जब परिंदा अपनी क्षमता के अनुकूल लक्ष्य निर्धारित कर उड़ान भरता तब निश्चित रुप से अपनी मंजिल को प्राप्त कर जाता है । यदि वह अपनी क्षमता से कम शक्ति से प्राप्त लक्ष्य को निर्धारित कर, उस ओर चलना शुरू करे तो उसमें उसको आनन्द नहीं आता है तथा लोग उसके उस कार्य की सराहना भी नहीं करते हैं। उस परिंदे का क्या होगा, जो अपने सामर्थ्य से अधिक लक्ष्य का निर्धारण कर उस दिशा में चल पड़ता है? इसके दो परिणाम निकल सकते है, या तो उसे अधिक ऊर्जा को जुटानी पड़ेगी या फिर लम्बी अवधि तक दौड़ना पड़ेगा। उपरोक्त परिस्थिति में परिंदे को असफलता का भय अधिक सताता रहता है। वे परिंदे निराले होते हैं, जो अतत: परिश्रम करते हैं तथा लक्ष्य को प्राप्त कर जाते हैं। यहाँ सबसे गुरुत्व प्रश्न यह कि परिंदा कौनसा लक्ष्य निर्धारित करना चाहेगा? आलसी कम सामर्थ्य वाले लक्ष्य पर चलने का आग्रह करेंगे जबकि साधारण जन क्षमता के अनुकूल लक्ष्य को चयन करने के पक्ष में अपना मतदान करेंगे। उद्यमी की बात की जाए तो वह हमेशा अधिक ताकत वाले लक्ष्य की ओर चलना चाहेगा। यहाँ प्रश्न यह हो जाता है कि उपरोक्त तीनों में से सही कौनसा है ? इसका उत्तर कुछ इस प्रकार है - उड़ान हौसलों से भरी जाती है, परों से नहीं । यदि परों भरी जाती तो हर पंछी नभ को छू लेता। मुझे लगता है कि आप उपरोक्त प्रश्न का उत्तर समझ गए होंगे। अत: यदि हमें इस धरा पर कुछ कर गुजरना हैं, तो लक्ष्य सदैव बड़ा रखना चाहिए। उस लक्ष्य को कम से कम समय एवं ताकत से हासिल किया जा सके, उस कला में दक्ष होना पड़ेगा। कार्य को सुगमता से करने के लिए ताकत से अधिक कला की आवश्यकता होती है। कई बार तो ताकत से कला अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं। कलाकार की कला तब तक ही सफल सिद्ध होती हैं जब तक वह उसके सामर्थ्य से परे नहीं होती है। सामर्थ्य से उपर कला दिखाने पर असफलता को प्राप्त कर लेता है। अत: परिणाम यही निकलता है कि क्षमता एवं कला का सही मेल करने वाला मुश्किल से मुश्किल लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकता है।
आज मुझे नेपोलियन का वह कथन प्रासंगिक एवं प्रमाणित लग रहा है कि असफलता मूर्खों के शब्दकोश में हैं। यहाँ यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि नेपोलियन तो वाटर लू की युद्ध में हार गया था। वहाँ उसका अभिमान कला एवं सामर्थ्य में असंतुलन कर बैठा था। मारवाड़ी में एक कहावत है कि बिच्छु रो झाड़ो तो जोणे कोनी, ने सांप रहे हाथ घाले अर्थात बिच्छु से निपटने की कला नहीं जानते हैं तथा उससे अधिक शक्तिशाली सांप से पंगा लेना बुद्धिमत्ता नहीं है लेकिन इसका अभिप्राय कभी यह नहीं है कि हमें लक्ष्य बड़ा नहीं रखना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि जितना बड़ा लक्ष्य है उससे पाने की उससे अधिक ही कलाओं में दक्ष होना चाहिए। अन्य शब्दों में कहा जाए तो सफलता के लिए लक्ष्य अथवा शत्रु की ताकत हमसे अधिक हो तो हार मानने की बजाए शक्ति संचय में लगना चाहिए। शक्ति ताकत, क्षमता, सामर्थ्य, हौसला एवं कला से मिलकर बनती है। परिंदे की उड़ान इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि उसकी शक्ति कितनी है बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि वह शक्ति कितनी संशय कर सकता है। इस प्रसंग में मैं श्री श्री आनन्दमूर्ति जी द्वारा रेखांकित की गई घटना का जिक्र अवश्य करूँगा महासागर के बीच पक्षी उड़ रहा है। रात होने वाली है तथा उसकी ताकत क्षीण हो गई है, जबकि किनारा भी अभी दूर है तथा दूर दूर तक कोई टापू भी नज़र नहीं आ रहा है, तब यदि पक्षी पंख हिलाना छोड़ दें तो समुद्र में गिरकर अपने प्राण गवां बैठेगा इसलिए वह पंख हिलाता ही रहता है। जब नया उषाकाल आता हैं तो वह देखता है कि किनारा आ गया। यह कहानी, यह शिक्षा देती हैं कि समस्या एवं बाधाएँ कितनी भी क्यों न आ जाए कभी भी हार नहीं माननी चाहिए। लक्ष्य की ओर बढ़ते ही जाना होगा।
