🌻मेरा एक अद्भूत स्वप्न 🌻
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मैं आज आचार्य स्वरुपानंद अवधूत की वह कहानी अपने मोबाइल पर सुन रहा था कि उनके द्वारा बाबा का चश्मा उतार देने पर बाबा कहते है कि मैं सुन्दर स्वप्न देख रहा था, तुने चश्मा उतार दिया इसलिए देख नहीं पाया। जब दादा के श्रीमुख से प्रथम बार सुनी तब तो लीलानंद की लीला का आनन्द लिया था, लेकिन इस बार कुछ विचारों में मन लग गया। जब मन पुनः यथास्थिति में आता इसके बीच एक अद्भूत स्वप्न ने मुझे बहुत रूलाया। उसके बाद मेरी अज्ञात में खोई चेतना तो वापस लौट आई लेकिन मैं असमान्य महसूस कर रहा हूँ। इसी बीच मैंने अपना फोन उठाया तथा स्वप्न को लिपिबद्ध करना शुरू किया लेकिन कभी कुछ भूल जाता कभी कुछ। ऐसा जीवन में पहली बार हो रहा था। यद्यपि मैं जब भी लिखता हूँ बहुत सारे शब्द छूट जाते हैं लेकिन इस स्वप्न के बाद जो हुआ, वह इससे पहले कभी नहीं हुआ। फोन को एक साइड में रखकर साधना में बैठ गया। साधना भी अच्छी नहीं हो रही थी कि बार-बार स्वप्न पर ध्यान जा रहा था। मैंने जैसे तैसे गुरु वंदना की एवं साष्टांग करते ही रोने लगा। मेरी इस दशा को कम से कम मैं तो नहीं पढ़ पा रहा था। मैंने मन को बहलाने के लिए आध्यात्मिक दुनिया दूर जाना उचित समझा तथा दधीचि भगत सिंह की फिल्म देखना शुरू किया क्योंकि मैं जानता था कि भगत सिंह मृत्यु के अन्तिम क्षण भी वाहेगुरु को याद नहीं करते हैं। उनके कार्यों का मैं हमेशा से प्रशंसक रहा हूँ लेकिन उनके काम तरीके से संतुष्ट नहीं रहा हूँ। उन्हें बहुत कुछ करना चाहिए था क्योंकि उनमें भारत के प्रति अपनी सोच थी, जो उनके आंदोलन को संभवतया आर्थिक आजादी की ओर जा सकती थी। लेकिन उनकी गिरफ्तारी उन्हें महान तो बना दिया मगर लक्ष्य प्राप्ति से दूर ले गया। भले वे हसते हसते फांसी पर चढ़ गए लेकिन उनके उद्देश्य को तीन तेरह कर दिया। जैसा कि मैंने सोचा वैसा ही हुआ, अब मन सामान्य था। आज मैं उस स्वप्न को लिपिबद्ध करता हूँ। इससे पहले मैं एक बात बता देना चाहूंगा कि मैं मोबाइल पर कहानी सुनने के बाद जिस चिन्तन में खो गया था, उस समय से चेतना में लौटने तक की यात्रा में मेरे चश्मा लगाया हुआ था, संयोगवश मेरे धर्म पत्नी ने मुझे सोया समझकर ऐनक उतार कर साइड में रखा जिसे मैं ख्याल दुनिया से बाहर आ गया। लेकिन बार-बार उसी स्वप्न पर ध्यान जा रहा था। मैंने देखा कि आनन्द मार्ग के स्थापना से पूर्व एवं उसके बाद तक एक मुद्रा आनन्द मार्ग में आनन्द मार्ग के पूरे अभियान को लेकर चल रही थी वह तारकब्रह्म वराभय मुद्रा। बीच बीच में जानुस्पर्श मुद्रा आकर कार्य को ओर अधिक आनन्दित बना रही थी। आचार्य प्रणय दादा से लेकर मेरे तक सभी आनन्द मार्गी मात्र अपने दैनिक कार्य में लगे हुए हैं। मात्र चारों