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[श्री] आनन्द किरण "देव" की कलम से
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मनुष्य स्वाभाविक से सात्विक शाकाहारी है। परिस्थिति एवं मजबूरी उसे मांसाहार की ओर ले चलती है। जब मनुष्य प्रथम बार मांस का सेवन करता है तो उसे स्वभाविक नहीं लगता है लेकिन मांसाहार में अभ्यस्त होने पर वह ठीक उसी प्रकार मांसाहार के प्रति अपने लालसा प्रकट करता जैसा नशे का अभ्यस्त करता है। मनुष्य के इस अस्वभाविका आहार में लिप्त समुदाय ने मांसाहार को लेकर एक ज्ञान विज्ञान एवं दर्शन तैयार किया है। इसमें धर्म को भी घसीट लिया है। आज कई मजहबीय समुदाय में मांसाहार धर्म सहमत स्थान प्राप्त है। यह कुरबानी अथवा बलि इत्यादि नाम से उन समुदाय में विद्यमान है तथा इसके माध्यम से वे इस भोजन को दैविक भोजन बताते का अविवेक भी प्रचारित करते हैं। इसलिए आज का विषय बलि प्रथा एवं धर्म मिला है।
मांसाहार को मनुष्य का स्वाभाविक आहार बताने के लिए विज्ञान ने कील दांत (canine teeth) का सहारा लिया है तथा इन्हें मांसाहारी प्राणी होने के प्रमाण के रूप में पेश किया है। लेकिन विज्ञान के विशेष अध्ययन ने बताया है कि कतिपय वानर प्रजाति में भी यह दांत पाए जाते है लेकिन वे स्वभाव से शाकाहारी है। अतः कील दांत के बल पर ही मनुष्य को मांसाहार का स्वाभाव होना प्रमाणित करता अपूर्ण तर्क है। चूंकि आज यह हमारा विषय नहीं है इसलिए इस अधिक चर्चा न करके धर्म के नाम पर निरीह पशु अथवा असहाय मानव को बलि की वेदी पर चढ़ाने वाली कुयुक्ति को समझते है।
भगवान अथवा कोई दैविक सत्ता कभी भी बलि अथवा कुरबानी की मांग नहीं करते हैं। क्योंकि भगवान नामक शब्द के अर्थ में अथवा दैविक सत्ता नामक गुणधर्म में यह कृत्य शामिल नहीं है। यह मात्र धूर्त मजहबियों द्वारा चलाई गई एक अविद्या है। जिसको दैविक सत्ता का नाम से चलाना धर्म व्यवसायियों का गोरखधंधा बढ़ाना है।
अब बलि नामक शब्द पर गौर करते हैं। बलि को कुरबानी नामक अरबी फारसी शब्द के समानार्थ लिया गया है। कुरबानी शब्द का अर्थ किसी उद्देश्य विशेष के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना कुरबानी है। इसके अर्थ शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सभी प्रकार के त्याग समाहित हैं। उन्हें तप साधना में स्थान दिया गया है। बलि से बलिदान शब्द बनता है अर्थात बलिदान से बलि को समझने की कोशिश करते हैं। सार्वजनिक हित के समक्ष निजी हित को त्यागना ही बलिदान है। इन दोनों में प्राण त्यागना भी वर्जित नहीं हैं। लेकिन मांसाहार के प्रति अपनी लालसा के नाम पर दैविक सत्ता को घसीटना अविवेक पूर्ण है। बलि, बलिदान अथवा कुरबानी एक सच्चा त्याग था लेकिन धर्म व्यवसायियों ने इसे मलिन कर दिया है। परमसत्ता कभी भी रक्त के प्यासे नहीं है। इनके नाम पर किसी काल्पनिक देव देवी का चित्रण कर रक्त पिपासू दिखाना मानवोचित कार्य नहीं है। यह कार्य निश्चित दानवोचित है। अविद्या तंत्र तांत्रिकों द्वारा इस प्रकार की कुप्रथा का प्रचलन किया गया। जिसकी घोर आलोचना ही नहीं इसको महापाप तथा शैतानोचित कार्य घोषित करना चाहिए। सरकार ने अच्छा किया कि बलि प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया मगर ईदुल जुआ की कुरबानी को भी गैर कानूनी ही बताना चाहिए। मासांहारी वर्ग की आस्था एवं धर्म के नाम किसी भी प्रकार की करतूत अधर्म है। जहाँ अधर्म वहाँ धर्म नहीं है तथा जहाँ धर्म नहीं वहाँ परमपिता नहीं रह सकते हैं।
धर्म किसी सत्ता का वह निजी गुण है, जिसके कारण उस सत्ता का अस्तित्व निर्धारित होता है। धृ धातु के मन प्रत्यय लगने से धर्म शब्द बना है, जो धारण करने के शाब्दिक अर्थ को इंगित करता है तथा एक प्रश्न छोड़ देता है कि क्या धारण करना? इसका उत्तर ही धर्म शब्द की परिभाषा देती है। मनुष्य का धर्म वृहद एषणा बताया गया है। जीवात्मा से परमात्मा बनना तथा जीव से शिव बनना धर्म का पथ है। इस धर्म के पथ अवांछित धारणाओं का कोई स्थान नहीं है। मजहबीय धारणा, रिलिजन उक्तियाँ एवं साम्प्रदायिक सोच से धर्म नहीं चलता है। धर्म नव्य मानवतावादी सोच एवं आनन्द मार्ग दर्शन से चलता है। धर्म सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय प्रचारित प्रगतिशील उपयोग तत्व में निवास करता है। इससे कम किसी भी प्रकार की विचारधारा में धर्म देखना अपूर्ण युक्ति है। यदि कोई युक्ति धर्म को साकारात्मक पथ पर लेक्षचलती है तो समर्थन कर सकते हैं लेकिन धर्म के नाम नकारात्मक दुनिया में ले जाना वाली किसी कोई भी युक्ति अनुपयुक्त है। बलि प्रथा इसी प्रकार एक उक्ति जिसका धर्म से कोई संबंध नहीं है।
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