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श्री आनन्द किरण "देव"
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गुरुदेव ने बताया कि मनुष्य शब्द मनु धातु से आया है, जिसका अर्थ मन प्रधान जीव से है। जहाँ मन की प्रधानता है, वहाँ जीवन का महत्व है। जहाँ यह नहीं है, वहाँ जीवन का महत्व शून्य है। जहाँ जीवन नहीं वहाँ संसार का होना तथा न होना अर्थ संगत नहीं है। इसलिए जीवन तथा संसार को मनुष्य के सापेक्ष ही देखा, जाना एवं पहचान जाता है। व्यक्ति जितना मनु के नजदीक होगा, उतना ही उसके लिए जीवन एवं संसार मूल्यवान तथा उपयोगी होगा है। अत: विषय के प्रथम चरण में मनुष्य को समझना आवश्यक है।
मनुष्य को समझने की यात्रा के क्रम में हम सबसे पहले व्यक्ति से मिलते है। व्यक्ति शब्द व्यक्त के इ की मात्रा लगने से आया है, जिसका अर्थ अपने को जीवन एवं संसार के पटल पर स्थापित करना। व्यक्ति जिस प्रकार अपने जीवन को व्यक्त करता है, वह उसका व्यक्तित्व कहलाता है। समाज व्यक्ति का मूल्यांकन व्यक्तित्व के आधार पर ही करता है।
मनुष्य को समझने के दूसरे क्रम में पुरुष से मिलते है। अक्सर पुरुष को नर का पर्याय माना जाता है। जो एक गलत अवधारणा है। पुरुष शब्द नर व नारी, मर्द व मादा, देव व देवी दोनों को मिलित प्रतिनिधित्व करता है। जहाँ पुरुष है, वहाँ व्यक्ति के नर तथा मादा दोनों ही प्रकार के गुणों का रहना स्वभाविक है। एक पुरुष में नर तथा मादा के गुणों का प्रतिशत इधर उधर होने से उसे नर अथवा नारी की संज्ञा दी जाती है। नारी को मात्र जनन गुण के आधार पर ही नर से अलग नहीं किया जाता है। उसका पहनावा, ओढ़ावा, खानपान, आचार विचार इत्यादि में भिन्नता है। एक नारी में नर के गुणों का विकास देखा जा सकता है, ठीक इसीप्रकार नर में भी नारी के गुणों का विकास देखा जा सकता है। जहाँ यह गुण शारीरिक गुणधर्म को प्रभावित करने लग जाते है, उसे नपुंसक लिंग में गिना जाने लग जाता है। यद्यपि यह फिलहाल हमारा विषय नहीं भविष्य में यदि मुझे पुरुष पर स्वतंत्र निबंध लिखने अथवा व्याख्यान करने की आज्ञा मिली तो विस्तार से पुरुष के नर तथा नारीत्व स्वरूप का जैविक, मनोवैज्ञानिक तथा आत्मिक विश्लेषण प्रस्तुत करने की कोशिश करुंगा। फिलहाल हम पुरुष से मनुष्य को समझने की कोशिश करते है। पुरुष के जब गुणाधीश होता है, तब उसमें शुद्ध पुरुषत्व दिखाई देता है। इसके विपरीत पुरुष जब गुण के अधीन होता है, तब प्रकृतित्व दिखाई देता है। वस्तुतः शुद्ध पुरुषत्व गुणातीत होता है इसलिए संसार उसे देख नहीं पाता है। वह प्यार-धृणा, आकर्षण-विकर्षण इत्यादि से पृथक होता है। उसका प्रकृतित्व ही संसार के समक्ष आता है। हमारे समाज में एक भ्रम है कि प्रकृति का अर्थ नारी है। वस्तुतः प्रकृति नारी नहीं, मनुष्य में गुणों की प्रभाविता है। विशुद्ध दार्शनिक शब्द शिव व शक्ति की व्याख्या में व्यक्ति भ्रमित होकर शक्ति पर स्त्रित्व आरोपित कर दिया। यह जो नर नारी इत्यादि प्रभेद मूलक संपदा प्रकृति की है। जो भी हो फिलहाल यह हमारा विषय नहीं है। पुरुष में उपस्थित सदगुण तथा अवगुण मनुष्य का निर्माण करता है। जहाँ सदगुण अधिक है, वहाँ मनुष्य मानव है तथा जहाँ अवगुण अधिक है, वहाँ दानव है। मानव मनुष्य का पर्यायवाची है। दानव मनुष्य का कभी पर्यायवाची नहीं बना। देवता तथा दैत्य भी गुण विज्ञान के अधीन है। देव पक्ष सदगुणों सरोवर है तथा दैत्य पक्ष अवगुणों का दलदल है। सुर गुणों का सागर है तथा असुर अवगुणों का किचड़ है। इसीप्रकार ईश्वर ऐश्वर्य (सदगुणों) का महासागर है, राक्षस अवगुणों का रेगिस्तान है। भगवान सदगुणों का स्वर्ग है, तो पिशाच अवगुणों का नरक है।