मजबूर लोकतंत्र से मजबूत लोकतंत्र की ओर

विश्व में लोकतंत्र शासन प्रणाली को श्रेष्ठ माना गया है। राजतंत्र, कुलीनतंत्र तथा अधिनायक तंत्र के अनुभव के बाद विश्व के राजनैतिक मनीषियों ने सारांश के रुप में लोकतंत्र को उपयुक्त माना है। लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप के बारे कहा जाता है कि जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए । मेरा प्रश्न यह है कि क्या धरातल की कठोर मिट्टी पर उपरोक्त स्वरूप दृष्टिगोचर हुआ है ? सही मूल्यांकन करने वाले का उत्तर नहीं में ही रहेगा। तो क्या लोकतंत्र से भी उत्तम व्यवस्था हमारे पास मौजूद हैं ? सत्य कहा जाए तो लोकतंत्र से श्रेष्ठ व्यवस्था कोई नहीं हो सकती है। एक दल अथवा एक विचारधारा का शासन कितना भी अच्छा क्यों न हो व्यक्ति के समग्र विकास को अवरुद्ध कर देता है। इतिहास गवाह है कि नाजीवादियों का प्रभुत्व तानाशाह में बदल गया था। ठीक उसी भाँति साम्यवाद का अधिनायक तंत्र का प्रयोग मनुष्य की स्वाधीनता का हनन करने वाला सिद्ध हुआ है। परिणाम के रुप में यही कहा जा सकता है कि लोकतंत्र का कोई विकल्प इससे बेहतर नहीं है।
           आज के युग में लोकतंत्र का मजबूर स्वरूप दिखाई दे रहा है। मजबूत स्वरूप देखा नहीं गया है। लोकतंत्र के मजबूत स्वरूप ही लोकतंत्र की परिभाषा पर खरा उतरता है। लोकतंत्र कब एवं क्यों मजबूर हो जाता है? यह प्रश्न विचारणीय है। जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, नस्लवाद, आतंकवाद, दबंगता, सामंतवाद, भाषावाद तथा भाई-भतीजावाद के समक्ष जब लोकतंत्र के मूल्य झुक जाते हैं, तब लोकतंत्र का स्वरूप मजबूर हो जाता है। किसी जाति समुदाय द्वारा व्यवस्था एवं कानून को तलवार दिखाना, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाते देखकर भी जनबल के समक्ष कानून की बलि चढ़ाना, लोकतंत्र के लिए गर्व का अध्याय नहीं है । लोकतंत्र, जनमत के निर्माण की गणित के चक्कर में बुराइयों के समक्ष नतमस्तक होता जाता है तथा वह अपनी परिभाषा से दूर हटता जाता है। क्या इसका कोई इलाज है? इसका उत्तर, अधिकतर लोग नकारात्मक में देते हैं लेकिन राजनीति के विद्यार्थी को हार नहीं माननी चाहिए। उसे उसका समाधान ढूंढने के लिए एडी चोटी एक कर देनी चाहिए। इसी प्रयास का नाम ही दिया गया है, मजबूर लोकतंत्र से मजबूत लोकतंत्र की ओर।
            मजबूर लोकतंत्र को ढ़हाने तथा मजबूत लोकतंत्र को गढ़ने हेतु हम कुछ प्रयास कर सकते हैं। बुराइयों के सामने नतमस्तक होते मजबूर लोकतंत्र को अच्छाइयों तथा सद् विचारों से परिपूर्ण कर मजबूत लोकतंत्र रुप प्रदान करने के प्रयास समय - समय पर किये गये हैं और भी प्रयास करने की आवश्यकता है। एक उक्ति याद आती है कि 'कौन कहता आसमान में छेद नहीं हो सकता है, तबीयत से एक पत्थर उछाल कर देखो तो सही। लोकतंत्र को मजबूत करने की यात्रा में निकलते हैं। कुछ इस प्रकार हम करके देखते हैं।
1. मत शक्ति के दुरुपयोग से सद्पयोग की ओर ➡ चुनाव के वक्त राष्ट्रीय जागृति के नाम पर मत का सही उपयोग करने की नसीहत दी जाती है तथा जागरण के प्रयास किए जाते हैं। इसके विपरीत राजनैतिक रणनीतिकार मतदान को अपने अपने पक्ष में करने के लिए संवेदना, भावुकता का दोहन सहित उचित अनुचित हथकंडों का इस्तेमाल करते हैं। एक शराब की बोतल तथा छंद पैसों में बिकते मतदाताओं की खबर सुनते  ही शर्म आती है। कानून के निर्माता एवं रखवाले सब कुछ देख कर अनजान बन जाता है। दबंग तथा गुंडागर्दी की ताकत के समक्ष थरथराहट करता मतदाता अपनी आत्म आवाज