साधना
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श्री आनन्द किरण "देव"
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मनुष्य का स्व:तत्व से परिचय करवाकर निजतत्व को परमतत्व में बदलने की कला एवं विज्ञान का नाम साधना दिया गया है। जब यह साधना एक कर्तव्य एवं दायित्व बन जाती है, तब वह धर्म साधना बन जाती है। शास्त्र तथा गुरुजन बताते है कि धर्म साधना मनुष्य के लिए अवश्य करणीय है। अत: मनुष्य हो तो साधना करनी ही चाहिए।
साधना करने के लिए साध्य, साधन व साधक रुपी तीन बिन्दुओं की आवश्यकता है। साध्य चरम एवं परम बिन्दु तथा साधक प्रधान एवं प्रथम बिन्दु है। साधना दोनों बिन्दु को एक दूसरे से जोड़ने अथवा एक करने वाला बिन्दु है। इन बिन्दुओं को विस्तृत समझने की आवश्यकता है।
(1). साधक - साधना की संपूर्ण जिम्मेदारी इस बिन्दु की है। अथवा अन्य शब्दों में कहा जाए तो इस बिन्दु के बिना साधना शुरू ही नहीं होती तथा अपने लक्ष्य की ओर चल ही नहीं पाती है। तो लक्ष्य पर पहूँचना दूर की बात है। इसलिए साधक कौन? यह प्रश्न मुख्य हो जाता है। साधक के लिए शास्त्र एवं गुरुजन कहते है कि मनुष्य तनधारी जीव साधना का अधिकार है तथा जो मनुष्य साधना करता है, वह साधक है। अत: साधक शब्द का अर्थ साधना करने वाला है। अब पाठक स्वयं अनुमान लगा ले कि साधक कौन है?
(2) साध्य - साध्य शब्द का साधक का लक्ष्य अथवा धेय्य से है। साधक जो पाना अथवा बनना चाहता है। वह साधक का साध्य है। मनुष्य को साधना पूर्णत्व प्राप्त करने के लिए साधना करनी चाहिए। आनन्द सूत्रम वृहद प्राणिधानस्य धर्म:। वृहद को प्राप्त होना अथवा वृहद को पाना ही धर्म है। चूंकि मनुष्य की साधना धर्म साधना है इसलिए मनुष्य का साध्य वृहत अर्थात ब्रह्म है। इसलिए मनुष्य की साधना को ब्रह्म साधना भी कहा जाता है। चूंकि ब्रह्म साध्य है इसलिए मनुष्य को ब्रह्म के अतिरिक्त किसी ओर को नहीं साधना चाहिए। जब मनुष्य ऐसा नहीं कर अर्थ, पद, यश, देश, जाति, सम्प्रदाय तथा मान इत्यादि को साधने लग जाता है, तब उसकी साधना ब्रह्म साधना नहीं रह जाती है। उसकी साधना जड़ साधना हो जाती है। चूंकि ब्रह्म साधना ही धर्म साधना है इसलिए जड़ साधना को किसी भी रुप से धर्म साधना नहीं कहा जा सकता है। जहाँ साध्य जड़ है तो मनुष्य की परिणित जड़ में हो जाती है। जो मनुष्य की उन्नति नहीं अधोगति है। यह मनुष्य को पतन की राह पर ले चलती है। इसलिए शास्त्र में ब्रह्म सद्भाव को उत्तम बताया गया है। ध्यान व धारणा को मध्यम, जप स्तुति को अधम तथा मूर्तिपूजा को अधम से अधम बताया गया है।
(3) साधन - साधना का तीसरा बिन्दु है साधन। साधन शब्द अर्थ है - जिसके द्वारा साधना की जाती है। साधन का चयन साधक करता है तथा साध्य को लेकर किया जाता है। मनुष्य का साध्य ब्रह्म है। अतः साधन भी ब्रह्म तक ले जाने वाला है। मनुष्य के पास साधन के रुप में स्थूल साधन तथा गंध, रस, रुप, स्पर्श व शब्द इत्यादि सूक्ष्म साधन के साथ भाव तथा भावातित नामक अतिसूक्ष्म साधन उपलब्ध है। इसलिए मनुष्य को इन साधन में से सबसे उपयुक्त साधन भावातित का चयन करना चाहिए। भावातित बनने के लिए शत प्रतिशत भावमय बनना होता है। जब मनुष्य भाव तरंग से लबालब भर जाता है तब वह भावातित अवस्था में प्रतिष्ठित होता है। उस अवस्था में जगत व शरीर की आवश्यकता नहीं होती है। मन की आवश्यकता भी धीरे लुप्त हो जाती है। इसी को साधक की सदगति बताया गया है। जो साधक