वर्ण प्रधान समाज चक्र ( Varn Pradhan Samaj chakra)

🪞 *वर्ण प्रधान चक्र*🪞
        (प्रउत दर्शन से) 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने मानव की कार्य क्षमता को चार वर्ण में विभाजित कर वर्ण व्यवस्था का प्रतिपादन किया था। आधुनिक युग के महान दार्शनिक एवं युगपुरुष श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने 1 जनवरी 1955 ईस्वी में दिये अपने पंजीकृत प्रथम प्रवचन में समाज का क्रमिक विकास समझाते हुए बताया कि समाज क्रमशः शूद्र युग, क्षत्रिय युग, विप्र युग तथा वैश्य युग के रुप में विकसित होता है। कालांतर में उन्होंने आनन्द मार्ग दर्शन की प्रमाणित पुस्तक आनन्द सूत्रम की रचना की तो उसके पंचम अध्याय में प्रउत दर्शन के प्रथम सूत्र में वर्ण प्रधान समाज चक्र का उल्लेख किया। समाज चक्र के अनुसार समाज की व्यवस्था शूद्र, क्षत्रिय, विप्र, वैश्य तथा पुनः शूद्र युग के एक निश्चित क्रम निरंतर घुमता रहता है। प्रउत दर्शन बताता है कि युग विशेष में संबंधित वर्ण की प्रधानता रहती है। अत: इतिहास वह युग उसके नाम पर लिख देता है। यदि यह एक ऐतिहासिक घटना मात्र होती तो उनके अनुसंधान को ऐतिहासिक साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित कर भावी पीढ़ी को संतुष्ट कर लेते लेकिन समाज चक्र के रुप में अनवरत घूमता रहेगा अर्थात भविष्य में इस प्रकार इतिहास बनता रहेगा का दावा, प्राउटिस्ट को वर्ण प्रधान समाज चक्र को गहनता से समझने की मांग करता है। 

आज के युग में जातिव्यवस्था दोषपूर्ण हो गई है तथा आनन्द मार्ग के गुरु श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने जाति व्यवस्था का संपूर्ण उन्मूलन किया है, फिर उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित प्रउत दर्शन में वर्ण प्रधान समाज चक्र होना अवश्य ही अनुसंधान की मांग करता है क्योंकि भारतीय समाज शास्त्र में जाति का विकास वर्ण व्यवस्था से बताया गया है। जाति व्यवस्था विश्व में सभी जगह अलग अलग रुप में पाईं गईं है; अतः जातिव्यवस्था का विकास वर्ण व्यवस्था से बताना गलत सिद्धांत की पुष्टि करना है। हमारा विषय वर्ण व्यवस्था की पुष्टि करना नहीं है; इसलिए इसकी गहराई में नहीं जाते हैं। हमें वर्ण प्रधान चक्र को समझना है। वर्ण व्यवस्था आर्थिक जगत की संपदा है जबकि जाति व्यवस्था सामाजिक जगत की संपदा है। अत: प्रथम स्तर पर ही प्रउत दर्शन, आनन्द मार्ग के जातपात की विदाई की घोषणा का विरोध नहीं करता है। अर्थात इनमें किसी भी प्रकार का विरोधाभास नहीं है। 