के विपरीत चयन करता है, तब लोकतंत्र मर जाता है। जातिवाद व सम्प्रदाय की भावधारा में बहकर अच्छाई तथा सद्कार्य को नज़र अंदाज करना उचित राह नहीं है। अशिक्षित, अल्प शिक्षित तथा अजागरूक,  अयासी , कामुक, अपराधी तथा आरोपी व्यक्ति के पास मतदान की शक्ति का रहना सहज धुर्त राजनीति का शिकार होना  है। श्री प्रभात रंजन सरकार की उस मांग को मूर्त रुप देकर लोकतंत्र को मजबूत किया जा सकता है। मतदान का अधिकार यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्तियों के हाथ में रहना चाहिए। लोकतंत्र में मत शक्ति वयस्क नागरिकों के हाथ में दी गई है। वयस्क नागरिक की परिभाषा देश, काल एवं पात्र के अनुसार बदलती रहती है। मजबूत लोकतंत्र बनाने के लिए मत का अधिकार सभी के पास रहना न्याय संगत नहीं है। श्री प्रभात रंजन सरकार ने यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्ति के हाथ मत शक्ति को देने की नसीहत दी है। यम नियम मनुष्य आदर्श आचरण संहिता हैं। जो आध्यात्म नैतिकता में प्रतिष्ठित करती है। लोकतंत्र में मत का अधिकार सभी के पास रहना उचित नहीं है लेकिन सभी मतदाता बनाने हेतु प्रयास करना है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो लोकतंत्र में सभी मतदाता होना आवश्यक नहीं है। लोकतंत्र में सभी को मतदाता बनाने का लक्ष्य होना  आवश्यक हैं। राजनीति का अपरिपक्व विद्यार्थी आध्यात्म नैतिकवादियों के मत शक्ति देने को कुलिनतंत्र ओर बढ़ते कदम बता सकता है लेकिन वह ऐसा समझकर भुल करता है। कुलीनता वंशागत परंपरा में निवास करता है जबकि यम नियम में प्रतिष्ठता की अवधारणा वंशवाद में नहीं दिखाई जा सकती है। लोकतंत्र का लक्ष्य है कि सभी को मत शक्ति प्रदान करने का प्रयास करना तथा प्रत्येक नागरिक को मत शक्ति से संपन्न होने हेतु अवसर उपलब्ध करना लोकतांत्रिक मूल्य है। यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास मत शक्ति के रहने राजनेताओं की ठग प्रवृत्ति पर पूर्ण विराम लग जाएगा। एक बात मत दान करने की वस्तु नहीं है मत राजनैतिक व्यवस्था को निर्मित, नियंत्रित तथा संचालित करने की शक्ति का नाम है।
2.  शिक्षित, दीक्षित एवं प्रशिक्षित राजनेता करे प्रतिनिधित्व ➡ सफेद वस्त्र धारण कर वक्तव्य कला में अभियस्त होने मात्र  ही राजनेताओं की योग्यता रखना एक मजबूर लोकतंत्र का निर्माण करता है। सेवा का भाव प्रकृति प्रदत्त होने के साथ उचित प्रशिक्षण से निर्मित भी किया जा सकता है। श्री प्रभात रंजन सरकार ने अपने  विचार कोष में प्रतिनिधि को उस क्षेत्र के इतिहास, भूगोल, सभ्यता, संस्कृति तथा व्यष्टिगत नैतिकता, शुचिता, व्यवहार में पारदर्शीता तथा सेव्यभाव का प्रशिक्षण देना चाहिए। जितना बढ़ा पद उतना बढ़ा प्रशिक्षण भी होना चाहिए। इसके साथ राजनेता को राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति सहित समग्र ज्ञान में शिक्षित किया जाना भी आवश्यक है। राजनेता को व्यवहारिक बनाने हेतु दीक्षित भी किया जाना चाहिए। मजबूर लोकतंत्र में नेताओं की गरिमा में गिरावट आई है लेकिन मजबूत लोकतंत्र में राजनेता समाज के आदर्श पात्र रुप चित्रित किया जाएगा।
3. राजनीति तथा अर्थनीति का पृथक्करण लोकतंत्र के लिए आवश्यक ➡ मोन्टेस्क्यू ने राजराज्य की व्यवस्थापन, कार्यपालन तथा न्यायिक शक्तियों के पृथक्करण का सूत्र दिया। काश वह राजनीति एवं अर्थनीति के पृथक्करण की व्यवस्था देता तो लोकतंत्र अर्थ के हाथ की कठपुतली नहीं बनता। लोगों की आर्थिक स्वाधीनता की बढ़ता हुआ प्रथम कदम कहलाता था। मजबूत लोकतंत्र के लिए राजनैतिक तथा आर्थिक व्यवस्था का पृथक्करण आवश्यक है। अर्थ शक्ति राजनीति को अपने इशारों पर नहीं नचाए इसलिए आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण करना आवश्यक है। श्री प्रभात रंजन सरकार ने अपने चिन्तन में आर्थिक स्वतंत्रता का पक्ष लिया है।