गीता में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण का आप्त वाक्य का स्मरण आता हैं - कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत रखो। इसका अर्थ यह नहीं होता है कि लक्ष्य बनाओ ही नहीं। लक्ष्य सदैव निर्धारित करके चलना ही बुद्धिमत्ता है लेकिन बार-बार लक्ष्य पर ध्यान मत दो कर्म में डटे रहो। जो कर्म करता है उसे फल अवश्य ही मिलता है यह शाश्वत सत्य अवधारणा है। एक गणित का सूत्र यहाँ क्रियाशील होता है कि लक्ष्य को छोटे छोटे भागों में बाँट कर भी बड़े लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। यदि यह एक अवधारणा है तो इसे शाश्वत मानकर अंगीकार करना पड़ता ही है। यदि यह तो एक प्रमेय हैं तो इसे सिद्ध करना पड़ेगा तथा निर्मेय हैं तो इसकी रचना करनी पड़ेगी। दोनों ही परिस्थिति में कुछ किये बिना सफलता प्राप्त नहीं होती हैं इसलिए श्री कृष्ण कर्म करने की सलाह दे गए हैं। वे उन कर्मों करने की शिक्षा दे गए जो जीवन का लक्ष्य प्राप्त करवा सके तथा उन कर्मों प्रति आसक्ति छोड़ने का आदेश दिया जो मनुष्य को लक्ष्य से दूर हटाकर दुनियायी मोह माया में लिप्त कर दे। उड़ान भर रहे परिंदे को लक्ष्य प्राप्त किए बिना रुकने सलाह नहीं दी जाती है। जब तक हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं तब तक हमारे लिए कोई रविवार नहीं, कोई छुट्टी नहीं एवं कोई अवकाश नहीं, यहाँ तक कि तब तक विश्राम का समय भी नहीं होना चाहिए। निरन्तर कर्म करने से भरी उड़ान लक्ष्य दे सकती हैं।
परिंदे की उड़ान नामक मेरा आलेख तो पूर्ण हो गया लेकिन आपकी तथा मेरी उड़ान अभी जारी है। चलो हम परिंदों से बातें करते हैं। हंसते हंसते रस्तों को काट देते हैं। रास्ते में आने वाले हर कंटक को दूर हटाकर आगे बढ़ चलते हैं। तब तक हम चलते रहेंगे जब तक हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं। अब प्रश्न करता हूँ कि लक्ष्य क्या है? फंसा दिया , अब लक्ष्य पर लिखना पड़ेगा लेकिन मैं लिखने वाला नहीं हूँ क्योंकि मेरा आलेख पूर्ण हो गया है, इसलिए मैं तो एक प्रश्न करुंगा मैं कौन हूँ? इसका उत्तर यदि मुझे मिल गया तो मेरा लक्ष्य भी मुझे मिल जाएगा। यदि इसका उत्तर हमारे पास नहीं है तो परिंदे की उड़ान ही व्यर्थ है।
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आज मुझे नेपोलियन का वह कथन प्रासंगिक एवं प्रमाणित लग रहा है कि असफलता मूर्खों के शब्दकोश में हैं। यहाँ यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि नेपोलियन तो वाटर लू की युद्ध में हार गया था। वहाँ उसका अभिमान कला एवं सामर्थ्य में असंतुलन कर बैठा था। मारवाड़ी में एक कहावत है कि बिच्छु रो झाड़ो तो जोणे कोनी, ने सांप रहे हाथ घाले अर्थात बिच्छु से निपटने की कला नहीं जानते हैं तथा उससे अधिक शक्तिशाली सांप से पंगा लेना बुद्धिमत्ता नहीं है लेकिन इसका अभिप्राय कभी यह नहीं है कि हमें लक्ष्य बड़ा नहीं रखना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि जितना बड़ा