मनुष्य को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति कराने वाली पद्धति का नाम 'साधना' है। साधना कैसे जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करवा सकती है?, यही आज की समस्या है। जिसका समाधान करने के लिए हम निकले हैं। वस्तुतः इसका निराकरण शास्त्र ने बहुत पहले ही कर दिया था। उसकी उचित व्याख्या नहीं होने के कारण मनुष्य इस प्रश्न को समस्या बनाकर रख दिया था। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के द्वारा उपयुक्त व्याख्या करने के बाद मनुष्य समझ पाया कि साधना से कैसे मुक्ति एवं मोक्ष मिलता है। यद्यपि श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने मनुष्य को मुक्ति के पथ पर चलने की शिक्षा दी है तथापि मोक्ष के प्रति मनुष्य की समझ को पूर्णतया दुरस्त किया है। आज हम उसी विषय पर चर्चा करेंगे।
(१) मूर्तिपूजा एक अधम से अधम साधना - मनुष्य को कमजोर आध्यात्मिक शिक्षकों द्वारा मूर्तिपूजा सिखाई गई। यद्यपि मजबूत एवं परिपूर्ण शिक्षकों द्वारा सदैव इसका विरोध किया गया तथापि मनुष्य इसको एक सरल उपाय मानने के गले लगाये रखा। यह साधक के लिए विष है फिर भी इसका मोह नहीं छोड़ रहा है, इसका कारण है कि अपने कमजोरी को इसकी आड़ में छूपा लेता है। इस क्रिया में मनुष्य पथ्थर, धातु, काष्ठ तथा कागज इत्यादि की प्रतिमा अथवा प्रतिकृति बनाकर अथवा खिंचवाकर उसके समक्ष पुष्प, धूप, चन्दन इत्यादि से पूजा कर एक संतुष्टि का अनुभव करता है कि मैंने अपने जीवन लक्ष्य को सिद्ध कर दिया। मनुष्य की आस्था का सम्मान करते हुए बताना पड़ता है कि इसमें ध्येय के अनुरूप सिद्ध के परिणामस्वरूप मनुष्य का मानस पथ्थर, धातु, काष्ठ तथा कागज इत्यादि में रुपांतरित हो जाता है। यह मनुष्य की चरम अधोगति है। इसलिए इसे अधम से अधम साधना कहा गया है। जिसमें साध्य गलत चयन किया गया है। प्रकृति पूजा एवं यज्ञवाद के प्रति कमजोर समझ ने मनुष्य को मूर्तिपूजा की ओर धकेलने में सहायता की है। वस्तुतः प्रकृति पूजा एवं यज्ञवाद कभी भी आध्यात्मिक संपदा नहीं रही है। यह मनुष्य द्वारा खोजे गए भौतिक विज्ञान के असफल प्रयास का परिणाम है। प्रकृति से मिलने वाले अवदान के खो जाने के भय ने प्रकृति के प्रति आस्था एवं पूजा को बलवान किया। इसीप्रकार वर्षा एवं बादलों के रंग एवं धूएं के रंग में समानता ने भौतिक विज्ञान को धूम्र से मेघ बनने का सिद्धांत पकड़ा दिया। कभी कभी ताप की तीव्रता के कारण बनने वाले कम दाब के क्षेत्र के कारण बादल का वर्षा में रुपांतरित होना उनके प्रयोग की सिद्ध मिल गई, जो भौतिक विज्ञान का प्रमाणित परिक्षण नहीं है। अतः आध्यात्मिक क्षेत्र में यज्ञ विज्ञान तथा प्रकृति विज्ञान का स्थान नहीं है। कालांतर में धर्म व्यवसायी जीवी पुरोहितों ने इसे आध्यात्मिक संपदा घोषित किया। मूर्तिपूजा के समान ही यह सुफल दायक नहीं है। अतः मनुष्य को शास्त्र में बताये गये अधम से अधम पथ का चयन नहीं करना चाहिए।
(२) जप स्तुति एक अधम साधना है - परमतत्व को मूर्ति में पूजना अधम से अधम है तो परमतत्व की स्तुति में जप करना अधम साधना है। परमतत्व को जानने, समझने एवं बनने का उपाय उनकी स्तुति में किया गया जप नहीं है। वे खुशामद, अर्चना एवं आरती से प्रसन्न होकर वरदान देंगे जिससे स्तुतिकार का कल्याण हो जाएगा, यह पूर्णतया गलत विज्ञान है। किसी की स्मृति में उसके सुकर्त्य का गुणगान किया जाना हमें तृप्ति दे सकता है लेकिन उन्हें किसी भी प्रकार से गुणांवीत नहीं कर सकता है। किसी स्मरण से साधक के शरीर में ऊर्जा का संचार अवश्य होता है लेकिन इसके लिए उन्हें स्तुति में जप करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। अतः जप का विज्ञान समझने की आवश्यकता है। जप तत्व किसी शब्द अथवा वाक्य की वाचनिक, उपविष्ट एवं मानसिक अभिव्यक्ति है। इनकी अभिव्यक्ति भजन, कीर्तन एवं मंत्र में भी मिलती है। भजन व कीर्तन में विभिन्न राग रागिनियों तथा ब्रह्म भाव के माध्यम से साधक को आध्यात्मिक की ओर ले जाया जाता है। जो किसी प्रकार की जड़ात्मक क्रिया पर मानसाध्यात्मिक क्रिया