प्रउत री मूल नीति मारवाड़ी कविता मांय    (The basic policy of Prout in Marwari poetry)
           
            कविता नंबर  01

           समाज री चक्रधारा

आदकाळ रो शूद्र जुग, मेहनत ही बस सार।
ना कोई जांत-पांत ही, ना कोई अहंकार।। 

पछे आयो क्षात्र जुग, तलवारों री शान।
साहसी, बलवान राजा, राख्यो जग में मान।। 

विप्र जुग फिर आयो, बुद्धि रो विस्तार।
ज्ञान-ध्यान सूं चाल्यो, संस्कृति रो आधार।। 

वैश्य जुग फिर आयो, व्यापार रो बोलबाला।
रुपियाँ री चकाचौंध, मन में भर गयो काला।। 

शोषण री जद आग बळी, विप्लव री हुँकार।
शूद्र जुग फिर उठ्यो, करबा नै प्रतिकार।। 

पर ना नेता, ना बुद्धि, शूद्रों के पास।
क्रांति पछे फेरूं, क्षत्रिय रो ही राज।। 

ऐ चक्र घूमतो रैवै, घड़ी रा काँटा ज्यूँ।
जुग बदलै तांई रीत बदलै क्युँ?

शूद्र, क्षात्र, विप्र, वैश्य, फेर विप्लव रो दाँव।
समाज री ए चक्रधारा, हर युग में फिरै ठाँव।। 


        कविता नंबर  02

चक्र बीच बिराजै सद्विप्र,
पाप मिटावणो जिणरो धरम।
चक्र केंद्र मांय बैठे सद्विप्र,
चक्र-चलावन मांय है निपुण।। 

जद-जद चक्र कोनी चालै ठीक,
पाप बढ़े अर होवै शोषण अनेक।
क्षत्रिय, विप्र चाहे वैश्य,
जद नी चालै धरम-नियम।। 

जन साधारण नै करैं परेशान,
छीनै बांरो मान सम्मान।
तद सद्विप्र आपरी शक्ति मिलावै,
सांच नै बचावणो काम है ठावै।। 

झूठ नै मिटावै, शोषकां नै दबावै,
आ'ई तो है बांरी असली कमाई।
चक्र केंद्र में बैठ्या सद्विप्र,
पाप मिटावणो ही है जिणरो धरम।। 

               
               कविता नंबर  03


क्षत्रियों रो राज, ज्यां रै जुल्मों सूं धरती कांमपै,
विप्र जुग री आंंधी, अब तो उठी है, तूफान आग्यो है।
सद्विप्र, जुग रौ चक्र, अब तो है जोर सूं घूमाणो किदौ शुरू,
शक्ति सम्पातेन, अब तो क्रांति आवे है।। 

जे थोड़े बगत में, जुग री नींव हिलाणी पड़े,
शक्ति रो अत्यधिक प्रयोग, अब तो करनो पड़े। 
विप्लव अब आवे है, जुग री रीत बदलनो पड़े,
नित नवो सूरज, अब तो उगणो पड़े।। 

जुग फिरै विपरीत, उल्टी चाल पकड़ै,
पीछला जुग में, जाणे के वापस भटकै। 
विक्रांति कहीजै है इणनै, जोड़ी टूटी-फूटी,
क्षण सो होवै, फिर नवी राह पकड़ै।। 

जद जुग जावै पाछो, तीव्र गति सूं धकेलिजै,
घणो ई कम समय में, इणनै बदलिजै। 
प्रतिविप्लव री आंधी, अब तो शुरू होवै,
क्षण भर मांय, जुग री धजा उल्टो होवै।। 

एक चक्कर पूरो, जद समाज को घूम जावै,
शूद्र जुग रो विप्लव, जद जोरदार हो जावै। 
परिक्रांति कहीजै इणनै, चक्र पुरो हो जावै,
जुग फिरैगा अब, नवो जुग अब आ जावै।। 


              कविता नंबर  04


धरती, अंबर, चाँद-सितारा,
हर कोई आप'री अलग-सी बारात।
एक-जैड़ी कोनी कोई डग,
कोई फूल, कोई पात।। 

अंग-अंग में भेद है,
मन-विचार में अंतर।
दो नैन एक कोनी,
दो सांसां कोनी समांतर।। 

ई भिन्नता में ही तो,
प्रकृति रो धरम है।
जे एक-सा करन लागो,
तो खाली हाहाकार है।। 

हरी घास रो रंग न्यारो,
सूरज री लाली न्यारी।
आँधी रो जोर न्यारो,
सावण री झड़ी न्यारी।। 

एकसा करण री बात करता,
जे प्रकृत धर्म नीं चाहो।
तो मान'रो विनाश कर'र,
खाली राख बणावा चाहो।। 

हर कण में अलग-सी ज्योत,
हर जीव में अलगीसी तात।
ई भिन्नता नै जाणो,
इण में ही तो है नवजग री बात।। 