अपनी सदगति चाहता है। उसे भावातित साधन का चुनाव करना ही चाहिए। भावातित साधना में प्रतिष्ठित के लिए भावमय होना होता है। अतः मनुष्य के करणीय साधन भाव साधना है। चूंकि ब्रह्म साध्य है इसलिए ब्रह्म भाव ही मनुष्य के लिए श्रेष्ठ साधन चयन है। इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार का भाव साधन मनुष्य को ब्रह्म की ओर नहीं ले जा सकता है तथा यह भावातित भी नहीं बना सकता है। भाव साधन में सबसे श्रेष्ठ तथा उत्तम साधन ब्रह्म भाव है। ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होना श्रेष्ठ साधना है। चूंकि मनुष्य जड़ जगत में निवास करता है। इसलिए मनुष्य को मुख्य साधन भाव साधन की सहायता के लिए सूक्ष्म जगत के साधन गंध, रस, रुप, स्पर्श व शब्द की सहायता लेनी पड़ती है। उक्त साधन की प्रकृति के अनुसार इसका चयन भी होता है। गंध साधन अधिक से अधिक मनुष्य को पृथ्वी तत्व को पार करा सकता है। इसीप्रकार रस जल तत्व से, रुप अग्नि तत्व से स्पर्श, वायु तत्व से तथा शब्द आकाश तत्व से पार करा सकते है। शास्त्र में मध्यम साधन के रुप में ध्यान व धारणा को बताया गया है। धारणा शब्द का अर्थ है। धारण करना मनुष्य क्या धारण अथवा स्वीकार करके चलता है, वह मनुष्य की धारणा बन जाती है। चूंकि मनुष्य ब्रह्म साधना करता है इसलिए ब्रह्म को धारणा के रुप में अंगीकार करता है। इसे ही मनुष्य का धर्म बताया गया है। अतः मनुष्य को धारणा में प्रतिष्ठित करने वाली शाब्दिक अभिव्यक्ति को मंत्र कहा जाता है। मंत्र मन का त्राण करता है इसलिए मंत्र नामक शब्द में ब्रह्म बल होना आवश्यक है। इसलिए मनुष्य के मन के संगठन के अनुरूप एक इष्ट मंत्र का चयन किया जाता है तथा बाह्य जगत के बंधन से सुरक्षित रखने के लिए गुरु मंत्र को साधना में स्वीकार किया गया है। यह दोनों ही मंत्र ब्रह्म भाव से परिपूर्ण है। अब तंत्र पर चर्चा करते है - जो तन का त्राण करता है। वह तंत्र है। तंत्र का अर्थ व्यवस्था है। वह व्यवस्था जिसके माध्यम मनुष्य का जगत से त्राण होता है, वह तंत्र है। तन के त्राण के लिए तंत्र की आवश्यकता स्वीकार की गई है। इसलिए तत्व धारणा में बीज मंत्र की आवश्यकता होती है। अब ध्यान पर विचार करते है। ध्यान मनुष्य को ध्येय में प्रतिष्ठित करता है। ध्यान भी मनुष्य को ब्रह्म का करना चाहिए। वही मनुष्य मनुष्य का ध्येय है। चूंकि मनुष्य का गुरु ब्रह्म ही हो सकता है। इसलिए ध्यान में गुरु ध्यान सिखाया जाता है। इस ध्यान में प्रतिष्ठित करने वाली शाब्दिक अभिव्यक्ति को 'नाम' नाम दिया गया है। मनुष्य का ध्येय उसके अतिप्रिय है इसलिए नाम भी अतिप्रिय होना आवश्यक है। यहाँ एक बात स्पष्ट समझनी चाहिए कि ब्रह्म एक है इसलिए नाम भी एक ही होता है तथा वही केवलम होता है। जब यह नाम मनुष्य की जबान से बाहर आ जाता है तब कीर्तन कहलाने लग जाता है। अतः कीर्तन को बोलकर करने की व्यवस्था दी जाती है। स्पर्श, रुप, रस एवं गंध साधन भी वही मनुष्य के लिए कल्याणकारी है जो मनुष्य को ब्रह्म की ओर धकेलते है। अतं में जड़ साधन जैसे धूप, दीप, पुष्प इत्यादि की साधक को कोई आवश्यकता नहीं है। किसी साधक के यह संस्कार बन जाते है तो सबसे उत्तम रास्ता इन्हें मानसिक बनाकर अपने इष्ट को समर्पित करने चाहिए। जागतिक जड़ साधन मनुष्य को सुपथ पर नहीं ले चलते है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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