मृत्यु एवं समाधि (Death and Samadhi)

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  [श्री] आनन्द किरण "देव"  की कलम से
आज समझने का‌ विषय 'मृत्यु एवं समाधि'  मिला है। यद्यपि इस जीवन में  अभी तक समाधि में नहीं गया हूँ तथापि इसकी महत्ता के विषय पर बहुत कुछ सुना एवं पढ़ा है। सैद्धांतिक ज्ञान एवं व्यवहारिक क्रिया के बीच आज जो संग्राम होगा, वही आलेख होगा। 

आनन्द सूत्रम में मृत्यु को कारण मन की दीर्घ निंद्रा तथा समाधि अणु महत्त की भूमा महत्त व चैतन्य में संस्थिति कहा गया है। समाधि में प्रथम को सविकल्प तथा द्वितीय को निर्विकल्प समाधि कहा जाता है। कारण मन चित्त के क्षेत्राधिकार में जबकि महत्त चित्त क्षेत्राधिकार से उपर है। अतः मृत्यु से समाधि गहरी अवस्था है। यद्यपि दोनों ही स्थिति में शरीर का मन से संबंध विच्छेद हो जाता है तथापि हमने समाधि के बाद शरीर में मन के पुनः लौटने की कहानियाँ बहुत सुनी है।  मृत्यु के बाद पुनः शरीर में लौटाने का उदाहरण दुर्लभ ही मिलते है। उसे भी समाधि अथवा चमत्कार अथवा संयोग कहकर मृत्यु नामक तत्व से उसे हटा दिया जाता है। इसलिए इस विषय को गहनता से अवलोकन करने की आवश्यकता है। मैंने प्रत्यक्षदर्शियों से सुना है कि गुरुदेव ने समाधि पर व्यवहारिक प्रदर्शन किये थे तथा समाधि प्राप्त साधकों कहानियाँ भी सुनी है। अतः यह प्रमाणित होता है कि यह विधा अवश्य ही अस्तित्व में है।

पतंजलि  ने अपने अष्टांग योग में समाधि को अन्तिम में रखा है। अर्थात योग इससे आगे नहीं बढ़ सकता है। यद्यपि योग में समाधि को अन्तिम अवस्था बताया गया है तथापि मुक्ति एवं मोक्ष की ओर भी संकेत किया है। योग मुक्ति एवं मोक्ष पर नहीं बोलता है लेकिन तंत्र मुक्ति एवं मोक्ष को गहना से समझाता है। चूंकि मुक्ति एवं मोक्ष आज हमारा विषय नहीं है इसलिए इस दिशा में आगे नहीं बढ़कर पुुुनः समाधि की ओर लौट चलते हैं। यद्यपि समाधि में व्यष्टि मन भूमा मन अथवा चैतन्य में संस्थिति हो जाता है तथापि वह अपना अस्तित्व में बनाये रखता है। मुक्ति एवं मोक्ष में अणु मन अपना अस्तित्व भूमा में मिला देता है। उसे पृथक देखना अथवा रखना असंभव है।  समाधि में मन भूमा मन अथवा चैतन्य तक चला तो जाता है लेकिन उसका अस्तित्व यथावत रहता है। इसलिए पुनः देश, काल एवं पात्र की सीमा में आ सकता है। अतः समाधि प्राप्ति साधक के वापस आने की कहानियाँ अंधविश्वास नहीं है। 