4. नव्य मानवतावादी सोच  से मजबूत लोकतंत्र की ओर  ➡ मजबूर लोकतंत्र जाति, नस्ल, रंग तथा क्षेत्र में गोते लगाता है जबकि मजबूत लोकतंत्र में यह बाधक हैं। इनका निराकरण बुद्धि की मुक्ति से संभव है। बुद्धि की मुक्ति नव्य मानवतावाद से संभव है। इसलिए लोकतंत्र की मजबूती के लिए राज्य, समाज तथा नागरिक की सोच नव्य मानवतावादी होना नितांत आवश्यक है। सामाजिक, भूमा भावप्रवणता में बंद मन लोकतंत्र के साथ न्याय नहीं कर सकता है। राज्य पर सम्पूर्ण पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन की  जिम्मेदारी है। इसलिए जाति, क्षेत्र तथा तथाकथित मानव मात्र केन्द्रित सोच से काम नहीं चलेगा इसके लिए नव्य मानवतावाद सांचे से निर्मित व्यवस्था ही मजबूत लोकतंत्र की पहचान है। बुद्धि पर नव्य मानवतावादी मजबूत गर्डर खड्डे करने होगे ताकि व्यवस्था भावप्रवणता के विष की  भेट न चढ़े।  श्री प्रभात रंजन सरकार का यह चिन्तन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक जगत के लिए भी वरदान है। लोकतंत्र मात्र राजनैतिक विषय वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण दिशाओं को प्रभावित करता है। इसलिए चारों ओर से  चतुर रहने की आवश्यकता है।
5. उन्नत दर्शन एवं सामाजिक सोच लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक  ➡ लोकतांत्रिक मूल्य राजनैतिक जगत की विरासत है। इसके अन्दर बुराइयों को रोकने के लिए देश तथा समाज के पास एक उन्नत दर्शन तथा सामाजिक सोच का होना आवश्यक है। उन्नत दर्शन मनुष्य को पूर्णत्व की ओर ले चलता है। पूर्णत्व के अभाव में नागरिकों में धार्मिक जगत में साम्प्रदायिक, मजहबी तथा रिलिजन दृष्टिकोण का विकास होता है। यह राजनैतिक समीकरणों की दिशा एवं दशा में परिवर्तन कर देता है। जिससे कभी - कभी पर्यावरण में उन्माद की अवस्था सर्जन हो जाता है। जिसे धार्मिक उन्माद कहते हैं। लोकतंत्र में यह मूल समस्या से मनुष्य के मन को भटका देता है। लोकतंत्र की मजबूर अथवा कमजोर अवस्था का निर्माण होता है। उन्नत दर्शन मनुष्य की चेतना को उच्च करता है। उसके मन में सामूहिक जिम्मेदारी का जन्म होता है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसका होना परम आवश्यक है। उन्नत दर्शन आत्मिक पथ का संधारण के साथ सामाजिक आर्थिक चिन्तन का भी स्थान होता है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के चिन्तन में इन दोनों को स्थान दिया गया है। लोकतंत्र इन मूल्यवान सम्पदा को लेकर आदर्श प्रतिमान को प्राप्त कर सकता है।
        सामाजिक सोच अथवा सामाजिक दृष्टिकोण भी लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक हैं। एकाकी तथा पलायनवादी चिन्तन मनुष्य को स्व: केन्द्रित बना देता है। अल्प चिन्तन विखंडन की ओर अग्रसर होता है। जब यह अवस्था समाज में धीरे धीरे बढ़ती है तब समाज में नकारात्मक सोच का सर्जन होता है। नकारात्मक वातावरण लोकतंत्र को भावात्मक संवेगों में झूलने के मजबूर करता है। इसके विपरीत सामाजिक दृष्टिकोण मनुष्य में उत्तरदायित्व का बोध करवाता है। सकारात्मक अवस्था का निर्माण होता है। यह अवस्था लोकतंत्र के स्वरूप को निखार कर स्वच्छ, सुन्दर एवं मजबूत स्वरूप देता है। श्री प्रभात रंजन सरकार ने भविष्य की सभ्यता की तस्वीर बनाते समय अपने षड् सूत्रों में इनको भी स्थान दिया था। राजनैतिक के मंच पर भी यह सूत्र खरे उतरते हैं ।
