सद्विप्र नेतृत्व ही क्यों? (Why only Sadvipra leadership?)


नेतृत्व का यह अध्ययन पत्र सद्विप्र नेतृत्व के लक्षण को समझने की ओर ले चलता है। सद्विप्र नेतृत्व सभी प्रकार विपदा को झेलकर सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ समर्पित रहता है। इसके लिए सद्विप्र नेतृत्व को षोडश सूत्र, पंचशील, आचरण संहिता, यम नियम मानकर चलना होता है साथ ही आध्यात्मिक साधना में सिद्धहस्त होना होता है। निस्संदेह सद्विप्र नेतृत्व ब्रह्म कोठी का नेतृत्व होता है। लेकिन यह आपात दृष्टि में प्रजापत्य (दक्ष), आर्ष व देव नेतृत्व की सोपात्मक स्थित से निकल सकता है। 
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प्रउत ने धरातल पर सद्विप्र नेतृत्व की चर्चा छेड़ी है। अतः दुनिया जानना चाहती है कि सद्विप्र नेतृत्व क्यों तथा सद्विप्र नेतृत्व ही क्यों? 

नेतृत्व शब्द के सद्विप्र विशेषण लगने से सद्विप्र नेतृत्व शब्द बना है। अतः सद्विप्र नेतृत्व शब्द में मूल शब्द नेतृत्व है। इसलिए नेतृत्व को समझे बिना सद्विप्र नेतृत्व क्यों तथा सद्विप्र नेतृत्व ही क्यों को समझना मुश्किल है।

नेतृत्व शब्द का शाब्दिक अर्थ संगठन अथवा समाज की एक आवाज को विस्तार देने में अग्रणीय रहने वाला व्यक्ति हैं। नेता में मुख्य अक्षर त है जिसका अर्थ विस्तार, ने - अर्थ दृष्टि प्रदान करना, ऋत्व का अर्थ व्यवस्था। इस प्रकार नेतृत्व शब्द का अर्थ संगठन अथवा क्षेत्र को विस्तार देने में अपनी दृष्टि को सबको देकर तथा सबकी दृष्टि को अपनी दृष्टि बनाकर व्यवस्था प्रदान करने वाला व्यक्ति हैं। अतः नेतृत्व दोहरी अभिक्रिया है। जिसमें एक में सब तथा सब में एक मिलता है। अतः नेतृत्व का उपयुक्त होना आवश्यक है। यदि नेतृत्व में त्रुटि हुई तो सम्पूर्ण तंत्र अथवा व्यवस्था त्रुटिपूर्ण हो जाती है। इसलिए प्रउत ने सद्विप्र नेतृत्व की अवधारणा दुनिया के समक्ष रखी है। यदि हम दुनिया के इतिहास का एक एक पन्ना पढ़े तो पाएंगे कि सद्विप्र नेतृत्व को सु एवं सफल व्यवस्था नाम दिया है तथा इसके व्यतिरेक जो नेतृत्व मिला है, उसे कु तथा असफल व्यवस्था बताई गई है। इसलिए कहा गया है कि जब जब अव्यवस्था, अराजकता एवं पाप ने पांव पसारे तब तब सद्विप्रों ने भृकुटी तानी है। अधर्म (असत्य, अनीति एवं अन्याय) के साम्राज्य का समूल नाश करके धर्म ( सत्य, नीति एवं न्याय) की प्रतिष्ठा करने में सद्विप्र सदैव अग्रणी रहे हैं। अतः समाज को सद्विप्र नेतृत्व की आवश्यकता है अथवा सद्विप्र नेतृत्व ही सच्चे अर्थ में नेतृत्व है। 

सद्विप्र नेतृत्व का अर्थ 

हमने देखा कि समाज को सुव्यवस्था, सुविधा एवं सुविस्तृत करने के लिए सद्विप्र नेतृत्व ही आवश्यक है। यही सद्विप्र नेतृत्व क्यों अथवा सद्विप्र नेतृत्व ही क्यों का सही उत्तर है। अब हम सद्विप्र नेतृत्व का अर्थ समझेंगे। सुबुद्धि संपन्न व्यष्टि जो समाज को एक साथ विप्रोचित्त, क्षत्रियोचित्त, वैश्योचित्त एवं शूद्रोचित्त सेवा प्रदान कर नेतृत्व का फर्ज निभा सके, उस व्यष्टि को सद्विप्र नेतृत्व कहते हैं। इसके लिए सद्विप्र नेतृत्व को आध्यात्मिक नैतिकता में प्रतिष्ठित एवं भूमाभाव का प्रगाढ़ साधक होना आवश्यक है। अतः जो व्यक्ति स्वयं को अनुशासित रख सकता है वही समाज को सु अनुशासित रख सकता है। जिसके अंदर स्व: अनुशासन नहीं वह बलपूर्वक समाज को अनुशासित रख सकता है लेकिन सु अनुशासन नहीं दे सकता है। अतः नेतृत्व को चरित्रवान, नैतिकवान एवं आत्मिक दृष्टि को होना आवश्यक है। यम नियम का पालन करने वाला तथा भूमाभाव का साधक ही सद्विप्र कहलाता है तथा ऐसा नेता सद्विप्र नेतृत्व कहलाता है। 

