सांस्कृतिक समाज आंदोलन - 02 (व्यवस्था से समाज का सांस्कृतिक संघर्ष)

आज चर्चा का विषय है समाज आंदोलन का प्रथम पायदान सांस्कृतिक आंदोलन। आज प्रातःकाल सत्र में सांस्कृतिक आंदोलन के प्रथम पक्ष सांस्कृतिक उत्थान को लेकर मंथन किया गया अब सांस्कृतिक आंदोलन के द्वितीय पक्ष सांस्कृतिक संघर्ष के संदर्भ में विचार करते है। हर समाज इकाई का एक सामान्य इतिहास है, यह इतिहास वहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति का निर्माण किया था। उस विशिष्टता के कारण वह जनगोष्ठी युगों से अपने पहचान बना पाई थी। भारतवर्ष के प्राण धर्म आध्यात्म पर सुव्यवस्थित ढंग से हमले किये गए तथा आज भी जारी है, जिससे व्यक्ति अपनी निजी पहचान थोड़ा दूर हट गया। जिसका प्रभाव वहाँ जनगोष्ठी की संस्कृति पर पड़ा। अतः उस जनगोष्ठी को अपनी संस्कृति, कला, साहित्य एवं इतिहास को बचाने के लिए संघर्ष करना आवश्यक है। 

1. इस संघर्ष का प्रथम बिन्दु भाषा है। कई सामाजिक इकाइयों की भाषा को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है जबकि अधिकांश इकाइयों में भाषा संवैधानिक मान्यताओं के अभाव में अवहेलना की शिकार हो रही है। जहाँ भाषा संवैधानिक मान्यता प्राप्त है वहाँ भाषा के संवर्धन को लेकर आंदोलन की आवश्यकता है तथा संवैधानिक अवहेलना की शिकार है वहाँ मान्यता एवं संवर्धन दोनों संघर्ष की समानांतर आवश्यकता है। 

2. स्थानीय एवं मातृभाषा के आंदोलन के बाद लोक कला, साहित्य, खेल एवं इतिहास के विकास में प्रयाप्त संरक्षण की आवश्यकता है, इसको लेकर भी एक आंदोलन की आवश्यकता है। 

3. स्थानीय भाषा एवं संस्कृति के स्थानीय लोगों का स्थानीय संसाधनों पर शत प्रतिशत अधिकार हो यह संघर्ष भी सांस्कृतिक आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। 

4. शिक्षा, सरकारी कार्यालयों तथा सार्वजनिक उपक्रम में स्थानीय लोगों एवं स्थानीय भाषा के प्रभुत्व का आंदोलन भी सांस्कृतिक आंदोलन की रीढ़ है। 

5. समाज इकाई क्षेत्र के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक प्रतिनिधित्व पर स्थानीय लोगों जन्म सिद्ध अधिकार है तथा उसको लेकर ही रहना है। यह सांस्कृतिक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण संघर्ष है। 

6. सांस्कृतिक संघर्ष के उत्तर चरण में एक सांस्कृतिक पहचान स्थानीय ध्वज, गान, वेशभूषा, पशु, पक्षी, वृक्ष, पुष्प इत्यादि को वैधानिक रूप से स्थापित करना है। 

7. प्रउत का सांस्कृतिक आंदोलन हर पल एक बात ध्येय के रुप में धारण करेंगा कि विश्व एकता, वैश्विक चिंतन, नव्य मानवतावादी सोच, आनन्द मार्ग दर्शन की समग्रता, सामायिक रुप राष्ट्रीय एकता के रास्ते का बाधक नहीं है, इसलिए विश्व, मानव समाज सामायिक रुप राष्ट्र आदर्श को सम्मान देते हुए, अपने स्थानीय मान्यताओं के संरक्षण का आंदोलन है। 

यहाँ सांस्कृतिक आंदोलन अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा तथा आर्थिक आंदोलन के पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी तथा प्रउत जन जन का आदर्श बन जाएगा। 

नमस्कार


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