6. आध्यात्मिकता से लोकतंत्र की मजबूती ➡ राजनीति तथा अर्थनीति इस विषय को अफीम अथवा बुराई की संज्ञान देकर छोड़ा है अथवा उदासीनता प्रकट की है। विश्व का प्रथम प्रजातंत्र भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में दिखाई देता है तथा इसका निर्माण आध्यात्मिकता के आधार स्तंभ पर हुआ है। इसलिए प्रजातंत्र के वास्तविक स्वरूप को अंगीकार करने के लिए इसकी उपादेयता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। आध्यात्मिक के तीन सूत्र है - साधना, शास्त्र एवं पथ प्रदर्शक ।
       साधना पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में चलने की व्यवहारिक पद्धति है। साधना के बल मनुष्य समग्रता को प्राप्त करता है। समग्रता प्राप्त व्यष्टि लोकतंत्र का सही मूल्यांकन कर सकता है। जब तक अपूर्ण नागरिक रहेंगे तब तक लोकतंत्र अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। नागरिकों के दैनिक जीवन में साधना के अभ्यास की व्यवस्था करनी चाहिए तथा समष्टि समाज के कार्यक्रम भी साधना से शुरू हो तथा साधना से समाप्त हो एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना चाहिए। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी द्वारा स्थापित आनन्द परिवार  में  ऐसी व्यवस्था है । राज्य तथा समाज इसको अंगीकार कर सकता है।
         लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षार्थ देश तथा समाज में शास्त्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। शास्त्र वर्तमान को भूतकाल से जोड़ने की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। मनुष्य में स्व: अनुशासन के भाव अंकुरण में शास्त्र का महत्वपूर्ण योगदान है। अनुशासन लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए शास्त्र की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता है। व्यष्टि तथा समष्टि की जीवन शैली को नियंत्रित एवं नियमित करते हैं। अनियंत्रित एवं अनियमित जीवन नागरिक में पापाचार के वातावरण को सृष्टि करता है। जिससे जन मन कुत्सित होता है। कुत्सित मानसिकता को नागरिक अशुद्ध लोकतंत्र का निर्माण करता है।
        व्यष्टि एवं समष्टि के विकास एवं प्रगतिशील पथगामी होने के लिए पथ निर्देशना की आवश्यकता है। पथ की निर्देशना देने के लिए जिस व्यष्टि सत्ता का चयन किया जाता है, उसमें परमपद की अवस्था का अभिप्रकाश दिखाई देना चाहिए। परम अवस्था प्राप्त व्यष्टि की निर्देशना स्वार्थ, लगाव रहित शुद्ध होती है। जब जब भी लोकतंत्र पर संकट के बादल मंडराते है तब तब पथ प्रदर्शक के  आदर्श, विचार, सिद्धांत एवं जीवन शैली से निर्देशन प्राप्त कर संकट का निस्तारण करते हैं।  मजबूत लोकतंत्र का एक पहलू पथ प्रदर्शक भी है।
8. मानव समाज एवं वैश्विक दृष्टिकोण से  संरक्षित होते लोकतांत्रिक मूल्य ➡ लोकतंत्र का निवास स्थान जातिगत एवं साम्प्रदायिक सामाजिक जीवन व्यवस्था नहीं है। यह मानव समाज की जीवन व्यवस्था में है। जहां जाति, सम्प्रदाय, नस्ल, रंग तथा अस्पृश्य की अवधारणा होगी, वहाँ लोकतंत्र जन भावना तथा आदर्श मूल्यों के साथ न्याय नहीं कर सकता है। मानवीय मूल्यों से परिभाषित लोकतंत्र ही वास्तविक जनमत का चित्रण करता है।
