षोडश विधि विशेष क्यों (why sixteen point special)


आदरणीय राजेश सिंह दादा बनारस को आलेख समर्पित
           
सद्विप्र बनने के लिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने षोडश सूत्र दिये है। इसके बारे में हर सेमिनार में क्लास ली जाती है। षोडश विधि का चार्ट भी साधकों द्वारा नित भरा जाना होता है। इस प्रकार श्री श्री आनन्दमूर्ति जी द्वारा सद्विप्र तैयार करने की एक व्यवहारिक कार्यशाला का निर्माण किया है। आज हम उसी कार्यशाला की ओर चलेंगे। 

(१) षोडश सूत्र का पालन करना - षोडश विधि की कार्यशाला के प्रथम पड़ाव में निष्ठापूर्वक षोडश सूत्र पालन करना होता है। इसके लिए प्रथमतः षोडश सूत्र का भान होना आवश्यक है। अतः षोडश सूत्र का ज्ञान लेना होता है। तत्पश्चात गंभीरता पूर्वक षोडश सूत्र के पालन करने के तरीके को समझना चाहिए। अन्त में षोडश सूत्र के एक-एक सूत्र का पालन करना होता है। 

(२) षोडश सूत्र के चार्ट को प्रतिदिन तैयार करना - षोडश विधि को अभ्यास में लाना होता है। इसलिए यह एक व्यवहारिक पक्ष है* - प्रतिदिन षोडश सूत्र का चार्ट तैयार करने से षोडश सूत्र एक संवेदनशील रहते है। षोडश विधि के चार्ट में प्रत्येक बिन्दु को बारिकी से तैयार किया गया हैं। उसको भरने का अभ्यास डालने से षोडश विधि में कोई चूक नहीं होती है तथा चूक होने पर आसानी से पकड़ में आ जाती है। 

(३) चार्ट को यूनिट सेक्रेटरी के पास जमा कराना - षोडश विधि की कार्यशाला के तीसरे पड़ाव में प्रतिदिन भरा गया षोडश विधि का चार्ट धर्मचक्र के दिन यूनिट सेक्रेटरी के पास जमा करना होता है। यूनिट सेक्रेटरी उन चार्ट का निरिक्षण कर साधकों को आवश्यक दिशा निर्देश दे सकता है। यूनिट सेक्रेटरी अपनी रिपोर्ट में उपभुक्ति प्रमुख को कार्यकर्ता के षोडश विधि के चार्ट जानकारी देनी चाहिए हैं। इस‌ प्रकार भुक्ति प्रधान को भी कार्यकर्ताओं के षोडश सूत्र का ध्यान रखना होता है। यह प्रक्रिया केन्द्र तक चलते रहने से जगत में सद्विप्र की कार्यशाला सुचारू चलती है। 

(४) षोडश विधि महत्ता को आत्मसात करना - षोडश विधि की कार्यशाला का अन्तिम पड़ाव षोडश विधि की महत्ता को आत्मसात करना है। षोडश विधि के एक-एक सूत्र का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक महत्व है। उसको आत्मसात करना होता है। 


षोडश विधि, 16 सूत्रों को लेकर बनाई गई है। जिसमें एक आदर्श मनुष्य निर्माण के सभी सूत्रों को एक माला के रूप में पिरोया गया है। इसके सभी मणके अपने आप में विशिष्ट है। आओ हम षोडश विधि के प्रत्येक मणकें को समझकर आदर्श मानवता की माला को धारण करते हैं। 

(१) जल प्रयोग - पेशाब करने के बाद मूत्र द्वार को पानी से धोना है। इसके लिए शौच मंजुशा रखने का प्रावधान है। 

(२) त्वक् - पुरुष अपनी मूत्र नली के अग्र भाग के त्वक् को हर समय पीछे की ओर खिसका कर रखना है। 

(३) जोड़ो के बाल - शरीर के सन्धि-स्थल के रोह कभी नहीं काटना एवं स्वच्छता का ध्यान रखना है। 

(४) लंगोट - पुरुष को हमेशा लंगोट का व्यवहार करना चाहिए। 

(५) व्यापक शौच - भोजन, शयन एवं साधना से पूर्व निम्नस्थ,‌ हाथ, पैर, मुह एवं आँखों को विधि पूर्वक धोना है एवं खाली पेट होने पर नासापान करना है। 

(६) स्नान - विधि पूर्वक 24 घंटे कम से एक वेला स्नान करना तथा नियमानुसार पितृ यज्ञ करना होता है। 

(७) आहार - नियमित उचित मात्र में सात्विक आहार ग्रहण करना होता है। 

(८) उपवास - एकादशी तथा पूर्णिमा व अमावस्या का नियमानुसार एवं निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार निर्जला उपवास करना होता है। 