वर्ण व्यक्ति की कार्य क्षमता का एक वर्ग है। अर्थात आर्थिक व्यवस्था में कार्य विभाजन का एक सूत्र है। जिसके आधुनिक नाम पद एवं पेश के आधार पर किये गये है लेकिन गहन अनुसंधान बताता है कि कार्य विभाजन का यह विज्ञान अन्ततोगत्वा चार वर्ण में ही समा जाता है। यद्यपि यह सत्य है कि कार्य के आधार जातियाँ भी बनी है लेकिन इसका विकास वर्ण व्यवस्था में मान लेना दोष पूर्ण अध्ययन है क्योंकि कि वर्ण व्यवस्था कर्म तथा जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित है। वर्ण व्यवस्था व्यक्ति तक ही सीमित रहती है जबकि जाति व्यवस्था का संबंध पीढ़ी दर पीढ़ी से है। वर्ण प्रधान चक्र को समझने के क्रम में बार बार जाति तथा वर्ण व्यवस्था नामक शब्दों का सामना होता है। अत: हम विषय से दूर न हटकर विषय पर ही ध्यान केंद्रित करते है। प्राचीन भारतीय मनोवैज्ञानिक ने बताया कि मनुष्य में शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक नाम तीन संभावना होती है। शारीरिक शक्ति का उपयोग व्यक्ति मात्र सेवा करने में ही कर सकता है तब उसे शूद्र श्रेणी में रखा जाता है। यहाँ शारीरिक शक्ति मात्र व्यक्ति आहर, निंद्रा, भय, मैथुन्य इत्यादि तक ही सीमित है। यहाँ मानसिक विकास भी कम देखा गया है। मन पूर्ण रूप शारीरिक क्रियाकलाप में लिप्त है। जहाँ शारीरिक शक्ति साहसिक कार्य में बदल जाती है तब क्षत्रिय श्रेणी में आ जाता है। यद्यपि शूद्र तथा क्षत्रिय दोनों ही श्रेणियाँ शारीरिक शक्ति केन्द्रित है तथापि शूद्र की अपेक्षा क्षत्रिय में बौद्धिक विकास अधिक देखा जाता है। यद्यपि यह सत्य है कि वह अपने सभी क्रियाकलाप शारीरिक बल पर करता है। तथापि कई क्षेत्र में मानस शक्ति का भी उपयोग करता है। अत: विकास के आगामी क्रम में मानस शक्ति उपयोग करने वाली श्रेणी को लिया जाता है। पुनः शारीरिक शक्ति नामक विकास के प्रथम क्षेत्र की ओर चलते हैं। शारीरिक शक्ति जैव धर्म के अनुसार प्रथम प्रधान रहती है। शारीरिक शक्ति में साहस के विकास से पूर्व की अवस्था का पहला स्थान है। यहाँ व्यक्ति अपने जीवन को जोखिम में डालने से बसता क्योंकि जीवन को अधिक मूल्यवान समझता है इसलिए दूसरों की छत्रछाया की खोज करता है। इसलिए समाज चक्र का प्रथम पायदान में शूद्र को स्थान दिया गया है। चूंकि क्षत्रियत्व का संबंध शारीरिक संभावना से है लेकिन यहाँ जीवन जोखिम में डाला जाता है इसलिए वह दूसरों की छत्रछाया त्याग कर स्वयं के दम पर इतिहास लिखने की क्षमता रखता है; अत: समाज चक्र दूसरे पायदान पर क्षत्रिय को रखा गया है। 

मनुष्य में साहसिक शक्ति का विकास, मानसिक विकास के द्वार खोलता है। मानसिक शक्ति का प्रथम कर्म ज्ञान विज्ञान में मनुष्य को प्रतिष्ठित करना होता है। मनुष्य इस क्षेत्र में नई बाते सिखता तथा उसका विकास करता है इसलिए लिए ज्ञान विज्ञान का कार्य करने वाली श्रेणी विप्र को समाज चक्र के तीसरे पायदान रखा गया है। व्यक्ति अपने ज्ञान को प्रचारित करना भी चाहता है इसलिए अध्यापन व्यवसाय करता है। ज्ञान विज्ञान का कार्य करते करते व्यक्ति के मन में संपदा पर अधिकार करने का भाव जागृत होता है। वह विषय के साथ जुड़ जाता है। मानसिक शक्ति का उपयोग विषय के साथ करने वाली श्रेणी को वैश्य नाम दिया गया है। वैश्य को समाज चक्र में चतुर्थ पायदान पर रखें है। विषय के साथ संयुक्त होते होते मन की जड़ात्मक गति की संभावना अधिक होती यदि उसका लक्ष्य आध्यात्मिकता न हो। अत: वैश्य वृत्ति शूद्र में परिणत हो जाती है। जहाँ से मानव मनिषा गति आरंभ हुई, वही आ जाती है। अत: समाज चक्र वैश्य युग के बाद विक्षुब्ध शूद्र क्रांति के बाद पुनः घुमने लगता है।

वर्ण प्रधान समाज चक्र का अध्ययन करते समय एक व्यक्ति में वर्ण के विकास के एक निश्चित व क्रमिक विज्ञान प्राप्त हुआ। जो निम्नानुसार है। 

(A) शारीरिक क्रिया का वस्तु जगत में उपयोग करने वाले वर्ण - श से शरीर प्रधान
( 1.) शूद्र वर्ण
( 2.) क्षत्रिय वर्ण 

