पितृ तर्पण की सर्वोच्च विधि -पितृयज्ञ (The highest method of offering to ancestors - Pitriyagya)



भारतवर्ष में इन दिनों श्राद्ध पक्ष चल रहा है। लोग नानाविध से पितृ तर्पण एवं श्राद्ध क्रिया करते हैं। इसे पितृ, मातृ, देव ऋण से मुक्ति के विकल्प एवं पितृ यज्ञ के रूप में देखा जाता है। *पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने का सर्वोत्तम तरीका पितृ यज्ञ है।* इससे पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों को को मुक्ति प्रदान होती है तथा अर्पण कर्ता का सारा भार हल्का हो जाता है। इसके अर्पण कर्ता द्वारा जो वस्तु जिसको को अर्पित करता है, वह उनकी मनवांक्षित वस्तु होती है तथा अर्पण की क्रिया सरल, सुगम, सुन्दर एवं सर्वोत्तम बन जाती है। हम पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों को क्या चाहिए, उनकी जानकारी नहीं रखते हैं। इसलिए पितृ यज्ञ, वह सरलतम एवं सर्वोत्तम उपाय है, जिसके माध्यम से उनको मनवांक्षित वस्तु प्रदान हो जाती है तथा वे इतने तृप्त हो जाते हैं कि वे अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। शास्त्रोक्त विधान के अनुसार पितृ यज्ञ में जिसमें सर्वप्रथम अर्पण क्रिया ब्रह्म बन जाती है। जिससे अर्पण विशुद्ध हो जाती है। उसमें किसी भी प्रकार त्रुटि रहने की संभावना नहीं रहती है। उसके बाद द्वितीय क्रम में जो अर्पित हो रहा होता है, वह ब्रह्म बन जाता है। जिससे सभी के मनवांक्षित वस्तु बन जाती है। यह अर्पण कर्ता एवं जिसको अथवा जिसमें अर्पण कर रहा है, उसके लिए कल्याणकारी बन जाता है। तृतीय क्रम में जिसमें अथवा जिसको अर्पित किया जा रहा है, वह ओब्जेक्ट्स ब्रह्म बन जाता है। अतः अर्पण कर्ता, अर्पण क्रिया का मूल उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। चतुर्थ क्रम में अर्पण कर्ता भी ब्रह्म बन जाता है। अतः अर्पण कर्ता सभी भार, बंधन एवं दायित्व से मुक्त हो जाता है। ताकि वह समय के शेष रहते सभी प्रकार के ब्रह्म कर्म का संपन्न कर ब्रह्म में विलीन हो जाता है। अर्थात सफल एवं सुफल जीवन जीने के बाद परमपद को प्राप्त करता है। 

पितृ यज्ञ करने की सरलतम विधि है। स्नान करने के बाद शरीर पोंछने से पूर्व सूर्य अथवा किसी ज्योतिष्मान वस्तु की ओर देखते हुए नियमानुसार मुद्रा में निम्नलिखित मंत्र का तीन बार उच्चारण करना होता है। 

पितृपुरुषेभ्यो नम: ऋषिदेवेभ्यो नम:।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।

मंत्रोच्चारण की सरलतम विधि

(१) हाथ जोड़कर आज्ञा चक्र त्रिकुटी को स्पर्श कर मंत्र प्रथम वाक्य पितृपुरुषेभ्यो नम: का उच्चारण करते हैं। 

(२) हाथ जोड़े हुए ही अनाहत चक्र सीने को स्पर्श करते हुए मंत्र का द्वितीय वाक्य ऋषिदेवेभ्यो नम: का उच्चारण करते है। 

(३) अनाहत चक्र सीने पर ही हाथों को नीचे से उपर की ओर दक्षिणावर्त घूमाते हुए मंत्र तृतीय अक्षर ब्रह्मार्पणं का उच्चारण करते हैं। 

(४) अनाहत चक्र सीने के समक्ष दक्षिणावर्त ही घूर्णन करते दोनों हाथों की मिलित हथेली को अथवा दोनों हाथों चुल्लू बनाते हुए मंत्र चतुर्थ अक्षर ब्रह्मह्विर (ब्रह्म+ह्+विर) का उच्चारण करते हैं। 

(५) इसके दोनों हाथों की मिलित हथेली को मणिपुर चक्र के समक्ष नीचे की ओर रख कर अर्थात पेट के नीचे रखते हुए मंत्र पांचवा अक्षर ब्रह्माग्णौ का उच्चारण करते हैं। 

(६) दोनों हाथों की मिलित हथेली को स्वाधिष्ठान चक्र के समक्ष नीचे की ओर फैलाते हुए अर्थात मेरुदंड के सामने रखकर मंत्र छठा अक्षर ब्रह्मणाहुतम् का उच्चारण करते हैं। 

(७) इसके हाथों शरीर से उपर सहस्त्रार चक की ओर उपर की ओर फैलाते हुए सामने की ओर खोलकर मंत्र का सातवां अक्षर ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं का उच्चारण करते हैं। 

(८) अंत में खुले हाथों शरीर के नीचे की ओर मूलाधार चक्र की ओर ले जाते हुए पीछे की ओर खोलकर मंत्र का आठवां एवं अन्तिम अक्षर ब्रह्मकर्मसमाधिना का उच्चारण करते हैं। 

इस प्रकार प्रतिदिन स्नान करने के बाद पितृ यज्ञ किया जाता है। 

यह पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों के प्रति सम्मान, कर्तव्य निर्वहन एवं श्रद्धा रखने का सर्वोत्तम तरीका है। 

आओ पितृ पुरुषों के अपने श्रद्धा को शास्त्राविधि के अनुसार, वैज्ञानिक तरीके से तथा प्राचीनतम, नवीनतम व आधुनिक परंपरा संगम के अनुसार करते हैं।
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