(९) साधना - यम-नियम, पांचजन्य, साधना के सभी लेशन व आसन दिन में कम से कम दो समय करना होता है। 

(१०) इष्ट - इष्ट को मानना, अपनाना एवं उसके प्रति कठोर अनमनीय मनोभाव रखना है। 

(११) आदर्श - आदर्श को मानना, अपनाना एवं उसके प्रति कठोर अनमनीय मनोभाव रखना है। 

(१२) आचरण विधि - आचरण विधि को स्वीकार करना, मानना एवं उसके प्रति कठोर अनमनीय मनोभाव रखते हुए कठोरता से पूर्वक पालन करना होता है। 

(१३) चरम निर्देश - चरम निर्देश को स्वीकार करना, मानना, एवं उसके प्रति कठोर अनमनीय मनोभाव रखते हुए कठोरता पूर्वक पालन करना होता है। 

(१४) शपथ - शपथ वाले वाक्यों को सर्वदा स्मरण रखना। 

(१५) धर्मचक्र - स्थानीय जागृति में जाकर साप्ताहिक धर्मचक्र में अपना योगदान देना। 

(१६) सी. एस. डी. के. - आचरण विधि, सेमीनार, कर्तव्य एवं कीर्तन को मानकर चलना।



श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृत सोलह सूत्र में आदर्श मानवता का बीज विद्यमान है तो इससे बड़ा कोई भी षोडश विधि का कोई महात्म्य नहीं हो सकता है। फिर भी अणु मन की संतुष्टि के षोडश विधि के महात्म्य को परखने की कोशिश करते हैं। 

(१) लैंगिक एवं मूत्र ग्रंथियों की शुद्धता एवं नियंत्रण से मनुष्यत्व का जागरण - षोडश विधि का प्रथम ध्यान लैंगिक ग्रंथियाँ अथवा जननांग पर गया है। षोडश विधि के प्रथम चार सूत्र जल प्रयोग, त्वक्, जोड़ो के बाल एवं लंगोट पूर्णतया निम्नस्थ अंग की ओर सतर्क करता है। यह न केवल नियंत्रित हो अपितु नियमित एवं नियोजित भी होना भी आवश्यक है। अतः मूत्र के बाद जल प्रयोग करने से मूत्र का सम्पूर्ण निर्गमन होता है तथा इससे मुत्रेन्द्रि स्वच्छ भी होती है। मुत्रनली की चमड़ी पीछे खिंचकर रखने से मूत्र नली में अवांछित पदार्थ जमने से बचाया जाता है। जिससे लैंगिक बीमारी से बचा जा सकता है।जोड़ों के बाल को न काटना एवं कुतरना चाहिए, यह एक शरीर विज्ञान है जो लैंगिक वृत्ति को नियंत्रित करती है। यह पूर्णतया प्राकृतिक विज्ञान है। लंगोट प्रयोग एक यौगिक क्रिया द्वारा लैंगिक वृत्ति को नियंत्रित एवं नियमित किया जाता है। 

(२) शरीर एवं पेट की शुद्धता से आदर्श मनुष्य का निर्माण - षोडश विधि का दूसरा अंग शरीर एवं पेट केन्द्रित सूत्रों का समूह है। सूत्र 5 से 8 तक व्यापक शौच, स्नान, आहार एवं उपवास से शरीर व पेट का ताप एवं ऊर्जा का नियंत्रण एवं संतुलन सुनिश्चित होता है। भोजन, साधना एवं शयन तीनों ही स्थित में शरीर के अंदर की ऊर्जा एवं ताप में परिवर्तन होता है। अतः व्यापक शौच उनको बाह्य संतुलन एवं शुद्धता बनाकर आंतरिक क्रिया में सांमजस्य बनाकर रखता है। स्नान सम्पूर्ण शरीर की शुद्धता के साथ पेट एवं शरीर के तापमान को बनाया रखने की एक विधा है। स्नान में नाभिचक्र एवं ब्रह्म तालू होते हुए मेरूदंड की प्रक्रिया करना पूर्णतया एक यौगिक प्रक्रिया है। जिसके करने से शरीर के अंदर की बाहरी प्रक्रिया में सामंजस्य बना रहता है। आहार का संबंध सीधा पेट से है, उसमें सात्विक गुण संपन्न भोजन जाने से साधक की आंतरिक क्रियाओं की शुद्धता बनाएं रखता है। जबकि तामसिक भोजन इन क्रियाओं अशुद्ध करता है। राजसिक भोजन भी पेट के संतुलन को प्रभावित करता है। अतः सात्विक भोजन ही साधकों के ग्रहण करने योग्य है। उपवास पूर्णतया एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। जिसके द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रिया में एक सुसंतुलन स्थापित किया जाता है। जो प्रमा संतुलन में सहयोग करता है। 