जहाँ मनुष्य में पुरुषत्व ही नहीं दिखता, उसे मानव देहधारियो को पशु की संज्ञा दी गई है। मुझे लगता है कि मनुष्य की पुरुष शब्द की व्याख्या ने मनुष्य को पूर्णतया समझा दिया होगा।
मानव को समझने अंतिम क्रम में मनुष्य के पास जाते है। जैसा कि गुरदेव ने बताया कि मनुष्य का अर्थ मन प्रधान जीव है। मन की यह प्रधानता मन के संगठन पर विचार करने के लिए कुछ पल के लिए रोकती है। दर्शन में बताया गया है कि चित्त, अहम् व महत् नामक मन के तीन अंग है। साक्षीत्व वाला मैं मन की सीमा से बाहर है। जिसे आत्मा अथवा अणु चैतन्य कहा गया है। चित्त कर्म बोध(object), अहम् कर्ता बोध (subject) तथा महत् अस्तित्व बोध ( super subject OR I filling) है। चित्त का संगठन कोष से होता है जिसे मनोविज्ञान में काममय, मनोमय, विज्ञानमय, अतिमानसमय तथा हिरण्यमय कहा गया है। यद्यपि यह हमारा विषय नहीं है तथापि मनुष्य को समझने के लिए इसका अध्ययन प्रासंगिक है। चित्त के यह कोष मनुष्य को मानव, देवत्व, ईश्वरत्व तथा ब्रह्मत्व की ओर ले जाता है। जिसने मनुष्य के इस स्वरूप समझ लिया, उसकी समझ में जीवन तथा जीवन मूल्य आ गया। जिसकी समझ में यह नहीं आया वह आर्थिकता से बंधा एक पशु मात्र है। जिसका संसार उसके स्वार्थ व अस्वार्थ में समाया होता है। आजकल के नेताओं के दल के पाले बदलने की क्रिया को मनुष्य वेश में छिपा पशुत्व समझने में सबसे अधिक सहायक उदाहरण है। हिसंक पशु स्वभावी के नेतृत्व जातिगत व साम्प्रदायिक उन्माद रचते है।
मनुष्य को समझने के बाद अब हम जीवन एवं संसार को समझने के प्रयास करते है। मनुष्य की भौतिक रूप इस धरती पर रहने की अवधि को जीवन नाम दिया गया है। वस्तुतः यह पाश्चात्य दृष्टिकोण है। आध्यात्मिक एवं भारतीय दृष्टिकोण मनुष्य की जीवन अवधि भूमा चैतन्य से उत्पन्न होने से लेकर भूमा चैतन्य में मिलन तक मानता है। मनुष्य का इहलोकिक जीवन, पूर्व जन्म के संस्कारों का प्रतिफलन है तथा पुनः जन्म अभी के कर्म का प्रतिफल होता है। इसलिए गुरुदेव तथा गुरुजन कहते है कि मनुष्य को अपने जीवन तथा जीवन के मूल्य को समझना चाहिए। मनुष्य के जीवन को कर्मयोग तथा उसकी समझ को ज्ञानयोग बताया गया है। भक्तियोग अर्थात जीवन लक्ष्य को पाना है। सही अर्थ में भक्तियोग ही योग है, ज्ञान व कर्म इस तक पहुँचने के सहायक साधन मात्र है। जो मनुष्य के जीवन का मूल्य नहीं समझता है, वह अपने जीवन को व्यर्थ करता है।
विषय के अंत में मनुष्य तथा उसके जीवन के परिपेक्ष्य में संसार को समझने की कोशिश करते है। संसार को हम धरती कहने के भूल करते है, वस्तुतः संसार सृष्टि तथा सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता व संहारकर्ता है। लेकिन मनुष्य के परिपेक्ष्य में संसार उसकी समझ क्षमता में समाया हुआ हैं। इसलिए आलेख का विषय मनुष्य, जीवन तथा समाज के स्थान पर मनुष्य, जीवन एवं संसार लिया गया है। समाज को तोड़ा मरोड़ा नहीं जा सकता है लेकिन संसार ऐसा होना स्वाभाविक गुण है। उसके ऐसा होने से