( B.) मानसिक क्रिया का वस्तु जगत में उपयोग करने वाले वर्ण - व विचार प्रधान

( 3.) विप्र वर्ण
( 5.) वैश्य वर्ण

समाज चक्र का उपरोक्त क्रम निश्चित है। समाज चक्र की समझ नहीं रखने वाले वर्ण व्यवस्था को पढ़ाते समय यह विप्र, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के क्रम में वर्ण को जमाकर समझाने की कोशिश करते हैं। इसका एक तथ्य यह कि समाज को एक पुरुष के रूप में चित्रित करने वाली शास्त्र की छवि की गलत व्याख्या का परिणाम है। समाज को एक विराट पुरुष के रूप में रखकर शास्त्र विप्र को सिर, क्षत्रिय को हाथ, वैश्य को पेट तथा शूद्र को पैर के रूप में दर्शाता है। इसकी सही व्याख्या पैर, हाथ, सिर व पेट है। सिर, हाथ, पेट व पैर सहीं क्रम नहीं है। सजीवता के विज्ञान में सबसे अधिक सजीव पेट है। यही शेष शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है। इसके बिना शेष शरीर एक क्षण के लिए भी रह सकता है। कुछ मनोवैज्ञानिक सिर में चेतना का अधिक विकास देखकर सिर को सजीवता में सबसे उपर रख देते है, जो एक भूल है। यह बात सत्य है कि शरीर का संतुलन में सिर की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेकिन सिर काम करना बंद करने पर भी शेष शरीर काम कर सकता है। इतिहास के पन्नों में 'सिर कटे धड़ लड़े' की घटना अवश्य ही पढ़ी है। वह सिर से धड़ को सजीवता में प्रथम स्थान पर रखती है। इस प्रकार सजीवता के क्रम में पेट, सिर, हाथ तथा पैर का आता है, चूंकि निर्जीव से सजीव का विकास होता है इसलिए वर्ण विज्ञान का क्रम शूद्र, क्षत्रिय, विप्र व वैश्य है। दार्शनिक शास्वत सत्य है कि निर्जीव चेतन से आया है। लेकिन जीवन जड़ से विकसित हुआ
है, यह भी सत्य है। इस रहस्य को समझने के लिए समाज चक्र का प्राण केन्द्र सदविप्र में अध्ययन करेंगे। समाज चक्र में वर्ण निश्चित रहने के विज्ञान है। 

समाज चक्र में वर्ण प्रधानता का अध्ययन की ओर चलते है। एक व्यक्ति में शूद्र, क्षत्रिय, विप्र व वैश्यत्व के सभी गुण विद्यमान होने पर भी एक प्रधानता रहती है, यह प्राकृत विज्ञान है। जिसे कोई नहीं झुठला सकता है। उसी प्रकार समष्टि जगत में भी किसी समय विशेष में इस प्रकार की श्रेणियों प्रधानता स्पष्ट देखी जा सकती है। कॉल मार्क्स के इतिहास की भौतिक अवस्था की व्याख्या आदिम साम्यवाद युग, दासत्व युग, सामंत युग, पूंजीवाद युग तथा समाजवाद युग के रूप में पांच अवस्थाओं में बताई गई थी। यहाँ एक चक्र का निर्माण करने से मार्क्स चूक गए। मार्क्स के व्याख्या की ऐतिहासिक अवस्था में प्रथम अवस्था आदिम साम्यवाद तथा तथा पंचम अवस्था समाजवाद लगभग एक है। लेकिन यहाँ उसने अलग चित्रित करने भूल ही समाज चक्र नहीं दे पाया। वस्तु आदिम साम्यवाद तथा सर्वाहारा का अधिनायकतंत्र जिसे वह समाजवाद साम्यवाद में दिखाया है जो दोनों एक ही है। जो प्रउत के शूद्र युग के समान है। दासत्व क्षत्रिय युग, सामंतवाद विप्र युग तथा पूंजीवाद वैश्य युग है। सामंतवाद को क्षत्रिय कहना एक ऐतिहासिक भूल है। यह बिशप, योद्धा इत्यादि वीरोचित कार्य करने वाले विप्रों की श्रेणी है, जो शारीरिक से अधिक बौद्धिक शक्ति से शोषण करते थे। वे रिलिजन की बौद्धिक घोषणा के बल पर दिल्लीश्वर इति जगदीश्वर बने थे। यहाँ शारीरिक शक्ति को प्रश्रय बौद्धिक शक्ति देती थी इसलिए ही तो वृद्ध राजा जवान योद्धा को नियंत्रित करता था। हम काल मार्क्स सत्य सिद्ध करने नहीं आये है मात्र प्रउत समाज चक्र की अवस्था को दार्शनिक प्रमाण के लिए आये थे। 

मानव सभ्यता एवं पृथ्वी का इतिहास बता है कि प्रउत का समाज चक्र शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य के क्रम में ही घूमा है। इस क्षेत्र में आदरणीय श्री रवि बत्रा जी तथा अन्य कई प्रउत शास्त्रियों ने काम किया है इसलिए दोहराना उचित नहीं समझता हूँ। मेरी रचना संभूतियों में विश्व इतिहास तथा मारवाड़ी समाज के इतिहास में इसका उल्लेख आया है, जिसकी ऐतिहासिक पुष्टि भी सप्रमाण हुई है। इसलिए अध्ययनकर्ता इन सबका अध्ययन कर समाज चक्र की ऐतिहासिक पुष्टि से संतुष्ट हो सकता है। 