को बलवान बनाती है। अतः आध्यात्मिक विज्ञान इसे स्वीकृति प्रदान कर देती है। इसीप्रकार मंत्र भी एक विशेष प्रकार की शाब्दिक अभिव्यक्ति है, जो सम्पूर्णतया मन की विषय वस्तु है। वह मन को तदनुरूप भाव में रुपांतरित करने में सहायक है। अतः मंत्राघात एक स्वीकृति आध्यात्मिक विज्ञान है। उसे अतिरिक्त लंबी लंबी स्तुति में जप करना एक आस्था का विज्ञान है, जो मनुष्य को विकासोन्मुखी बनाने सहायक नहीं है। इसलिए इसे शास्त्र ने अधम बताया है। सबसे निम्न स्तर पर अथवा कभी कभी प्रारंभिक स्तर पर रखा जाता है। मनुष्य को इससे आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
(३) ध्यान एक मध्यम साधना है - जप स्तुति के बाद मनुष्य को ध्यान का विज्ञान समझना आवश्यक है। ध्येय को धारण करना एक धारणा तथा ध्येय को मन में स्वीकारना अथवा स्थान देना एक ध्यान है। यह मध्यम स्थान पर है क्योंकि इसमें मनुष्य के ध्येय तत्व की मजबूती कार्य करती है। यदि ध्येय तत्व कमजोर है तो मनुष्य कमजोर ध्येय में परिवर्तित हो जाता है। इसके विपरीत ध्येय तत्व मजबूत होने पर मजबूत ध्येय में रुपांतरित हो जाता है। ब्रह्मभाव मय जप एवं ब्रह्म का ध्यान साधक के लिए घातक नहीं है अपितु लाभदायक है। अतः शास्त्र में ध्यान का मूल सदगुरु शरणम बताया गया है। सदगुरु की शरण में जाना ही ध्यान का कार्य है। क्योंकि की मोक्ष सदगुरु की कृपा में निहित है। अतः तारक ब्रह्म को गुरु रुप में पाकर उसका ध्यान करना कल्याणकारी है। इसके अतिरिक्त किसी जड़ वस्तु अथवा कल्पित वस्तु का ध्यान अधिक कल्याणकारी नहीं है। अतः इसे मध्यम उपाय बताया गया है।
(४) ब्रह्म सदभाव एक उत्तम साधना है - ब्रह्म, आनन्द भाव अथवा मधु विद्या एक उत्तम साधना है। जो साधक सदैव ब्रह्म भाव में रहता है, उसकी कभी भी क्षति नहीं हो सकती है। इसके अभाव में निविकल्प एवं सविकल्प समाधि भी मनुष्य को पतन की ओर जाने से नहीं रोक सकती है। अतः ब्रह्मभाव की साधना का मार्ग ही आनन्द मार्ग है। आनन्द मार्ग ही मनुष्य का कल्याण मार्ग है। आनन्द भाव में प्रतिष्ठित होने का साधन ही ब्रह्म भाव है। अतः जागतिक एवं आध्यात्मिक कार्य में मधूर भाव को आरोपित करना आवश्यक है। ब्रह्म भाव युक्त ध्यान एवं जप उत्तमोब्रह्मसदभाव का अंग है। अतः आनन्द मार्ग की सम्पूर्ण साधना को ब्रह्म भाव से लबालब भरा है। तत्व धारणा, प्राणायाम, चक्र शोधन एवं ध्यान को ब्रह्म भाव में बनाया गया है। यहाँ तक की आनन्द संगीत, प्रभात संगीत तथा कीर्तन को भी ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित करके गाया अथवा किया जाता है। अतः ब्रह्म भाव की साधना एक सर्वश्रेष्ठ अर्थात उत्तम साधना है। यहाँ तक जागतिक कार्य में ॐ मधु को स्थापित करने का क्रांतिकारी कार्य आनन्द मार्ग के द्वारा किया गया है।
इस प्रकार साधना विज्ञान को समझकर साधना करना मनुष्य के लक्ष्य को सुगम, सरल एवं सुफल बनाती है। इसलिए हे मनुष्य! आनन्द मार्ग मनुष्य की जरूरत को समझकर बना है। अतः मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलना ही होगा। तुम लोगों की जय हो।
[श्री] आनन्द किरण "देव"
एक प्रश्न: क्या मूर्ति पूजा एक विष के समान है या फिर यह कहना ज्यादा उचित होगा कि मूर्ति पूजा किसी भी प्रकार कि साधना न करने से तो अच्छा है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यह भी साधना है पर यह प्रारंभिक स्तर की है, इससे कुछ तरक्की तो होगी पर इससे मनुष्य सर्वोच्च स्तर पर नही पहुंच सकता। अतः मेरा प्रश्न यह है की मूर्ति पूजा एक निचले स्तर या प्रारंभिक स्तर की साधना है या ये विष के समान है और इसे करने से तो अच्छा है की कोई साधना न की जाए। मुझे लगता है की जिसको उच्च स्तर की साधना नही उपलब्ध हो पाई है या जो उच्च स्तर की साधना करने या समझने में अक्षम है उसके लिए कोई भी साधना न करने से तो मूर्ति पूजा ही अच्छी रहेगी।कम से कम कुछ स्तर तक तो उन्नति होगी। हमे लगता है मूर्ति पूजा के लिए विष शब्द कुछ ज्यादा कठोर शब्द हो जायेगा। धन्यवाद।
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