            कविता नंबर  05


हर-पिता, गौरी-माता, घर-धरती तीनो लोक,
इण जग री हर चीज, सब मिनखां री आम पोक।
सोळा आणां री कीमत, कोई नीं पा सकै,
पण मिनख री कमती जरूरातां, हर कोई जाचै।। 

खाणो, कपड़ा, इलाज, रैवास, शिक्षा,
अै पांच जरूरातां, सगळां री परीक्षा।
हर जुग में अै जरूरातां, बदलती रैवै,
मिनख री तरक्की, नयो रूप देवै।। 

एक जुग में साइकिल, मिनख री सादड़ी,
दूजा जुग में हवाई जहाज, उँडी उड़ान भरै।
अस्या जुग में, जठै सबसूं कम जरूरातां,
सगळां नै मिलै, इण वास्तै करणी पूरी वातां।। 





             कविता नंबर  06


जुग री कमती जरूरतां, मिनख की पूरी होय,
पछै जकी बचे सम्पत्ति, बांटण रो समय होय।
गुण रा मुजब हिस्सो, गुणजन ने मिलसी,
बां री मेहनत अर लगन, दुनिया देखसी।। 

एक आम आदमी ने, साइकिल री दरकार,
डागदर ने मोटर गाड़ी, काम री है लार।। 
मोटर गाड़ी बिन वो, केम सेवा करसी?
गुण रा सम्मान रो, यो ही तो तरससी।। 

          "सेवा रो सँजोग"

सेवा करो क्षमता सूं, कमाई जरूरत सूं,
आ बात तो लागै है, मीठी घणी सूं।
पण धरती री माटी पर, यो बीज कोनी उगै,
दुनिया रा नियम है, इयां ही तो चलै।। 



               कविता नंबर  07


गुणियां रै हिस्से में घणो, सुख-सुविधा रो ठाठ,
पण ओ तो नीं है न्याय, जे कोई खाली होवै ठाठ।
एक मामूली मिनख री, कमती मान री बात,
ऊंचो उठाबा नै, करणी पड़ेला सारी रात।। 

आम आदमी साइकिल माथे, गुणिया मोटरकार,
आपणो ओ जतन है, सबको मिल जावै मोटरकार।
एक दिन जद सबको मिल जावै, चार पहिया रो सुख,
ओ देखियो जासी के, गुणिया नै चावै हवाई जहाज रो मुख।। 

फेर लाग जासी काम में, आम नै हवाई जहाज देवा,
अठे ओ नियम बणावणो, के सुख-सुविधा सबको देवा।
आ ही कोशिश माथे टिक्योड़ी है, आपणी मानवी री आस,
जब हर मिनख खुश है, तद ही होसी आपणी असली विकास।। 



            कविता नंबर  08


ई जगत रो कण कण, हर कोई साझेदार,
सब नै है अधिकार, भोगण रो भरपूर।
पण, एक जणा नै भी, ना हक बिगाड़ण रो,
सबको है बराबर, हक मिलणो जरूरी।। 

जे कोई मिनख इण दुनिया में, धन-दौलत बधावै,
बिन समाज री मर्जी, बस खुद-खुद ही लुटावै।
वा तो दूजां रा हकाँ रो, सीधो-सीधो हनन है,
दूजां रै मुँह सूं निवालों, छीनोड़ो समझणो है।। 

इयां रो आचरण, समाज री नजर में, नीच है,
आ समाज रो दुश्मन है, इयां सूं दूर रहणो ठीक है।
समाज री अनुमति रै बिना, धन संचय रो अधिकार कोनी,
आ तो सबी सूं मिल'र, एक-एक रै हक री बात है।। 




              कविता नंबर  09

स्थूल सूक्ष्म कारण तीनू जगत, 
धरती जल अग्नि आभा समीर। 
आभै में छिपी संपदा सारी, 
जीव रे हित में काम में आवे सारी।। 

जमीं, जल, वायु सब उल्टो-पुल्टो, 
मिनख अपनी जरूरत रे लिए खोजो। 
खुद री ताकत और दिमाग लगावे, 
आपरी जरूरतां री चीज बनावे।।
 
मिनख रे हाथ में आई जो संपदा, 
सोच समझ ने करे बंटवारा। 
सबरी जरूरत पूरी हो जावे, 
कोई भूखा-प्यासा ना जावे।। 

पण ध्यान राख्यो जावे एक बात को, 
जो गुणीजन है, जो विशेष होवे। 
उनको भी ध्यान राखणो चाइजे, 
अतिरिक्त संपदा सू, उणौरो सम्मान होवे।। 



               कविता नंबर  10


व्यष्टि अर समष्टि, एक-दूजे सूं जुड़िया,
ज्योत सूं ज्योत मिले, तो ही जगमग हुआ।
एकलै-एकलै चाल्यां, कोनी पूगै ठौर,
मिल'र चाल्यां सगरै, होवै सुख री भोर।। 

