संस्कृति एवं समाज


श्री आनन्द किरण "देव" की कलम तथा संस्कृति एवं समाज की एक समझ

आध्यात्मिक जगत में एक जीवन अभुक्त कर्म को दूसरे जीवन के लिए संस्कार बन जाते है। जबकि लौकिक जगत में संस्कार शब्द बड़ो द्वारा छोटों को स्थानांतरित किये गए गुणों को भी कहाँ गया है। संस्कार के आगे लगने वाला सु तथा कु उपसर्ग व्यक्ति के चरित्र का मूल्यांकन करता है। वस्तुत: संस्कार निरपेक्ष शब्द है लेकिन संस्कार को अच्छी आदत व सदगुण के रुप में बताया गया है। व्यष्टि व्यष्टि के संस्कार अर्थात सदगुण, जब समष्टि पटल में दिखाई देने लग जाते है तो उसे संस्कृति नाम दिया जाता है। संस्कृति को सु कृति कहते है - सु माने अच्छा अथवा अच्छी तथा कृति माने निर्मित अथवा रचित आकृति अर्थात वह शक्ति जो व्यष्टि व समष्टि को सुन्दर एवं सुशील आकार देती है, संस्कृति जिसका निर्माण होता है, उसे समाज नाम दिया जाता है। अत: समाज ही संस्कृति का वाहक तथा आश्रय स्थल है। संस्कृति की अभिव्यक्ति भाषा से होती है। अत: भाषा व संस्कृति में अटूट संबंध है। जहाँ यह संबंध टूट जाता है; वहाँ संस्कृति, सभ्यता बनकर इतिहास का हिस्सा बन जाता है। व्यष्टि व समष्टि की भाषा देखकर उसकी संस्कृति का आंकलन किया जा सकता है। यद्यपि संस्कृति की कोख में एक भाषा होती है तथापि भाषा ही संस्कृति के दर्शन कराती है। भाषा शाब्दिक अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, यह हावभाव एवं भावना की अभिव्यक्ति भी है। अत: मनाव समाज निर्माताओं सर्वप्रथम भाषा के संरक्षण एवं विकास की कार्य योजना लेनी चाहिए। जैसे जैसे यह कार्य आगे बढ़ता जाएगा वैसे वैसे संस्कृति का निखरता स्वरूप दिखाई देगा। संस्कृति शब्द में भाषा के साथ व्यवहार का भी समिश्रण होता है। इसलिए कहा गया है कि भाषा एवं व्यवहार दोनों समानांतर चलने वाली क्रियाएँ है। एक में गड़बड़ी आते ही दूसरी प्रभावित होती है। अत: सुसंस्कृत व्यक्ति को भाषा एवं व्यवहार दोनों को व्यवस्थित रखकर चलना होता है। इस सुसंस्कृत व्यक्ति को समाज देव/देवी की उपमा देता है। अत: सिद्ध होता है कि समाज एवं संस्कृति में घनिष्ठ संबंध है। 'जहाँ समाज है, वहाँ संस्कृति तथा जहाँ संस्कृति है, वहाँ समाज है', यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है। 

संस्कृति एवं समाज में मधुर संबंध स्पष्ट हो जाने के बाद संस्कृति से समाज का निर्माण कैसे होता है तथा समाज में संस्कृति को प्रकट करने वाले कौन-कौनसी विधा उपस्थित हैं को समझना आवश्यक हो जाता है। हम समाज में संस्कृति की विधाओं के माध्यम से संस्कृति तथा समाज को समझने का प्रयास करते है। 

(1) कहानी - संस्कृति की सबसे सरल एवं सुगम विधा का नाम कहानी है। जब भी समाज का निर्माण का कार्य हाथ में लिया जाता है तब समाज के इतिहास के उन नायक एवं महानायकों की कहानी एवं जीवनवृत्त समाज के समक्ष पेश किया जाता है, जिससे प्रेरणा लेकर समाज व्यक्तित्व निर्माण सहज ही किया जा सकता है। यह कहानी स्थानीय भाषा में तथा स्थानीय पात्र की होने पर अपनत्व भावना सृष्टि होती तथा व्यक्ति सहज की आकृष्ट होता है। स्थानीय इतिहास का कोई पात्र नहीं मिले तो स्थानीय जगह को चित्रित करते हुए काल्पनिक पात्र के माध्यम से समाज को प्ररेणा देने का कार्य सिद्ध किया जा सकता है। जैसा कि अवध के इतिहास में रामायण का स्थानीय क्षेत्र चित्रित करके रचित किया गया। जिसने भारतवर्ष को उत्तर से दक्षिण जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चूंकि समाज गतिशील तत्वों का समूह है इसलिए समय के अनुसार कहानी को आधुनिक किया जाना आवश्यक तथा नई नई कहानियों को बनाना भी आवश्यक है। 

