यज्ञ, सेवा एवं ऋण


आध्यात्मिक यात्री के लिए यज्ञ व सेवा करने का प्रावधान है तथा ऋण जिनका परिशोध नहीं हो सकता है। भी उल्लेख है। 

आध्यात्मिक यात्रा एवं कर्मयज्ञ एवं बंधन मुक्ति का पथ इसलिए कर्तव्य कर्म का निवहन के बंधन मुक्ति के कार्य भी कर्तव्य मानकर करने चाहिए। 

            यज्ञ
यज्ञ शब्द का मूल अर्थ कर्तव्य कर्म है। वे कर्म एक मनुष्य के रुप जन्म लेने के कारण अवश्य करना चाहिए। यज्ञ को तप का अंग माना गया है। उपवास, गुरु सेवा एवं माता पिता की सेवा के साथ चार प्रकार यज्ञ को तप में स्थान दिया गया है। 

(१) पितृयज्ञ - पूर्व पुरूषों, पूर्वजों, ऋषि (वैज्ञानिक) व मुनि (दार्शनिक) उपकारी (देव) के प्रति आदर, श्रद्धा एवं सम्मान अर्पित करने को पितृयज्ञ नाम दिया गया है। उनकी देने एवं सहयोग ने हमारे जीवन को आसान बनाया है, इसलिए उन्हें सद्भाव अर्थात ब्रह्म भाव  अर्पित करना पितृयज्ञ है‌। पितृयज्ञ में अर्पणकर्ता, अर्पित वस्तु, अर्पणक्रिया तथा जिसको अर्पण किया जाता है। सबको ब्रह्म रुप में देखा जाता है। इस प्रकार ब्रह्म द्वारा निधिष्ठ कर्म संपादित कर ब्रह्म में जाने का संकल्प लिया जाता है। पूर्वजन एवं आदरणीय जन की देने को ब्रह्म वरदान मानकर जिना ही पितृयज्ञ है। 

(२) नृयज्ञ - समस्त मानव जाति में नारायण का रुप देखकर नारायण सेवा करने का नाम नृयज्ञ है। सेवा योग्य को 
निष्काम भाव से सेवा प्रदान करने को ही नारायण सेवा अथवा नृयज्ञ कहते हैं। 

(३) भूतयज्ञ : - जड़ व चेतन, जागम व स्थावर की सेवा का नाम भूतयज्ञ है। 

(४) आध्यात्म यज्ञ : - आध्यात्मिक कर्म को ब्रह्म भाव से निष्पादित करने का नाम आध्यात्म यज्ञ है। 

            ऋण
ऋण का अर्थ है किसी का उपकारी बनना तथा उपकारी के प्रति आदर सत्कार तथा सहयोग, सहानुभूति रखना तथा आवश्यक महसूस होने सभी की सेवा के लिए तैयार रहना ऋण मुक्ति का उपाय बताया गया है। लेकिन चार ऐसे ऋण है, जिन्हें चुकाया नहीं जा सकता है। 

(१) पितृऋण 
(२) मातृऋण
(३) आचार्य ऋण
(४) गुरु ऋण (देव ऋण) 

पिता की सेवा एवं उसके अभाव समस्त पुरुष जाति को सतपथ पर ले चलना पितृ सेवा, माता की सेवा एवं उसके अभाव समस्त मातृ जाति को सतपथ पर ले चलना माता सेवा मानी गई है, आचार्य के परिवार का ध्यान रखना आचार्य की तथा गुरु द्वारा निधिष्ठ कर्म करना देव ऋण के परिशोधन का उपाय है। 

              सेवा
शरीर से सेवा शूद्रोचित्त, अर्थ से  सेवा वैश्योचित्त, बाहुबल द्वारा रक्षा तथा संरक्षण करना क्षत्रियोचित्त तथा ज्ञान विज्ञान के द्वारा समझा कर सतपथ पर ले चलना विप्रोचित्त सेवा है। इस प्रकार इन चार प्रकार से सेवा करते रहना मानवीय दायित्व है। 

आध्यात्मिक यात्री के लिए इनको मानकर चलना होता है। ब्राह्मण पुरोहितवाद से मानवजाति को मुक्त कराना एक आध्यात्मिक क्रांति है।
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