सद्विप्र नेतृत्व के लक्षण

सद्विप्र नेतृत्व के लक्षण जब भी पढ़ाएं जाते हैं तब सद्विप्र के लक्षण पढ़ाकर विषय को समाप्त कर दिया जाता है। हम सद्विप्र नेतृत्व समझने से पूर्व नेतृत्व के कुछ वर्गीकरण का अध्ययन करते हैं। नेतृत्व को मुख्यतः दो वर्ग में विभाजित किया गया है। शुभ नेतृत्व (Auspicious leadership) एवं अशुभ नेतृत्व (Inauspicious leadership)। इन दोनों को चार - चार उपवर्ग में बाटकर नेतृत्व को समझने की कोशिश करते हैं। 

(A) शुभ नेतृत्व (Auspicious leadership) - नेतृत्व की यह श्रेणी मंगलमय मानी जाती है। इसमें चार श्रेणियाँ है। 
(१) ब्रह्म कोटि नेतृत्व (God class leadership or best leadership) - नेतृत्व की यह श्रेणी सर्वोत्तम मानी गई है। इसमें व्यष्टि की प्रगति समष्टि में तथा समष्टि की प्रगति व्यष्टि में देखी जाती है। सबको फलने फूलने का अवसर देते हुए समाज के प्रति अनुशासित एवं समर्पित व्यष्टि को तैयार करने की कला को ब्रह्म नेतृत्व की श्रेणी में रखा गया है। यह विगत कुंठा की अवस्था है। जिसमें नेतृत्व  पूर्वाग्रह , द्वेष, अनुराग, विराग, भय, पक्षपात रहित होता है। 

(२) देव नेतृत्व (Lord leadership or better leadership) - नेतृत्व की इस श्रेणी में सामान्य इच्छा का निर्माण किया जाता है तथा सभी अपने व्यष्टिगत हित उसमें समाहित करते हैं। अर्थात आदर्श के समक्ष नतमस्तक होते हैं। जबकि ब्रह्म नेतृत्व में आदर्श में समाहित होते हैं। यद्यपि इस में पूर्वाग्रह द्वेष, अनुराग, विराग इत्यादि नहीं होते तथापि इसमें व्यष्टि को समग्र विकास का अवसर कई न कई छूट जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो देव नेतृत्व समष्टि के लिए अच्छी लेकिन व्यष्टि के खराब नहीं होते हुए भी अच्छी नहीं है। क्योंकि व्यष्टि को कुछ न कुछ छोड़ना पड़ता है। 

(३) आर्ष नेतृत्व (Self leadership or Good leadership) - नेतृत्व की यह श्रेणी नेतृत्व व्यष्टि के अनुकूल समष्टि का निर्माण करती है। आजकल नेतृत्व की यह श्रेणी ही अधिक प्रचलित है। जिसमें मुखिया अपने अनुकूल टीम तैयार कर अधिक से अधिक काम करता है। यद्यपि इसमें आदर्श सुरक्षित रहता है तथापि समष्टि एवं व्यष्टि का सम्पूर्ण कल्याण नहीं होता है। इसमें कई बार योग्यता उपवास करती है तथापि अयोग्यता को दावत दी जाती है। अतः सफल नेतृत्व मानी जाने पर भी व्यष्टि ठग   जाता है। इस प्रकार के नेतृत्व में पूर्वाग्रह, अनुराग, विराग द्वेष इत्यादि रहने की संभावना से इंकार तो नहीं किया जा सकता है लेकिन ऐसी आशा नहीं की जाती है। 

(४) प्रजापत्य नेतृत्व अथवा दक्ष नेतृत्व (Efficient leadership) - आजकल इस प्रकार का नेतृत्व तैयार कर जनता के उपर थोपा जाता है। उसे विशेष शिक्षण प्रशिक्षण देकर प्रयोगशाला में तैयार किया जाता है तथा जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार शायद वास्तविक धरातल का ज्ञान लेने में वक्त लग सकता है। राग, द्वेष अनुराग, विराग इत्यादि दूषित प्रवृत्ति से दूर रहने की आशा की जाती है। इसलिए इस प्रकार नेतृत्व शुभ नेतृत्व की श्रेणी में रखा गया है। 

(B) अशुभ नेतृत्व (Inauspicious leadership) - नेतृत्व की यह श्रेणी वास्तव में कोई नेतृत्व नहीं है फिर भी धरती ने ऐसे नेतृत्व देखें। 