अब थोड़ा समाधि  को गहराई से समझते हैं। सविकल्प समाधि में अणु मन भूमा मन में स्थित होता है। भूमा के आनन्द का रसास्वादन करता है। चूंकि यह आनन्द सभी आधिभौतिक एवं आधिदैविक सुखों से वृहद एक अनन्त सुख है इसलिए साधक का मन वापस शरीर में आना नहीं चाहता है। लेकिन उसके अभुक्त संस्कार उसे वापस लौटना चाहते हैं। इस जंग में जब लंबा समय हो जाता है तो कभी कभी साधक को नुकसान उठाना पड़ता है। क्योंकि संसार उस शरीर को मृत समझ जला देता है। ऐसी स्थिति विदेही मन के सामने दो रास्ते रहते हैं - प्रथम विदेही मन रहकर पराभौतिक शरीर ( अग्नि, वायु, एवं आकाश नामक तीन तत्व का शरीर) धारण करें अथवा  संस्कार के अनुसार प्रकृति की मदद से नया पंच भौतिक शरीर प्राप्त करें। जगत में अल्पायु में सिद्ध संत दिखाई देने का वैज्ञानिक तथ्य यह भी है। निर्विकल्प समाधि में मन कार्य कारण से परे चला जाता है इसलिए पुनः लौटाना अथवा नहीं लौटाना उसके लिए संभव नहीं है। लेकिन उसके अभुक्त संस्कार उसकी प्रकृति को यह निर्णय करने के लिए अधिकृत करती है। इस अवस्था में मन जब पुनः अस्तित्व में आता है तब वह इससे पूर्व स्थित को महाशून्य अनुभव करता है। वह चाहकर भी निर्विकल्प अवस्था का वर्णन नहीं कर सकता है। अतः अभाव की स्थिति को ही इसके प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। सविकल्प अवस्था भी का वर्णन  नहीं कर सकता है क्योंकि वर्णन करने योग्य शब्दकोश अब तक नहीं बना है। लेकिन वह सविकल्प अवस्था का अनुभव कर सकता है तथा अन्यों आभास करा सकता है। अतः प्रमाणित किया जा सकता है कि समाधि भी जीवन की एक अवस्था है। 

अब मृत्यु  को थोड़ा समझते है - मृत्यु में कारण मन निद्रा की अवस्था को प्राप्त करता है। इसलिए चित्त व अहम, महत्त में सिमट जाते हैं। महत्त इस शरीर को छोड़कर आगामी यात्रा के लिए निकल जाता है। महत्त ही इस अवस्था में मन होता है। अहम अथवा चित्त नहीं होने से महत्त पूर्णरूपेण अकर्ता रहता है। अतः मृत्यु के बाद विदेही मन कोई काम नहीं कर सकता है। यहाँ महत्त अकेला नहीं होता है, उसके साथ संस्कारों की पूंजी होती है। अतः खाली हाथ आया खाली हाथ लौट जाना असत्य उक्ति है। चूंकि मन कोई काम नहीं करने अवस्था में उसके संस्कार के अनुकूल नूतन शरीर ढुंढ़ने का कार्य अणु प्रकृति करती है। यहाँ मन की स्वाधीनता नहीं रहती है जबकि समाधि प्राप्त मन स्वतंत्र होता है। मृत्यु प्राप्त विदेही मन के पास कोई समझ नहीं होती है लेकिन समाधि प्राप्त मन के पास समझ होती है। इसलिए यह मन पूर्व जन्म की याद रख सकता है। 

विषय को ओर अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए पराभौतिक सत्ता अर्थात देव योनी  की ओर चलते हैं। देव योनि अथवा पराभौतिक शरीर एक जीव है इसलिए उसे अणु जीवत कहते हैं।  यह सजीव तो निश्चित रूप से नहीं है, तो भी इसे निर्जीव नहीं कहा जा सकता है। इस जीव के पास तीन तत्व का शरीर होता है। इसे देखने के लिए एक खास प्रकार एकाग्र बुद्धि की आवश्यकता है इसलिए सभी लोग इस प्रकार के जीवों को नहीं देख पाते हैं। सभी इसको स्पर्श एवं सुन भी नहीं पाते हैं  लेकिन विशेष बुद्धि प्राप्त मन इन्हें देख, सुन एवं स्पर्श कर पाता है। चूंकि अणु जीवत हमारा विषय नहीं है इसलिए इसकी गहराई में नहीं जाएंगे। अणु जीवत नामक जीव अमृतक है। फिर भी वे पूर्णतया जीवित नहीं है। उन्हें अपने संस्कारों का भोग करना होता है। यह जीव इस पराभौतिक शरीर में संस्कार भोग करते हैं अथवा पुनः मानव शरीर पाकर अपनी गलती को सुधार लेते हैं। अतः पराभौतिक जीव मनुष्य के आराध्य नहीं है। मनुष्य आराध्य मात्र परम पुरुष है।  समाधि प्राप्त सिद्ध पुरुष भी मनुष्य का आराध्य नहीं है। मनुष्य का आराध्य एक मात्र परम पुरुष है, परमा प्रकृति भी नहीं। 

