है तब उसका चित्त भावित हो कर विषय का रूप परिग्रह करता है। इस अवस्था में धनात्मक भ्रान्ति के कारण बाहर निर्जन स्थान पर अपने चित्त के भाव को देखता है। इसे प्रेत देखना कह देता है तथा ॠणात्मक भ्रान्ति के कारण आभ्यंतर होने से अपने सत्ता में भी प्रेत का भ्रम हो सकता है। उस व्यक्ति के क्रियाकलाप साधारण मानव से भिन्न होते हैं। इसे प्रेत भरना कहते हैं। देव एवं देवियों के संदर्भ भी यही विज्ञान है।
प्रेत एवं विदेही मन के सुख-दुख की अभिकल्पना असत्य सिद्ध होती है। अतः मन के पुन: जन्म एक सत्य सिद्ध होता है।
मन साधना के पथ पर
मानव के इस मनोविज्ञान को समझने के लिए आनन्द सूत्रम के तृतीयोध्याय के सप्तम् से दशम् सूत्र पर दृष्टिपात करेंगे। कर्म एवं कर्मफल के सिद्धांत के परिणाम स्वरूप मनुष्य अन्यथा कर्म से दूर रहता है एवं सद्कर्म की ओर आकृष्ट होता है। मानव के मन ब्रह्म की हितेषणा रहती है। जिसके कारण अपवर्ग अर्थात आध्यात्म की ओर प्रेषित होता है। जिसके मुक्ति की आकांक्षा जन्म लेती है। मुक्ति की तीव्र आकांक्षा के बल पर सद्गुरु की प्राप्ति होती है। ब्रह्म ही सद्गुरु होते हैं। सद्गुरु द्वारा प्राप्त पथ निर्देशना के बाद साधना करता है। साधना मार्ग में आई बाधा साधक के लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होती है। अत: यह बाधाएं साधक की मित्र है। बाधाओं से संघर्ष करता हुआ साधक लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।
मन की मुक्ति मोक्ष
आनन्द सूत्रम के तृतीयोध्याय के ग्यारहवां एवं बारहवाँ सूत्र भक्ति को स्पष्ट करता है। साधना करते करते साधक के मन भक्ति का अंकुरण होता है। भक्ति की दिशा में चल रहा भक्त अनुभव करता है कि प्रार्थना एवं अर्चना मात्र है। भक्ति भगवत भावना का नाम है। इसका स्तुति एवं विभिन्न उपकरणों से की जाने वाली अर्चना से कोई संबंध नहीं है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी यहाँ साधक को निर्देश देते हैं कि साधक की इच्छा होने पर कर सकता है लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है।
आनन्द सूत्रम का तृतीयोध्याय मनोविज्ञान के माध्यम से बताता है कि मनुष्य अनन्त को पाना चाहता है तथा उसके मन की गति मुक्ति की ओर है। गीता के परिप्रेक्ष्य में देखे तो यहाँ ज्ञान विज्ञान योग, श्रृद्धातय विभाग योग एवं सूक्ष्म अनुसंधान पर देवासुर सम्पद्विभाग योग के ज्ञान से काफी कुछ समाया हुआ है।
अत: मनुष्य विश्वस्त होकर कह सकता है कि हमारा मनोविज्ञान हमें मुक्त पुरुष बनता है।
🙏 श्री आनन्द किरण🙏
(नोट - यह विचार मूलतया श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम् के है। लेखक द्वारा मात्र विश्लेषित अनुसंधान किया गया है। )
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