समाज एवं भगवान
( आनन्द सूत्रम के पंचमोध्याय पर एक अध्ययन पत्र)
श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम का पंचम अध्याय समाजिक आर्थिक जीवन के संदर्भ में चर्चा की गई है। आध्यात्मिक लोक में आगे बढ़ने वाले मनुष्य के रास्ते में आर्थिक विषमता अवरोध पैदा करते हैं। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने अपने ग्रंथ आनन्द सूत्रम का पंचमध्याय सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन कल्याणार्थ प्रेषित किया है।
समाज चक्र
आनन्द सूत्रम के पंचमोध्याय के प्रथम सात सूत्र समाज चक्र की चर्चा करते हैं।
(1) शूद्र युग, क्षत्रिय युग, विप्र युग, तथा वैश्य युग तत्पश्चात पुनः शूद्र युग के क्रम में समाज चक्र घूर्णनशील है। मनुष्य का व्यवस्थित एवं सुसम्बद्ध समाज का नहीं होने की अवस्था का नाम शूद्र युग कहलाती है। मनुष्य की शारीरिक क्षमता उपयोग मात्र दैनंदिनी कार्य में लगाने की क्षमता युग मानव शूद्र कहलाता है। अराजकता की अवस्था शूद्र अवस्था मानी जा सकती है। उस प्रथम साहसी एवं शक्तिशाली सरदारों की प्रधानता का युग क्षत्रिय युग कहलाता है। शारीरिक शक्ति सम्पन्न व्यक्ति क्षत्रिय कहलाता है। शारीरिक क्षमता का उपयोग बल या शक्ति के रूप में करता है। इन शारीरिक सम्पन्न लोगों पर बुद्धि सम्पन्न लोगों ने नकेल कसी एवं समाज में बुद्धिजीवियों की प्रधानता स्थापित हो जाती है। उसे विप्र युग कहते हैं। बौद्धिक क्षमता का ज्ञान विज्ञान में उपयोग करने वाले विप्र कहलाती है। बौद्धिक क्षमता का उपयोग विषय कार्य में करने वाले वैश्य कहलाते हैं। विषय जीवियों या व्यवसायियों की प्रधानता का युग, वैश्य युग कहलाता है।
(2) इस समाज चक्र के केंद्र में सदविप्र रहकर चक्र का नियंत्रण करते हैं। सदविप्र आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न व्यष्टि है।
(3) यह चक्र अपनी स्वभाविक गति घूर्णन है। शक्ति सम्पात के द्वारा चक्र अल्पकाल में स्वभाविक गति से पूर्व उत्तरोत्तर वर्ण की प्रधानता स्थापित करना क्रांति कहलाता है।
(4) अति अल्पकाल में तीव्र शक्ति सम्पात के द्वारा चक्र की गति में द्रुति लाने को विप्लव कहते हैं।
(5) शक्ति सम्पात के द्वारा चक्र को विपरीत दिशा में घूमाना अर्थात स्वाभाविक वर्ण से पूर्ववर्ती वर्ण को स्थापित करना विक्रान्ति कहलाती है। यह अस्थायी होती है।
(6) तीव्र शक्ति सम्पात के माध्यम से अति अल्पकाल में पूर्ववर्ती वर्ण को स्थापित करना प्रतिविप्लव कहलाता है। यह विक्रांति की तुलना में अधिक अस्थायी है।
(7) शूद्रयुग के बाद क्षत्रिययुग तत्पश्चात विप्रयुग एवं उसके उपरान्त वैश्य युग के आने से चक्र का एक घूर्णन पूर्ण हो जाता है। तत्पश्चात फिर से शूद्र युग आना परिक्रांति कहलाती है।
प्रउत की अवधारणा
प्रउत में चार अवधारणाएं प्रउत को अन्यन: अर्थव्यवस्था से श्रेष्ठ बनाती है।
(1) विचित्रता प्रकृति का धर्म है➡ कभी भी दो सत्ता एकदम एक नहीं होगी। अत: समाज का कोई भी सिद्धांत इसके विपरीत नहीं होना चाहिए। प्रकृति के धर्म के अनुकूल निर्मित सिद्धांत अर्थव्यवस्था को शाश्वतता प्रदान करने में सक्षम है।
(2) न्यूनतम आवश्यकता की ग्रारण्टी ➡ समाज धर्म का प्रथम सूत्र होता है कि समाज के समस्त नागरिकों की न्यूनतम आवश्यकता - अन्न, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवं चिकित्सा पूर्ण करने की ग्रारण्टी लेनी चाहिए।
(3) गुणीजन का सम्मान ➡ समाज के सर्वजन की न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने के बाद बची अतिरिक्त संपदा को गुणजन में गुण के अनुपात में बाट देना है।
(4) समाज का न्यूनतम स्थिरकृत मानदंड वृद्धिशील होना समाज के जीवन लक्षण है। जगत का धर्म गतिशीलता है। अत: समाज की न्यूनतम आवश्यकता का कोई मान स्थिरकृत रहना उचित नही है।
प्रउत के मूल सिद्धांत
व्यष्टि का कल्याण समष्टि में समष्टि का कल्याण व्यष्टि में है। समाज अपने धर्म का अनुशीलन ठीक ढंग से कर सकें इसलिए कर्म को सही ढंग से निवहन करें।
प्रथम ➡ समाज की अनुमति के बिना किसी को भी धन संचय करना अकर्तव्य है।
द्वितीय ➡ व्यष्टि एवं समष्टि सम्भावनाओं का सोलह आना उत्कर्ष करना होगा तथा विवेकपूर्ण वितरण करना
तृतीय ➡ समष्टि एवं व्यष्टि की स्थुल, सूक्ष्म एवं कारण क्षमताओं को अधिकतम उपयोग किया जाए।
चतुर्थ ➡ शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का उपयोग ससंतुलित ढ़ग लेना चाहिए।
पंचम ➡ देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता परिवर्तनशील होना प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का अंग है।
इन पंचम कर्म के कारण समाज अपना चतुर्थ आयामी धर्म का उचितरूपेण निवहन करेगा। जिससे सदविप्र समाज चक्र सही नियंत्रण करेगा।
सार्वभौमिकअर्थव्यवस्था
समाज के प्रगतिशील उपयोगी तत्व सभी जन के हितार्थ एवं कल्याणार्थ प्रचारित कर ग्रंथकार श्री प्रभात रंजन सरकार ने अर्थव्यवस्था का आदर्श एवं यथार्थ में स्थापित कर दिया है। सर्वजन की अवधारणा इस नूतन प्रगतिशील मूल्यों को सार्वभौमिक बना दिया है।
अत: मनुष्य गर्व के साथ कह सकता है कि हमारी प्रगतिशील उपयोगी तत्व हमारा सर्वांगीण विकास कर हमें देवत्व में प्रतिष्ठित कर देता है।
श्री प्रभात रंजन सरकार के सोलह आर्थिक सूत्र अर्थव्यवस्था को समाज के लिए कल्याणकारी बनाते हैं एवं मनुष्य को आध्यात्मिक प्राणी के रुप में चित्रित करता है। विषय एवं विषयी के मध्य सुन्दर संबंध स्थापित करता है। अर्थव्यवस्था का आत्मिक समृद्धि का लक्ष्य भौतिक एवं मानसिक जगत् में रिद्धि एवं सिद्ध को स्थापित करते हैं।
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🙏 श्री आनन्द किरण🙏
(नोट - यह विचार मूलतया श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम् के है। लेखक द्वारा मात्र विश्लेषित अनुसंधान किया गया है। )
(यह लेख मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वलिखित हैं)
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