कीर्तन (kiirtan)

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हरि के नाम का सस्वर गान कीर्तन कहलाता है। यह स्मरण, श्रवण एवं दर्शन साधना की संयुक्त अभिव्यक्ति है। 

(1) कीर्तन में प्रथम क्रिया - स्मरण - इसमें चित्तिशक्ति का स्मरण किया जाता है, उनके नाम का श्रवण किया जाता है तथा उनका दर्शन भी किया जाता है। जैसे ही परमपुरुष स्मरण किया जाता वे वहाँ उपस्थित हो जाते हैं तथा उस समय भक्त उन्हें केन्द्र बनाकर उसके चारों ओर परिक्रमण करता है अथवा उनकी धुरी पर स्वयं को स्थापित कर धूमने लगता है। परिक्रमण गति एवं घूर्णन गति में घूमने में एक दिशा नहीं होती है। प्रथम में वामावर्त तथा द्वितीय दक्षिणावर्त घूमना आरंभ करता है। इसलिए प्रथम अखंड कीर्तन तथा द्वितीय आवर्त कीर्तन कहते हैं। 

(१) वामावर्त कीर्तन - अखंड कीर्तन के समय साधक ब्रह्म केन्द्र के चारों परिक्रमण गति करता है। अखंड मंडल के आकार का होता है, तभी वह अखंड है। अतः इस प्रकार के कीर्तन में भक्त गति अखंड होती है। एक निश्चित समय के लिए इस गति में कोई खंडन नहीं होता है। यह निश्चित समयावधि कम से कम एक प्रहर की होना आवश्यक है। अधिक से अधिक की कोई सीमा नहीं है। इस कीर्तन में वामावर्त गति का कारण हृदय अधिक से अधिक अथवा सम्पूर्ण समय परमपुरुष की ओर रखना। यदि भक्त दिल से परमपुरुष नहीं जुड़ता है तो उसका कीर्तन अखंड नहीं होता है। वामावर्त घूमने में विज्ञान के अनुसार सरलता रहती है। जब मनुष्य भौतिकता की‌ आकृष्ट होता है उसकी स्वभाविक गति दक्षिणावर्त हो जाती है तथा वह लक्ष्य से दूर जाता है, इसके विपरीत आध्यात्मिकता की गतिमान साधक की स्वभाविक गति वामावर्त होती है तथा वह लक्ष्य की ओर आकृष्ट होता है। 

(२) आवर्त कीर्तन - अपनी धुरी पर घूमने से अपने चारों ओर आत्मिक शक्ति एवं आवरण सृष्ट होता है, आवर्त कहलाता है। इसमें वह अनुभव करता है कि परमपुरुष मेरे चारों ओर है। अतः स्वभाविक रुप वह दक्षिणावर्त घूर्णन करने लगता है। वह छ: दिशाओं में परमपुरुष के रस पाता है। इसलिए अपने हृदय जितना फैला सकता है। उसे फैलाकर रखना चाहता है। अतः उसकी गति दक्षिणावर्त होती है। इसके लिए कोई निश्चित काल अवधि नहीं है लेकिन सभी दिशा में समानता रखने की कोशिश करता है। 

(2) कीर्तन में द्वितीय क्रिया - श्रवण - स्मरण सस्वर होते ही गान होता है। गान का महत्व तब ही जब स्वयं भी उसका श्रवण करें, जब तक भक्त स्वयं श्रवण नहीं करता तब कीर्तन का वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता। अतः कीर्तन में श्रवण आवश्यक क्रिया है। श्रवण के लिए जितना अधिक जोर से गायन करेंगे उतना अधिक श्रवण अच्छा रहता है। लेकिन यहाँ किसी बाह्य यंत्र से कीर्तन की ध्वनि के वेग बढ़ाना स्वभाविक कीर्तन नहीं है इसलिए इसका श्रवण में महत्व नहीं है। अपने सस्वर कीर्तन से दूसरे सुनते हैं तो इसलिए स्वयं एवं दूसरे काल कल्याण ही है। कीर्तन की स्वभाविक धारा बिना यंत्र के ही अच्छी है। कीर्तन को संगीत मय बनाने के लिए वाद्ययंत्र सहारा लेते हैं लेकिन इसमें इसकी ध्वनि कीर्तन की ध्वनि से कम होना श्रवण के लिए अच्छा है। पहले कहा गया है कि यंत्र के माध्यम कीर्तन की ध्वनि बढ़ाना अस्वभाविक है, जो श्रवण के लिए आवश्यक नहीं है। 

(3) कीर्तन की तृतीय क्रिया - दर्शन‌ - इसमें साधक परमपुरुष के नित्यम्, शुद्धम्,निराभासम्, निराकार तथा निरंजन स्वरूप को देखता है। इसके लिए बाहरी दृष्टि से अधिक आन्तरिक दृष्टि का महत्व है। बिना दर्शन के कीर्तन रह नहीं सकता है। इसलिए उस समय ब्रह्म भाव रहना आवश्यक है अथवा भावातित  रहना आवश्यक है। ब्रह्म भाव में रहने से रसानुभूति होती है, जो आनन्ददायक होती है जबकि भावातित रहने रसानुभूति का अनुभव नहीं होता है जबकि प्रगति अवश्य होती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भावातित दर्शन में प्रगति दूर्तगति से होती है।

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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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