समष्टि जगत में कोई फर्क नहीं पड़ता है, जबकि समाज को ऐसा बनाने से खून की नदियाँ भी बह जाती है। अतीत में मनुष्य ने खूनी हस्ताक्षर मानव तथा उसके समाज को नहीं समझने के कारण ही किये है। जिन्होंने इसे समझा, वह देव पुरुष के समाज पूजे गए। इतिहास की शिक्षा बताती है कि भविष्य का मानव समाज ऐसा नहीं हो इसलिए समाज को एक अखंड तथा अविभाज्य स्वरूप में रहने देना है। उसके साथ किसी भी प्रकार की तोड़फोड़ अथवा तोड़मरोड़ मनुष्य तथा उसके जीवन के लिए घातक हो सकती है।इसलिए संसार में ही मनुष्य व जीवन को रखकर अध्ययन करते है। मनुष्य का संसार मनुष्य के मन के उपयोग के सामर्थ्य पर निर्भर करता है। लघु चेतना वाला मनुष्य अपना पराय करता है, इसलिए उसका संसार अति लघु हो जाता है,कभी कभी तो उसका संसार इतना लघु हो जाता है कि वह स्वयं में डुबकर मर जाता है। नशेड़ी, कामुक, असमाजिक तत्व का जीवन तथा संसार कुछ ऐसा ही होता है जबकि उदार चरित्र वाला मनुष्य वसुधैव कुटुबं में अपना संसार देखता है। वह ही संसार आदर्श स्थापित करके जाता है। इस धरती पर जातिगत, साम्प्रदायिक, नस्ल, लिंग, क्षेत्र, भाषा के भेद को लेकर उन्माद करने वाले नरपिशाच है। उनका संसार खून की प्यास है। इसलिए मनुष्यत्व उनमें नहीं है, अत: उनका जीवन भी नहीं है। समाज उनका है ही नहीं। समाज अमन चैन तथा शांति प्रिय लोगों का है। इसलिए गुरुदेव संकीर्णता के विरुद्ध संघर्ष का पथ बताया है ।
वास्तव में यह समाज व संसार आनन्द मार्ग है तथा आनन्द मार्गियों का ही जीवन है। सही अर्थ में आनन्द मार्गी ही मनुष्य है। यह किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है। आनन्द मार्गी कभी भी साम्प्रदायिक मजहबी, मतालंबी तथा रिलिजनी नहीं होता है। क्योंकि उसका जीवन लक्ष्य परम पुरुष है। आनन्द मार्ग को संस्था एवं संगठन में भी नहीं दिखाया जा सकता है। आनन्द मार्ग सभी देश, काल व पात्र के बंधन से मुक्त है, वह अनुशासन के क्रम में अपने को संसार में आदर्श प्रतिमान में स्थापित करता है। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ को ही आनन्द मार्ग मानना एक भूल अथवा नासमझी है। आनन्द मार्ग, आनन्द मार्ग प्रचारक संघ से काफी बड़ा, विस्तृत एवं विराट है। इसलिए आप्त वाक्य का उदघोष है कि आनन्द मार्ग अमर है। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ, आनन्द मार्ग को दुनिया को दिखाने व समझाने की कार्यशाला है। जिसका सदैव सही होना जरूरी है लेकिन कभी कभी इसमें दोष भी दिखाई दे सकते है। उसे आनन्द मार्ग के आदर्श में स्थापित करके दूर करने चाहिए। जब जब आनन्द मार्ग प्रचारक संघ आनन्द मार्ग से भटकेगा तब तब महाभारत होता रहेगा तथा यह धर्मयुद्ध अनवरत चलता रहता है। इसे देखकर ज्ञानी व कर्मी विचलित हो सकते है, अंधविश्वासी पिछलग्गू हो सकता है लेकिन भक्त कभी विचलित एवं पिछलग्गू नहीं होता है। वह सदैव अनीति तथा अधर्म के विरुद्ध संघर्ष करता ही रहता है। खैर छोड़ो यह हमारा विषय नहीं है। आनन्द मार्ग मनुष्य, जीवन एवं संसार को समझने का एक मात्र रास्ता है। आओ हम सब मिलकर आनन्द मार्ग पर चले तथा इस धरा पर मनुष्य, जीवन तथा समाज के आदर्श वाले संसार का निर्माण करें।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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