(2) गीत-संगीत - कहानी के बाद स्थानीय संस्कृति एवं कला को निखारने वाली गीत-संगीत का स्थान आता है। काव्यात्मक शैली से भावात्मक एकता को सृजित करने में गीत-संगीत का महत्व स्थान रहता है। स्थानीय भाषा में स्थानीय संस्कृति को इंगित करते प्रगतिशील उपयोग तत्व को प्रकाशित करते गीतों की रचना समाज के नव निर्माण में गुरुत्व पूर्ण भूमिका का निवहन करती है। 

(3). कवि एवं काव्य गोष्ठी - संस्कृति एवं समाज के संबंध को प्रगाढ़ करने वाला तीसरा तत्व स्थानीय कवि तथा काव्य गोष्ठी है। एक काव्य गोष्ठी जब प्रगतिशील उपयोग तत्व को संवारने लगती है तो वीररस से नागरिकों की मन सिंचित होती है, श्रृंगार रस से उनकी मानस तत्व सृजित होता है, हास्य रस से मस्तिष्क खिलखिलाने लगता है तथा स्थानीय धरा के सपुत अपनी धरा को संवारने के आगे आते हैं। 

(4). नाट्य एवं अभिनय - लेखन व श्रुति की शक्ति का प्रगतिशील उपयोग तत्व में उपयोग के दृश्य शक्ति का उपयोग करने की बारी आती है। जो कहानियों प्रेरक श्रोत के रुप समाज पटल पर रखी गई थी, उन्हें एकांकी, अभिनय, समग्र नाट्य तथा जीवन लीला के रुप में समाज के पटल लाने वाली विधा समाज को संस्कृति से तथा संस्कृति को समाज से सज्जाती है। 

(5) साहित्यकार एवं लेखन शक्ति - समाज व संस्कृति की एकरूपता दर्शाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन स्थानीय लेखक तथा साहित्यकार करेंगे। उनकी लेखनी समाज के सांस्कृतिक अभियान में क्रांति को फूँकने का काम करेंगी। इसलिए संस्कृति व समाज को इनका भी उपयोग करना चाहिए। 

(6) मीडिया - मीडिया संस्कृति के मूल्यों का अतिक्रमण करता है तो समाज भ्रष्ट हो जाता है तथा इसके विपरीत संस्कृति की मर्यादा में मीडिया चलता है तो समाज प्रगतिशील उपयोग तत्व की राह पर निकल जाता है। इसलिए मीडिया को समाज के अनुशासन में स्वायत्तता देते हुए काम करने देना चाहिए। उन्हें प्रगतिशील उपयोग तत्व को आगे बढ़ाने की महत्वपूर्ण को लेकर आगे चलना चाहिए। 

समाज व संस्कृति के अध्याय का अंतिम बिन्दु सांस्कृतिक समाज है। जिस प्रकार संगीत की पहचान घरानों में निहित है, उसी प्रकार संस्कृति की पहचान से समाज है। अत: समाज के संगठन का पहला अभियान सांस्कृतिक जागरण है। सांस्कृतिक जागरण की आधारशिला सदैव नव्यमानवतावाद तथा वैश्विक एकता है। एक अखंड तथा अविभाज्य मानव समाज ही संस्कृति एवं समाज को संरक्षित कर सकता है। वहाँ सिर्फ परमपुरुष मेरे पिता है, परमाप्रकृति मेरी माता है, त्रिभुवन मेरा स्वदेश का भाव रहता है। यह भाव बिना आध्यात्म के संभव नहीं है इसलिए आध्यात्मिक संस्कृति के मूल प्रतिष्ठित करके ही सांस्कृतिक जागरण को शुरू करना चाहिए अन्यथा सांस्कृतिक भाव जड़ता में समाविष्ट हो जाता है। 

संस्कृति - मजहब, जाति एवं रिलिजन नहीं व संस्कृति क्षेत्र,नस्ल, रंग तथा लिंग भेद नहीं है। संस्कृति है मानव के व्यवहार तथा आचरण की विधा, जिसपर देश, काल व स्थान का प्रभाव पड़ता है, जिसे समझ कर आगे बढ़ना चाहिए। 

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श्री आनन्द किरण "देव"
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