ओर वराभय मुद्रा धारी तारकब्रह्म ही क्रियाशील है। वे कभी किसी के गुरु चक्र में जाकर उनके शरीर से काम कराती है तो कभी किसी ओर के। कोई उस वराभय मुद्रा के कारण बड़ा अद्भूत व्याख्यान कर रहा है तो कोई बड़े-बड़े लेख लिख रहा है। मुझे इस स्वप्न ओर कोई दिखाई नहीं दे रहा था मात्र वराभय मुद्रा ही दिख रही है। कहीं बार तो अविद्या एवं विद्या के वशीभूत होकर गुरु भाई बहिनों लडते देखता हूँ लेकिन उसमें भी वराभय मुद्रा का ही दिव्य रसास्वादन हो रहा था। जानुस्पर्श मुद्रा जब भी उस घटना क्रम में प्रवेश करती तब गुरुदेव का अलौकिक रूप दिखने लगता था। मैं तो उस समय था ही नहीं जो इस को लेकर कोई प्रश्न करता कि ऐसा क्यों? मैं तो एक यंत्र था, जिस वह देखना है जो मुझे स्वप्न दिखा रहा है। मैं यह भी नहीं बता सकता हूँ कि मैं निंद्रा में था अथवा तंद्रा में अथवा चिन्तन में। निश्चित रूप मैं अपनी दुनिया में नहीं था। यह कोई अद्भूत दुनिया ही थी हो सकता है कि बर्बरीक के सुदर्शन चक्र के घूमने वाली घटना का चिन्तन पर डाला गया प्रभाव हो अथवा मेरे अवचेतन मन में पड़ी कोई धारणा का पुनः उद्भव था। लेकिन इस स्वप्न ने मुझे हिला दिया। मैं यह भी नहीं जानता हूँ कि यह स्वप्न था अथवा ख्याल अथवा मेरे अवचेतन मन की कल्पना का सागर। लेकिन जो भी कुछ हो इसने मुझे असामान्य कर दिया था। एकबार मैंने सोचा कि मैं यह किसी के साथ शेयर नहीं करूँगा लेकिन इस यादी में रखने के लिए अपने ब्लॉग में प्रकाशित करके रख दूंगा। लेकिन दूसरे ही पल विचार आता है कि इस पर अपने गुरु भाइयों को सलाह एवं आचार्य गण से दिशा निर्देश तो ले लू। लेकिन इसी द्वंद में मैं जीत गया तथा उसे अपने ब्लॉग में ही सजा कर रख दिया। यद्यपि प्रकाशन के साथ बात पब्लिक की हो जाती है लेकिन मैं इसे किसी को इसकी लिंक शेयर नहीं करूँगा। अतः यह बात तकनीकी दुनिया में ही दबकर रह जाएगी। यह सब मंथन कर आज प्रकाशित करता हूँ। साथ एक वैधानिक चेतावनी लिखता हूँ कि यह मात्र एक प्रसंग उद्भव एक स्वप्न मात्र था जो ख्याल अथवा अवचेतन अथवा अचेतन मन का चिन्तन भी हो सकता है। जो इस घटना के स्पर्श मात्र से चेतन हो गया हो। अतः इसे अनुभूति, चमत्कार अथवा दिव्य लीला न माना जाए। यदि हो सके तो आप इसे मेरा भ्रम ही मान ले अथवा मेरी धारणा मात्र मान ले। हमें तो एक ही काम करना है बाबा का नहीं बाबा के आदर्श का प्रचार करना है, शेष वे जाने उनका मिशन कब पूरा होता है। मैं यह भी नहीं कहता हूँ कि जो हो रहा है उसे होने दे अथवा नहीं होने दे। मात्र हमें बाबा के आदर्श का प्रचार प्रसार करना बांकी वराभय एवं जानुस्पर्श मुद्रा की शक्ति स्पंदन से होता है। ऐसा मेरा मानना है।
नमस्कार
आपका भाई
[श्री] आनन्द किरण "देव"
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