अब विषय को ओर आगे ले चलते है। समाधि एक विज्ञान है लेकिन मनुष्य का उद्देश्य मुक्ति अथवा मोक्ष है। लगे हाथ मुक्त पुरुष तथा मोक्ष को भी समझ ही लेते हैं। सगुण ब्रह्म में रुपान्तरित होना मुक्ति है तथा निर्गुण ब्रह्म में रुपान्तरित होना मोक्ष है। मुक्त पुरुष धरती पर आ भी सकते हैं। उनका भौतिक जगत में आना एक संकल्प सिद्धि के लिए होता है। मोक्ष परमपद है इसलिए इसके बाद कुछ नहीं है। परमपद अवस्था अवर्णनीय है। इसलिए अधिक लिख पाना संभव नहीं है। परम पुरुष की संभूति सगुण ब्रह्म है। यह सारा संसाार सगुण ब्रह्म की ही संभूति है। जबकि महासंभूति तारकब्रह्म है। वे महासंभूति काल में सगुण पुरुष की भांति ही रहते हैं।

विषय के अंत में भूतप्रेत पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उक्त के संदर्भ में अक्सर रात्रि के अंधेरे में निर्जन स्थल दिखने के दावे किये जाते हैं। कभी कभी दिन में घनघोर जंगल अथवा एकांत में दिखने की कहानियाँ सुनाई जाती है। अर्थात यह दिन की चमक अथवा सार्वजनिक स्थल पर आने से डरता हुआ सिद्ध होता है। कभी कभी यह सार्वजनिक रूप से किसी औरत अथवा‌ पुरुष में भरा हुआ भी मिलता है। यद्यपि मैं इस विषय का विशेषज्ञ नहीं हूँ। फिर भी आनन्द सूत्रम दावे के आधार पर कहता हूँ कि यह एक भ्रांति दर्शन है, जो भय, क्रोध एवं मोह के कारण आई समग्र एकाग्रता के कारण अपने मन छवि का निर्जन में बनाता है अथवा  अंदर ऐसा प्रदर्शन करता है। कमजोर मन अथवा मलिन मन इसका शिकार हो जाता है। कई बार मानसिक व्याधि के कारण पूर्व जीवन के संस्कार अथवा मित्र, परिचित व्यक्ति अथवा शत्रु के छवि के कारण भी भूतप्रेत के दावे होते हैं। पर सत्य यह है कि भूतप्रेत नामक कोई भी प्राणी अथवा अप्राणी नहीं है। यह भ्रांति दर्शन, संस्कारगत विशेष प्रकार स्मृति अथवा एक मानसिक व्याधि है। जो इस विज्ञान से अनजान मन तथा कमजोर मानसिकता में मान्यता बनकर चली है। गुरुदेव तो सलाह देते हैं कि इस प्रकार से तथाकथित  भूतगृह अथवा भूत बंगलों को साधक को खरीद लेना चाहिए। मैं एक बार पुनः कहता हूँ कि मैं इस विषय का विशेषज्ञ अथवा चिकित्सक नहीं हूँ। लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि यह एक भ्रमजाल है, जिसके शिकार कमजोर एवं व्याधि गस्त मनुष्य हो जाते हैं। असाधक के पास इसका कोई ईलाज नहीं होने कारण इस मायाजाल में फसे रहते हैं। 

विषय के परिशिष्ट पृष्ठ में लिखना चाहूँगा कि अविद्या तांत्रिक  द्वारा अपनी साधना के दुरुपयोग का परिणाम भूतप्रेत के रूप में सामने आया है। यह अविद्या तांत्रिक की अपने निजी स्वार्थ अथवा अपनी शक्ति के गलत प्रयोग के कारण सृष्ट की गई धारणा है। जिसको वास्तविक सिद्ध करने के लिए अपनी अलौकिक शक्ति का दुरूपयोग करता है। 

मृत्यु एवं समाधि विषय के लिए विदेही मन से संबंधित सभी धारणा की शल्य चिकित्सा आवश्यक थी इसलिए इस ओर गए। समाधि यथार्थ अवस्था है लेकिन यह लक्ष्य नहीं है। मनुष्य का लक्ष्य मुक्ति एवं मोक्ष है। इसके दाता तारकब्रह्म को मजबूती से पकड़ रखने की आवश्यकता है। मृत्यु एक आवश्यक अवस्था है जिसके कारण जगत निर्बाध चलता रहता है। इसके अभाव में मानव मनीषा आज भी सृष्टि के उषाकाल में ही होते। समाधि आध्यात्मिक में अनिवार्य तो नहीं है लेकिन मन इसमें होकर गुजरने में नुकसान नहीं है।
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