         वैश्विक दृष्टिकोण के अभाव में लोकतंत्र राष्ट्रवाद, क्षेत्रवाद, प्रदेशवाद, तथा जनपद की सोच में गोते लगाता है। यह सत्य है कि भौगोलिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्य एवं भाषा संरक्षण के लिए गठित इकाइयां तब तक लोकतांत्रिक मूल्यों को बल प्रदान करती है जब तक वे इकाइयां वैश्विक दृष्टिकोण एवं नव्य मानवतावादी सोच को अंगीकार करती है। यह इकाइयां अपनी सोच में अल्प चिन्तन सामाजिक तथा भौमिकी भावप्रवणता में बंद जाने पर  लोकतंत्र के मूल्य रुग्ण हो जाते हैं।
8. दल विहीन चुनाव से बलवान होता लोकतंत्र  ➡ लोकतंत्र का अर्थ विचारधारा अथवा सिद्धांतों का मूल्यांकन करना नहीं है। इसका उद्देश्य उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करना है। सिद्धांतों तथा विचारधारा का मूल्यांकन संविधान सभा का कार्यक्षेत्र है। इसलिए एक गतिशील एवं जीवित  संविधान सभा की रहना मजबूत लोकतंत्र के संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। दलगत भाव लोकतंत्र को कमजोर करता है। यह नीति एक पुण्यात्मा के सद्कर्म पर सौ पापाचारी को प्रतिनिधित्व देती है तथा एक प्रभावी पापात्मा के कुकर्मों की सजा सौ पुण्यचारियों को मिलती है। लोकतंत्र में टिकट बिक्री तथा वितरण के लिए लगने वाले हाट लोकतंत्र को शर्मसार करने अध्याय हैं। पार्टी की नाम  ठप्पा लगाने की होड़ा होड़ में रहना एक अच्छे प्रतिनिधि का गुण नहीं हैं। प्रतिनिधि का सही मूल्यांकन उसमें है कि दल का चिन्ह उसके पीछे घूमना चाहिए। प्रतिनिधि के स्वतंत्र चिन्तन को दलगत अनुशासन की काल्पनिक अवस्था दबा देती है। इसलिए लोकतंत्र को बलवान बनाने के लिए दल विहीन  प्रतिनिधित्व की अवधारणा को विकसित करना एक अनिवार्य शर्त है।
9. कुरीतियों के दमन से लोकतंत्र को मिलता है, बल ➡  सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक आडंबर एवं स्वास्थ्य संबंधी बुरी आदतों के दमन तथा सद् गुणों के विकास से सामाजिक वातावरण में स्वच्छता तथा गंभीरता का विकास होता है। नागरिकों में उत्तरदायित्व का बोध जागृत होता है। यह मानसिकता स्वच्छ एवं स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण करता है। नागरिकों में सद्गुणों विकास से शराब की बोतल व 500 ₹ की नोट में मतदाताओं के बिकने का दृश्य नहीं दिखाई देता है। रूढ़िवादी संस्कृति एक मजबूर लोकतंत्र का निर्माण करता है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए प्रगतिशील सभ्यता एवं संस्कृति की आवश्यकता है।
10. सम सामाजिक तत्व एवं लोकतंत्र ➡  मजबूर से मजबूत लोकतंत्र की यात्रा के अन्तिम पायदान में वस्तु जगत में व्यक्ति के चलने की दिशा सम सामाजिकता पर चर्चा करते हैं। सीमित जगत में मनुष्य को खुला छोड़ देने से वह अन्य के सुखों का हनन करता है। इसके विपरीत भावनाओं का दमन विस्फोट स्वरूप को प्रदान करता है। इसलिए मनुष्य के चलने का आधार होगा, सम सामाजिकता। यह एक प्रगतिशील मानसिकता अवयव है। लोकतंत्र को उसके वास्तविक रुप में प्रतिष्ठित करने के लिए सम सामाजिकता की आवश्यक है।
             मजबूर लोकतंत्र से मजबूत लोकतंत्र की यात्रा के क्रम में प्रगतिशील नव्य मानव को बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। लोकतंत्र विश्व की सर्वश्रेष्ठ राजनैतिक विचारधारा है लेकिन इसके लिए सामाजिक एवं पर्यावरण का परिवेश सर्वोत्तम निर्मित करना  आधुनिक युग के नव्य मानव के लिए जरूरी है।
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लेखक ➡  श्री आनन्द किरण 
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नोट - उक्त आलेख मेरा मौलिक, अप्रकाशित एवं स्व: रचित है।
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