(५) मोहित नेतृत्व (Captivated leadership) - इस प्रकार के नेतृत्व को मिठी मिठी एवं प्यारी प्यारी बात करने वाली श्रेणी कहा जाता है। इसमें जन आकांक्षा को भूलभुलैया में रखने के लिए मिठी मिठी तथा प्यारी प्यारी बात की जाती है। जनता को कथा कहानियों के माध्यम से उसमें उठने वाले प्रश्न एवं जिज्ञासा को भूलभुलैया में डाल दिया जाता है। इस प्रकार मैत्री कोई कल्याण मूलक योजना क्रियांवित किये बिना जन विद्रोह को पनप ने नहीं दिया जाता। इस प्रकार के नेतृत्व अच्छा बताया जाता है लेकिन यह शुभ नेतृत्व नहीं है। यहाँ कल्याण नामक सूत्र नहीं रहने से वही दशा होती है, जो हड्डी चूसने वाले कुत्ते है। स्वयं के रक्त से आनन्द लेना। आजकल इस प्रकार के नेतृत्व की भीड़ देखी जाती है तथा लोकतंत्र में ऐसे नेतृत्व सफल माना जाता है। 

(६) असुर नेतृत्व (Demon leadership or bad  leadership) - राजतंत्र में ऐसा नेतृत्व बहुत देखा गया है। लोकतंत्र भी ऐसे नेतृत्व से अछूता नहीं है। इसमें विद्रोही को प्रलोभन, पदोन्नति एवं विशिष्ट सम्मान देकर अपना काम निकाला जाता है। अर्थात हम कह सकते हैं कि इस प्रकार अव्यवहारिक पद्धति के द्वारा अपना काम निकालने वाली पद्धति को असुर नेतृत्व कहते हैं। अतः संभावित अव्यवस्था किसी भी परिस्थिति में प्रकट नहीं होने देना अथवा दिखाई नहीं देना है। गटबंधन की राजनीति में इस प्रकार का नेतृत्व दिखाई देता है। यह विद्रोही बदनाम कर भी नियंत्रण में करने से नहीं चुकता है। 

(७) राक्षस नेतृत्व (Devil leadership or Worse leadership ) -  इसमें बलप्रयोग द्वारा अथवा लाठी के बल पर नेतृत्व किया जाता है। राजनीति की भाषा में इसे तानाशाही नेतृत्व (Dictatorial leadership) कहा जाता है। जनकल्याण शब्द तो अशुभ नेतृत्व में ही मर जाना जाता है। लेकिन यहाँ मात्र अपने धाक जमाई जाती है। लोकतंत्र में ऐसे नेता जाति एवं साम्प्रदायिक भावना भड़काकर तथा विद्रोही की कमजोरी को दबा कर नेतृत्व देते हैं। 

(८) पिशाच नेतृत्व (Vampire leadership or worst leadership) - यह जनता के लहू शोषण पर अपना नेतृत्व करते हैं। जितने बुरे से बुरे हथकंडे अपनाकर अपनी सत्ता कायम रखने वाली श्रेणी जिसमें लोकतंत्र में यह में बुथ पर कब्जा ( booth capture), दबंगई, मत खरीदी(vote buying), शारब वितरण (liquor delivery), नशा में लिप्त रखना तथा खिलना पिलाने के इत्यादि द्वारा शासन करते हैं। EVM मशीन घोटाला भी इस प्रकार नेतृत्व का साधन है। क्योंकि इनके नियंत्रण में जनमत कभी होता ही नहीं है। इसलिए पिशाच नेतृत्व इस प्रकार अपना दबदबा कायम रखते हैं। इतिहास में क्रुरुर तथा क्रुरता से भरा नेतृत्व इस श्रेणी के उदाहरण है। 

नेतृत्व का यह अध्ययन पत्र सद्विप्र नेतृत्व के लक्षण को समझने की ओर ले चलता है। सद्विप्र नेतृत्व सभी प्रकार विपदा को झेलकर सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ समर्पित रहता है। इसके लिए सद्विप्र नेतृत्व को षोडश सूत्र, पंचशील, आचरण संहिता, यम नियम मानकर चलना होता है साथ ही आध्यात्मिक साधना में सिद्धहस्त होना होता है। निस्संदेह सद्विप्र नेतृत्व ब्रह्म कोठी का नेतृत्व होता है। लेकिन यह आपात दृष्टि में प्रजापत्य (दक्ष), आर्ष व देव नेतृत्व की सोपात्मक स्थित से निकल सकता है। 

सद्विप्र नेतृत्व क्यों? 

अब हम प्रश्न का उत्तर जानने की ओर निकलते हैं। वस्तुतः नेतृत्व से आश की जाती है कि सर्वजन हितार्थ सर्वजन सुखार्थ व्यवस्था दी जाए इसलिए सद्विप्र नेतृत्व की आवश्यकता है। इसके बिना सर्वजन हितार्थ सर्वजन सुखार्थ का समीकरण असंतुलित रहता है। 

सद्विप्र नेतृत्व ही क्यों? 

वास्तव में सद्विप्र नेतृत्व ही नेतृत्व है, शेष कोई नेतृत्व ही नहीं है। ब्रह्म कोठी का नेतृत्व ही सद्विप्र नेतृत्व है अथवा सर्वोत्तम कोठी का नेतृत्व ही सद्विप्र नेतृत्व है। सद् विप्र नेतृत्व अर्थात सत्यनिष्ठ ब्रह्म कोठी का नेतृत्व है। 
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[श्री]                          "देव"
          आनन्द किरण
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