(३) मन की शुद्धता एवं दृढ़ता से मनुष्य में देवत्व का जागरण - षोडश विधि का तीसरा अंग स्वयं मनुष्य को देवत्व जागरण करता है। सूत्र 9 से 12 तक मन की शुद्धता, दृढ़ता एवं विकास की व्यवस्था देता है। साधना, इष्ट, आदर्श एवं आचरण विधि मनुष्य को देवत्व एवं ब्रह्मत्व की यात्रा की ओर ले चलते हैं। साधना व्यक्ति की सुप्त शारीरिक,मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों के विकास की एक बेहतरीन कला एवं विज्ञान दोनों है। इष्ट मनुष्य की भावनात्मक शक्ति को नियंत्रित एवं नियमित बनाये रखता है। बिना इष्ट के यह शक्तियाँ अनियंत्रित एवं अनियमित हो सकती है। जो साधना से प्राप्त अलौकिक शक्तियों को प्रभावित करता है। अतः साधक का इष्ट होना जरूरी है तथा इष्ट को मजबूती पकड़ कर रखना भी जरूरी है। बिना इष्ट के साधक का जीवन लहरों की थप्पड़ों के मुताबिक चलता है। जो शुभ अथवा अशुभ हो सकता है। जो इष्ट की अभिकल्पना के बिना साधना किये चल रहे है। उसकी भावनात्मक शक्ति अनियंत्रित एवं अनियमित रहती है।‌ आदर्श मनुष्य की बौद्धिक शक्तियों नियंत्रित एवं नियमित बनाकर रखती है। बिना आदर्श बुद्धि को अनियंत्रित एवं अनियमित कर देती है। अतः इष्ट के साथ आदर्श का भी होना आवश्यक है। इष्ट के रहने तथा आदर्श के नहीं रहने से आध्यात्मिक विकास तो संभव है लेकिन साधक में रावण के विकास की संभावना को नहीं रोक पाता है। अतः बौद्धिक क्रिया के नियंत्रण एवं नियमन में आदर्श का महत्वपूर्ण योगदान है।‌ आचरण संहिता मनुष्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों को नियमित एवं नियंत्रित करती है। यदि साधक धरातल अछूत रह गया तो वह अव्यवहारिक बन जाएगा अतः आचरण संहिता पूर्णतया आध्यात्मिक जगत से आया एक सामाजिक पहलू है। यह साधक को असमाजिक, असभ्य एवं असंस्कारित नहीं बनने देता है। अतः साधक के लिए एक आचरण विधि का होना आवश्यक है। आदर्श साधक को रावण नहीं बनने देता है लेकिन राम बनाने के लिए आचरण विधि की आवश्यकता है। 

(४) मनुष्य के संकल्प की दृढ़ता से ब्रह्मत्व की ओर - वास्तव में मनुष्य एक संकल्प शक्ति है। जिसका जैसा संकल्प होगा, वह वैसा ही मनुष्य बनकर निखरता है। जिसके पास कोई संकल्प नहीं होता है, वह अपना जीवन भाग्य के हवाले कर देता है। जब-जब भी साधक संकल्प डगमगाया है तब-तब मनुष्य ब्रह्मत्व की यात्रा से भटका है। अतः षोडश विधि का अन्तिम भाग संकल्प शक्ति को प्रगाढ़ बनाती है। चरम निर्देश, शपथ, धर्मचक्र एवं सोलहवाँ सूत्र पूर्णतया संकल्प शक्ति को डिगने नहीं देने के लिए है। चरम निर्देश की पवित्रता की रक्षा उसका पालन है व शपथ की मर्यादा को अनुसरण में लाना, संकल्प को दृढ़ बनाते हैं। धर्मचक्र, मनुष्य को प्राप्त होने वाली, वह आंतरिक एवं बाहृय शक्ति है जो संकल्प को सिद्ध करती है। सेमिनार, आचरण, कर्तव्य एवं कीर्तन संकल्प शक्ति को मिलने वाली बाह्य ऊर्जा है, जो साधक को अंदर से मजबूत बनाती है। अतः चरम निर्देश को मानकर चलना, शपथ पर खरा उतरना, धर्मचक्र करते रहना तथा सेमिनार में भाग लेना, आचरण को सुव्यवस्थित बनाये रखना, कर्तव्यों का पालन करना व कीर्तन करना साधक को ब्रह्मत्व प्रदान करते हैं।

षोडश विधि का महात्म्य जानने के बाद सद्विप्र निर्माण की इस कला एवं विज्ञान हैं को आजमाने की‌ आवश्यकता है। यह आदर्श समाज की धूरि है। अतः षोडश विधि को जन-जन तक पहुँचाने के लिए स्वयं षोडश विधि का पालन करते हैं।
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         [श्री] आनन्द किरण "देव"
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