वर्ण प्रधान समाज चक्र नामक अध्याय सदविप्र नामक गुरुत्व बिन्दु के बिना अपूर्ण है। चूंकि सदविप्र समाज चक्र के केन्द्र में है तथा समाज चक्र संसार के जागतिक विकास के साथ साथ चलता आया है इसलिए सदविप्र नया विषय नहीं है। यह भी समाज के विकास के साथ सदविप्र होने की पुष्टि करता है। बिना केन्द्र के ⭕चक्र एवं वृत्त की परिकल्पना ही आधार हीन है। सदविप्र समाज चक्र की धुरी है। जिसके बल पर ही समाज चक्र घूर्णनशील है। चूंकि समाज चक्र प्राचीन है इसलिए सदविप्र नूतन नहीं है लेकिन इतिहास में सदविप्र निर्माण की कोई कार्यशाला नहीं बनी। यह ऐतिहासिक कार्य युगदृष्टा श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा ही प्रथम बार किया गया। शिव तथा कृष्ण के सदविप्र होने में किसी को शक नहीं है तथा उनका दल यम नियम में प्रवीण था , इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। सदविप्र के संदर्भ में सुस्पष्ट धारणा नहीं होने के कारण यह कार्यशाला के रूप में विकसित नहीं हो पाईं। लेकिन नैतिक व्यक्ति के द्वारा समाज में क्रांतियाँ लाई गई है, उनसे इनकार नहीं किया जा सकता है। अब सदविप्र को समझने की कोशिश करते है। 

सदविप्र - प्रउत दर्शन का दूसरा सूत्र सदविप्र को समाज चक्र के केन्द्र में रहकर चक्र तथा उसकी गति को नियंत्रित करने की अवधारणा देता है। प्रउत साहित्य में सदविप्र को विस्तृत से समझाया गया है। उसकी सबसे सरल परिभाषा आनन्द मार्ग चर्याचर्य में यम नियम में प्रतिष्ठित तथा भूमाभाव के साधक के रूप में दी है। षोडश विधि को सदविप्र निर्माण की आधारशिला बताया गया है इसलिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी अपने शिष्यों से यम नियम में प्रतिष्ठित होने की आशा रखते है तथा षोडश विधि में दृढ़ होने की शिक्षा देते है। कभी कभी व्यक्ति श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के विचारों को गहनता से नहीं पढ़ने के कारण सदविप्र को एक कठिन अवस्था समझ बैठता है। जबकि सदविप्र एक सरल अवस्था है। मनुष्य की आध्यात्मिक संभावना का सही तथा वास्तविक उपयोग ही समाज को सदविप्र देता है। व्यष्टि तथा समष्टि जगत में आध्यात्मिकता एक अथाह भंडार है, जहाँ से अनन्त ऊर्जा आती है। इसका सदोपयोग ही मनुष्य को सदविप्र बनाता है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी नैतिकता के बिना आध्यात्मिकत विकास को असंभव बताते है। जबकि अविद्या का साधक नैतिकता को आध्यात्मिकता के लिए अनिवार्य नहीं मानते है। अत: अध्यात्म का दुरूपयोग होता है। यह पथ समाज को सदविप्र नहीं देता है। सदविप्र बनने के लिए षोडश विधि, यम नियम तथा ब्रह्म साधना को जीवन व्रत के रुप लेना होगा। सदविप्र समाज चक्र की धुरी है तथा चक्र नियंत्रण की समस्त शक्ति सदविप्र में निहित है। 

सदविप्र द्वारा चक्र का नियंत्रण - समाज चक्र वर्ण प्रधान तथा घूर्णनशील है। जहाँ दृश्य पटल पर शूद्र, क्षत्रिय, विप्र व शूद्र युग निश्चित क्रम में आते है। चक्र की यह गति स्वाभाविक परिवर्तन कहलाता है। जहाँ स्वाभाविक परिवर्तन से पूर्व चक्र की गति आगे अथवा पीछे करने की आवश्यकता महसूस होते है, वहाँ सदविप्र अपनी नियंत्रण शक्ति के बल पर ऐसा करते हैं। प्रउत दर्शन में इसे क्रांति, विप्लव, विक्रांति, प्रतिविप्लव एवं परिक्रांति नाम दिये गये हैं। 

सदविप्र का सामान्य लक्षण - वह आध्यात्मिक व्यष्टि सदविप्र है जो एक ही अच्छा शूद्र, अच्छा क्षत्रिय, अच्छा विप्र व अच्छा वैश्य है। इसे थोड़ा सरलतम रुप में समझते है - सेवा कार्य में प्रथम, वीरता व साहस में प्रथम, ज्ञान व बुद्धि में प्रथम तथा विषय व्यवहार में प्रथम व्यष्टि ही सदविप्र है। 

नमस्कार
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