प्रकृति बनाम परमतत्त्व
( आनन्द सूत्रम के चतुर्थोध्याय पर एक अध्ययन पत्र)
श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम के चतुर्थ अध्याय प्रकृति एवं पुरुष वियोग एवं मिलन की कथा है। इस अध्याय में कुल अष्टम सूत्रम हैं।
प्रकृत स्वरुप
आनन्द सूत्रम के चतुर्थोध्याय के प्रथम दो सूत्र प्रकृति के त्रिगुण से निर्मित त्रिकोण मातृका अशेष पर चर्चा करता है। परमपुरुष से सत्त्व, रज: और तम: की विभिन्न धाराएँ अजस्र रेखाकार तरंगों में बह चली है। यह तरंगें विभिन्न बहुभुज यंत्र की सृष्टि होती चलती है। सत्त्व रज: में, रज: तम: में और तम: रज: में, रज: सत्त्व में सीमाहीन भाव में रूपांतरण होता रहता है। उनके इस रूपांतरण को स्वरूप परिणाम कहा जाता हैं। बहुभुज यंत्र स्वरूप परिणाम के कारण त्रिकोण युक्त त्रिभुज में रूपांतरित होता रहता है। यह त्रिगुणात्मिका मातृका शक्ति अशेष है।
प्रकृति की लीला
(1) पाक्- सृष्टि की अवस्था ➡ प्रकृति त्रिभुज का मध्य बिंदु जिस सूत्र से ग्रथित हैं , वह सूत्र ही पुरुषोत्तम या परम शिव हैं। यह त्रिभुज जब तक शक्तिरूद्भिन्नता के कारण भारसाम्य नहीं खो बैठता है तब तक उसको त्रिकोणधारा की प्रथमावस्था कह सकते हैं । यह पाक्- सृष्टि की अवस्था है। अत: यह सम्पूर्णत: सैद्धांतिक अवस्था है। इस अवस्था की आधार स्रष्ट्री प्रकृति शिवानी या कौषकी शक्ति के नाम से ख्यात है, और के साक्षी पुरुष शिव के नाम आख्यात है।
(2) सृष्टि उदभव अवस्था ➡ त्रिभुज का भार साम्य नष्ट हो जाने के कारण किसी एक कोण से सृष्टि का अंकुर निर्गत होता है एवं गुणभेद से सरल रेखाकार में अग्रसर होता रहता है। यह अवस्था प्रकृत पक्ष में व्यक्त पुरुष एवं व्यक्ता प्रकृति की अवस्था है। यह अवस्था स्रष्ट्री प्रकृति भैरवी शक्ति के नाम से ख्याता है एवं साक्षी पुरुषका नाम भैरव है।
(3) सदृश परिणाम अवस्था ➡ इसके बाद शक्ति प्रवाह के आभ्यंतरीण संघर्ष के कारण वक्रता दिखाई देती है। पुरुष भाव की गंभीरता भी ह्रास होती रहती है। यह अवस्था कला उदभव की होती है। एक कला के अनुरूप द्वितीय कला, द्वितीय कला के अनुरूप तृतीय कला - इस तरह कलाप्रवाह चलते रहते हैं। इस प्रकार के कलानुवर्तन का नाम सदृश परिणाम है। इसके तरंग प्रवाह में ही मानस जगत और भौतिक जगत् सृष्ट होते हैं। इस कलानुवर्तन के कारण मनुष्य की संतान मनुष्य एवं वृक्ष की संतान वृक्ष ही देखते हैं। कलाएँ सदृश है किन्तु हूबहू एक नहीं है इसलिए मनुष्य मनुष्य में अनेक विभिन्नता दिखाई देती है। कलात्मिकता स्रष्ट्री प्रकृति को भवानी शक्ति एवं साक्षी पुरुष को भव कहा जाता है।
अणु जीव एवं उसमें शक्ति
प्रकृति एवं पुरुष के लीलामय रुप को देखने के बाद रास लीला का नया अध्याय प्रारंभ होता है। प्रकृत पक्ष का प्रतिनिधि साधक ज्यों - ज्यों इस क्षेत्र में डुबकी लगता है त्यों - त्यों वह परम तत्व के निकट्य की विभिन्न अवस्थाओं का अनुभव करता है। आनन्द सूत्रम के चतुर्थोध्याय के षष्टम से अष्टम सूत्र जैव लीला के गुप्त रहस्य से परिचित करवाते है।
(1) सकल धनात्मक से परम ऋणात्मक बिन्दु ➡ जिस बिंदु से सृष्टि का अंकुरण होता है उस सकल धनात्मक बिन्दु को शंभुलिंग एवं विकास के शेष बिन्दु परम ऋणात्मक बिन्दु स्वयंभूलिंग कहलाता है।
(2) कुलकुण्डलिनी ➡ विकास की चरमतम जड़ावस्था में निद्रिता परा शक्ति जीव भाव की आख्या लिए सुषुप्तावस्था में रहती है। उसका नाम कुलकुण्डलिनी है।
(3) ऋणात्मिका शक्ति ➡ यह स्वयंभूलिंग में आश्रिता कुण्डलिनी को परम ऋणात्मिका शक्ति कह सकते हैं। शंभूलिंग के बाद नाद तथा उसके बाद कला का उद्भव है। यह रहस्य साधना विज्ञान के द्वारा साधक जानकर परम ऋणात्मक से सकल धनात्मक की ओर से भाव व भावातीत में प्रतिष्ठित होता है।
आनन्द सूत्रम का चतुर्थोध्याय शाक्त, वैष्णव एवं शैव भावसाधना के माध्यम जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करता है। गीता के परिप्रेक्ष्य में इस को अक्षर ब्रह्म योग , विभूति योग एवं आत्म संयम योग सहित एक विराट ज्ञान का अभिप्रकाश है।
अत: साधक कह सकता है कि साधना के बल पर जीव शिवत्व में प्रतिष्ठित कर सकता है।
🙏 श्री आनन्द किरण🙏
(नोट - यह विचार मूलतया श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम् के है। लेखक द्वारा मात्र विश्लेषित अनुसंधान किया गया है। )
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