भारतवर्ष को कृषि प्रधान राष्ट्र के रुप चित्रित किया गया है लेकिन भारतवर्ष, स्वाधीनता से पूर्व एवं पश्चात भी कृषि के क्षेत्र में पिछड़ा रहा है। हरित क्रांति के माध्यम से खाद्यान्न के क्षेत्र में हमने आत्म निर्भर होने का दावा किया है । वस्तुतः हम आत्म निर्भर नहीं है । खाद्यान्न का अर्थ यह नहीं है कि जैसे तैसे पेट भरना। खाद्यान्न का अर्थ पौष्टिक एवं सुसंतुलित आहार ग्रहण करना है। इस दृष्टि से हम प्रगति से कोशों दूर है। इसका एक मात्र कारण है कि कृषि के विकास का राष्ट्र निर्माताओं द्वारा ध्यान नहीं देना एवं कृषि को विकास के पैमाने में हाशिये में धकेलना जाना है। आधुनिक अर्थशास्त्र ने विकास का पैमाना औद्योगिक विकास से सुनिश्चित किया है। जो एक दोषपूर्ण दृष्टिकोण है। जिसके चलते कोई किसान टाटा, बिड़ला, आड़ानी एवं अंबानी नहीं बन सका।
आज के युवा ने बिल गेट्स एवं धीरू भाई को अपने के आदर्श के रुप में चुना है लेकिन किसी भी युवा ने किसी एक किसान को आदर्श के रुप में नहीं चुना है। इसमें कसूर युवाओं का नहीं है। कसूर विकास के मापदंड का है। कृषि छोड़कर नौकरी एवं व्यवसाय की ओर आकृष्ट होती युवाओं की मानसिकता भारतीय कृषि के दरिद्रता की कहानी कहती है।
मेरी माताजी एक किसान थी तथा पिताजी भू राजस्व अधिकारी थे। बचपन में कृषि को निकटता से देखा है तथा वर्तमान में थोड़ी जमीन के मालिक के रुप खेती करवाता हूँ। जहाँ से एक किसान की कहानी लिखने का कार्य आरंभ करता हूँ। कृषि को लाचार पाता हूँ । किसी अन्य व्यवसाय की ताक में रहना किसान की मजबूरी है ।
जो नौकरीदार मालामाल है तथा अय्याशी की जिन्दगी जी रहा है। उनके तथाकथित इस विकास की कहानी के पीछे या तो नौकरी का व्यवसायीकरण है अथवा नौकरी को व्यवसाय का सहयोग मिलना अथवा अनुचित रास्ते से धन का आगमन है। एक नौकरीदार, ईमानदारी एवं कर्मनिष्ठा के बल सुखद जीवन जी सकता है लेकिन विकास की इस होड़ा होड़ में पांव नहीं जमा सकता है। दूसरी ओर कृषि को विकास के अन्तिम पायदान रखकर देखा गया है। अपने आप को किसान के रुप में दिखाकर विकसित मानव के रुप दिखाने वाले बहुत मिल जाएंगे लेकिन उनके विकास के पीछे व्यवसाय की कहानी है।
कृषि की अवहेलना की यह कहानी प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के गर्भ में नहीं रह सकती है। प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के जनक श्री प्रभात रंजन सरकार ने अपनी प्रउत विचारधारा में कृषि को उद्योग का दर्जा देने की मांग की गई है। कृषि को भी उद्योग को के तुल्य विकसित होने के सभी अवसर, सुविधा एवं संसाधन मिलने चाहिए। एक किसान का वास्तविक सम्मान वह है कि उसके पसीने की कमाई का उचित मूल्य मिले। दुख की बात यह है कि कृषिगत उत्पादों का मूल्य कोई ओर तय करता है लेकिन प्रगतिशील उपयोगी तत्व नामक अर्थव्यवस्था इस बात को सहन नहीं करती है। इस प्रकार ओर भी मापदंड हमारी कृषि को सुदृढ़ कर सकते है जो प्रगतिशील अर्थव्यवस्था में समाए हुए हैं।
भारत के प्रधानमंत्री की डीजिटल कृषि योजना, किसान को अपने प्रोजेक्ट को आन लाइन मार्केटिंग में लाने की व्यवस्था देता है, जिसको सकारात्मक सोच कह सकता हूँ लेकिन वास्तव में यह किसानों के साथ किया गया एक छलवा है। मार्केटिंग की इस आधुनिक तकनीक में घर पर डिलेवरी देना एक किसान के लिए दिवा स्वप्न है । इसके लिए पैकिंग एवं ब्रांड के समक्ष नतमस्तक होना पड़ेगा। प्रधानमंत्री जी चमक एवं मशीनिकरण में भारतवर्ष को बंद मत करो। भारतवर्ष को धरातल से उठाकर शीर्ष पर स्थापित करने वाली प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के हवाले कर दो।
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लेखक: - श्री आनंद किरण शिवतलाव
Anandkiran1971@gmail.com
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