प्रउत में संगच्छध्वम् का महत्व

प्रउत में संगच्छध्वम् का महत्व
         

 वैदिक श्लोक संगच्छध्वम् को आनन्द मार्ग प्रचारक संघ ने धर्म चक्र मंत्र के रूप में अंगीकार किया है। प्रउत प्रणेता ने इस मंत्र को प्रउत का आधार बताया है। संगच्छध्वम् सबको एक साथ लेकर चलता है। इसके क्रियांवयन के लिए प्रउत आया है। प्रउत विचारधारा व्यष्टि की गरिमा को सुरक्षित रखते हुए समष्टि को आदर्श प्रतिमान में सजाता है। समाज शब्द का भावगत अर्थ सबको साथ लेकर चलना बताया गया है। संगच्छध्वम् श्लोक  जब मंत्र के रुप में अंगीकार होने पर व्यष्टि सबको साथ लेकर शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास  यात्रा पर निकल पड़ता है। इस प्रकार चलन की गति को प्रगतिशील चिन्तन कहा जाता है। प्रउत दर्शन उसी प्रगतिशील विचारधारा का वाहक एवं माध्यम है। 

           संगच्छध्वम् मंत्र के भावार्थ में निहित शक्ति का उदघोष सम सामाजिकता तत्व को मजबूती प्रदान करता है अथवा  इसे प्रतिष्ठित करता है। सबको साथ लेकर चलना, सब एक प्रकार की वाणी में बोलना, सबके मन को जानकर आगे ले चलना, प्राचीन काल में जिस प्रकार मिल जुलकर शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ते थे उसी भाँति इस धरा के वासी समान आकूति, समान हृदय, समान मन एवं समान रूप से शासित होने की व्यवस्था देने के लिए प्रउत व्यक्ति की गरिमा को सुरक्षित रखती समष्टि कल्याण की ओर  आगे ले चलते है।
            यहाँ एक प्रश्न आता है कि प्रउत कहता है कि विचित्रता प्रकृति का धर्म है, भविष्य में कभी समान नहीं हो सकता है। इस स्थिति में संगच्छध्वम् का सार्थक प्रतिरुप कैसे दिखाई देगा। संगच्छध्वम् के दो फेज है। प्रथम में साथ चलना, एक आवाज बन बोलना, सबके मन को  जानना व समझना तथा प्राचीन कालीन देवगण के अनुसार सब मिलकर उपभोग करना है। यहाँ विचित्रता को अंगीकार किया गया है। उस विचित्रता के कारण समाज में विभेद बनने वाली दीवार को बनने से रोकना अथवा बनी दीवार को समाज धर्म की साधना के बल पर ध्वंस  करने का रास्ता बताया गया।  यहाँ विचित्रता  अथवा गुणीजन के आदर को अस्वीकार नहीं किया गया है। दूसरा फेज समान आकुति, समान हृदय व समान मनोभाव से चलने से सुंदर दृश्य बनता है। यहाँ प्रउत के विचित्रता का दृश्य विचारणीय विषय है। उक्त बिंदुओं में प्रउत समाज मान में वृद्धि को पोषित करती है। आकुति, हृदय एवं मनोदशा में समानता रहने से गुणी एवं सामान्य जन में रहने वाला अन्तर अग्रगति करता है। जिससे प्रउत में व्यक्ति से समाज एवं समाज से व्यक्ति की गति प्रवृत्ति मुखी होती है। जो गुणी के समकक्ष सामान्य जन एवं सामान्य जन में गुणी के प्रति आदर सर्जन करता है। जिससे समाज क्रमिक विकास की ओर चलता है।

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सँगच्छध्वन सम्बद्धवन संवो मनांसि जानताम ।
देवाभागन     यथा पूर्वे   सन्जानाना   उपाशते।।
समानिव:      आकूति   समाना:       हृद्यानिव:।
समान मस्तु   वो  मनो      यथा व:   सुसहासति।।
भावार्थ-
1. सभी एक साथ चलो, सभी एक भाव धारा प्रकाश करो, तुम लोग सभी के मन को एक साथ मिलाकर एक विराट मन की सृष्टि करो।

2. पूर्वकाल में देवता लोग जिस प्रकार यज्ञ की
हवि : को एक साथ मिलित रूप से ग्रहण करते थे ,तुम सब भी उसी तरह मिलित भाव से जगत की संपत्ति का व्यवहार करो।

3. तुम सब का आदर्श एक हो, तुम सभी सबके साथ अभिन्न हिर्दय हो।

4. तुम सभी लोग अपने अपने मन को एक भाव से बनाओ जिससे तुम सभी लोग सुंदर रूप से एक साथ मिल जा सको।

              समाज के इस मौलिक स्वरूप को मूर्त रूप देने के लिए सारभोम यानी भेद रहित मानसिकता की आवश्यकता है।

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श्री आनन्द किरण

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