लक्ष्य है उससे पाने की उससे अधिक ही कलाओं में दक्ष होना चाहिए। अन्य शब्दों में कहा जाए तो सफलता के लिए लक्ष्य अथवा शत्रु की ताकत हमसे अधिक हो तो हार मानने की बजाए शक्ति संचय में लगना चाहिए। शक्ति ताकत, क्षमता, सामर्थ्य, हौसला एवं कला से मिलकर बनती है। परिंदे की उड़ान इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि उसकी शक्ति कितनी है बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि वह शक्ति कितनी संशय कर सकता है। इस प्रसंग में मैं श्री श्री आनन्दमूर्ति जी द्वारा रेखांकित की गई घटना का जिक्र अवश्य करूँगा महासागर के बीच पक्षी उड़ रहा है। रात होने वाली है तथा उसकी ताकत क्षीण हो गई है, जबकि किनारा भी अभी दूर है तथा दूर दूर तक कोई टापू भी नज़र नहीं आ रहा है, तब यदि पक्षी पंख हिलाना छोड़ दें तो समुद्र में गिरकर अपने प्राण गवां बैठेगा इसलिए वह पंख हिलाता ही रहता है। जब नया उषाकाल आता हैं तो वह देखता है कि किनारा आ गया। यह कहानी, यह शिक्षा देती हैं कि समस्या एवं बाधाएँ कितनी भी क्यों न आ जाए कभी भी हार नहीं माननी चाहिए। लक्ष्य की ओर बढ़ते ही जाना होगा।
गीता में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण का आप्त वाक्य का स्मरण आता हैं - कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत रखो। इसका अर्थ यह नहीं होता है कि लक्ष्य बनाओ ही नहीं। लक्ष्य सदैव निर्धारित करके चलना ही बुद्धिमत्ता है लेकिन बार-बार लक्ष्य पर ध्यान मत दो कर्म में डटे रहो। जो कर्म करता है उसे फल अवश्य ही मिलता है यह शाश्वत सत्य अवधारणा है। एक गणित का सूत्र यहाँ क्रियाशील होता है कि लक्ष्य को छोटे छोटे भागों में बाँट कर भी बड़े लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। यदि यह एक अवधारणा है तो इसे शाश्वत मानकर अंगीकार करना पड़ता ही है। यदि यह तो एक प्रमेय हैं तो इसे सिद्ध करना पड़ेगा तथा निर्मेय हैं तो इसकी रचना करनी पड़ेगी। दोनों ही परिस्थिति में कुछ किये बिना सफलता प्राप्त नहीं होती हैं इसलिए श्री कृष्ण कर्म करने की सलाह दे गए हैं। वे उन कर्मों करने की शिक्षा दे गए जो जीवन का लक्ष्य प्राप्त करवा सके तथा उन कर्मों प्रति आसक्ति छोड़ने का आदेश दिया जो मनुष्य को लक्ष्य से दूर हटाकर दुनियायी मोह माया में लिप्त कर दे। उड़ान भर रहे परिंदे को लक्ष्य प्राप्त किए बिना रुकने सलाह नहीं दी जाती है। जब तक हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं तब तक हमारे लिए कोई रविवार नहीं, कोई छुट्टी नहीं एवं कोई अवकाश नहीं, यहाँ तक कि तब तक विश्राम का समय भी नहीं होना चाहिए। निरन्तर कर्म करने से भरी उड़ान लक्ष्य दे सकती हैं।
परिंदे की उड़ान नामक मेरा आलेख तो पूर्ण हो गया लेकिन आपकी तथा मेरी उड़ान अभी जारी है। चलो हम परिंदों से बातें करते हैं। हंसते हंसते रस्तों को काट देते हैं। रास्ते में आने वाले हर कंटक को दूर हटाकर आगे बढ़ चलते हैं। तब तक हम चलते रहेंगे जब तक हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं। अब प्रश्न करता हूँ कि लक्ष्य क्या है? फंसा दिया , अब लक्ष्य पर लिखना पड़ेगा लेकिन मैं लिखने वाला नहीं हूँ क्योंकि मेरा आलेख पूर्ण हो गया है, इसलिए मैं तो एक प्रश्न करुंगा मैं कौन हूँ? इसका उत्तर यदि मुझे मिल गया तो मेरा लक्ष्य भी मुझे मिल जाएगा। यदि इसका उत्तर हमारे पास नहीं है तो परिंदे की उड़ान ही व्यर्थ है।
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