आनन्दमूर्ति का पुत्र हूँ,
रक्त की एक-एक बुंद पर परहितार्थ लिखा है।
बाबा को जीवन सौपा है ,
कांटों एवं फूल में नहीं खो जाना है। तूफानों की दिशाओं को मोड़ सागर पार हो जाना,
मेरा धर्म- कर्म है।
रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो आनन्द की वर्षा जो बाबा ने की है।
उसमें भींगकर ही पार हो जाना अब मेरी तकदीर है।
उसमें भींगकर ही पार हो जाना अब मेरी तकदीर है।
यह संकल्प अब मन में है कि,
बाबा तेरे खातिर कुछ कर गुजरें अथवा मर जाना ही बेहतर है।
पुनः जन्म हुआ तो फिर से कुछ करेंगे,
मुक्ति मिल गई तो तेरे संकल्प में विलिन हो जाने की मनचाहा है।
मोक्ष की चाहत कदापि नहीं,
यदि मिल गया तो तुम और मैं एक हैं कार्य तो तुम करो चाहें में होना ही होना है।
आनन्दमूर्ति का पुत्र हूँ, सत्य के खातिर मिट जाना मेरा धर्म है।
सत्य ही बाबा है बाबा के खातिर मरना,
सौभाग्य वालों की तकदीर में होता है।
हाथ में आए इस सौभाग्य को अब नहीं खोना है।
सत्य के लिए मरना जीना एक समान हैं।
क्या फर्क पड़ता जीते जीते बाबा बाबा करें,
अथवा मरकर बाबा बन जाए।
चिन्ता तो वह करता है जिसे लूटने का डर है ।
जब बाबा की शरणों आया था,
उस दिन ही सब कुछ लूटा चुका था।
अब बस भरना ही भरना है,
रूहानी मोहब्बत का खजाना भरना ही भरना है।
वह स्वर्ग में मिल या नरक में,
सब जगह ही तो बाबा ही बाबा है।
आनन्दमूर्ति का पुत्र हूँ,
महामिलन के लिए निकला हूँ।
हसते हसते कार्य करता हूँ एवं कराता हूँ।।
बस यही समानता आनन्दमूर्ति जी एवं हम में है।
वे पूर्ण थे,
मुझे पूर्ण बनना है।
इसलिए तो आनन्द किरण बना हूँ,
फांसले अब सब मिटाने है।
श्री श्री आनन्दमूर्ति जी में मिल जाना है।
किरण आनन्द बन जाएगी,
आनन्दमूर्ति का पुत्र जब आनन्दमूर्ति बन जाएगा।।
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~© कविराज आनंद किरण
जयपुर (३:३८ pm)
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