व्यष्टि रौ कल्याण, समष्टि री नींव,
रोटी-पानी मिलै जद, फूलै-फलै जीव।
शरीर रौ पोषण होवै, तो समाज राखे ख्याल,
एकलै-एकलै तो, कोनी चले चाल।। 

हरी हवा, उजास, अर मिलै उपचार,
तो ही समष्टि देह, लेवै सांचो आकार।
मन री भी बात है, ज्ञान रौ जागरण,
एक-दूजै रै हित में, होवै मन रो हरण।। 

सेवा-भाव जगावां, मिल'र सगलां,
तो ही समष्टि मन, हरखैला बगलां।
समझदारी री बात, समझावां सगलां,
तो ही समाज री, बढ़ेगी पगलां।। 

आत्मा री ज्योत, हर मन में जगावणी,
नीति-धरम री बात, हर घर में बतावणी।
एक व्यष्टि में शक्ति, है अपार,
पण सगलां री शक्ति, तो ही होवै पार।। 

थोड़ा-सा पण्डित, या थोड़ा-सा जोगी,
पूरा समाज कोनी, होवै निररोगी।
सगलां रो देह, मन अर आत्मा,
विकास री सम्भावना, है परब्रह्म।। 

इण शक्ति नै जगावां, सगरै काम लगावां। 
तो ही समष्टि रौ, सांचो कल्याण पावां।। 




                   कविता नंबर  11

देह व्यष्टि अर समष्टि रो, कल्याण सारू जाचै। 
स्थूल, सूक्ष्म अर कारण, तीणां मांय सुसमंजस राचै।। 

मिनख री जरूरत पूर करणी, समाज री जिम्मेवारी है
पर घर-घर अन्न पूगावै, तो सुस्त पड़े ये सारी है।। 

मेहनत री इच्छा ढीली पड़े, आलस में भर जासी। 
काम करणी री चेष्टा रो, जोश घटतो जासी।। 

समाज री इण नीत रो, मिनख काम करसी। 
आपरी कमाई सूं, मिनख खुद री क्रयशक्ति बढ़सी।। 

जे सामंजस्य विधान, पालन करसी। 
समाज वां सू सेवा, चोखी लेसी।। 

शक्ति जिनमे एक, वां सू उण री सेवा लेसी। 
शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक, वां सारू काम बणावेसी।। 

दोनो शक्तियां है जिनमे, वां सू सूक्ष्म काम लेसी। 
आध्यात्मिक शक्ति वाळा, समाज री बेसी सेवा करसी।। 

आध्यात्मिक साधक, बुद्धिमान अर सहासी है। 
समाज री लगाम उण रै हाथ में, जिके न्यारा खास है।। 

नी शारीरिक, नी बुद्धिमान, नी विषय-बुद्धि वाळा। 
बस उण रै हाथ में है, जिके तीनूं शक्ति वाळा।। 



                कविता नंबर  12


देश, काल अर पात्र रै हिसाब सूं,
बदलाव आवै हर बात में।
जो समझै नीं आ सीधी बात,
वो तो फँस्यो रैवै पिछली रात में।। 

लकीर रा फकीर बन'र,
खाली हड्डियां सूँ जकड्या रैवै।
समाज ऊं दूर धकेल्या जा'र,
आपनै पिछाणे बिना ही खड्या रैवै।। 

नेसन, अंचल अर कुल री गरिमा,
इण सिद्धांत सूँ दूर धकैला।
सीधी बात नै भी ना मान'र,
मन में कपट रा अँधेरा फैला।। 

घणो नुकसान पहुंचा'र देस नै,
आखिर में खुद ही गूम हो ज्यावै।
परदा रै पाछै री काँखां में,
आपांरी हार नै भी ना बतावै।। 


प्रगतिशील उपयोग
शक्तिशाली आदमी, हथौड़ा चलावण वालो,
विज्ञान रो उपयोग कर'र होवैला खास।
एकै सूं घणा हथौड़ा चलासी,
ऊर्जा रो उपयोग होसी अधिक खास।। 

वैज्ञानिक शोध री प्रगतिशील सोच,
मिनख री शक्ति नै नई दिशा देवै।
उन्नत यंत्र, उपकरण अर भावना,
समाज नै एक नवो आधार देवै।। 

छोटकी-मोटी असुविधावा भी,
सामने आवसी, इण काम में।
साहस राख'र लड़नो पड़सी,
हर कदम पर संघर्ष री राह में।। 

इणरी पूर्ति खातर,
सब लोग नै आगे बढ़नो पड़सी।
सार्वभौमिक चरितार्थ खातर,
विकास री डगर पर चढ़नो पड़सी।। 

प्रगतिशील उपयोग तत्व, सगळा लोगां रा हित अर सुख खातर, 
आ बात अब घर-घर पूगी।
आषाढ़ री पूर्णिमा संवत् 1968 में,
इण प्रउत री बातां मांय महक जाग उठी।। 

 कबिता रा रुप मांय प्रस्तुत करणीया - आनन्द किरण