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सर्वप्रथम सुभाष बोस ने महात्मा गाँधी को फादर ऑफ नेशन कहकर संबोधित किया था। उसके बाद तात्कालिक राजनैतिक एवं राष्ट्रीय आंदोलन के मंच पर महात्मा गाँधी के लिए राष्ट्रपिता शब्द संबोधन बन गया। उसी समय विनायक दामोदर सावरकर की विचारधारा से प्रभावित टीम ने गाँधी जी एवं नेहरू के राष्ट्रवादी एवं स्वदेशी सिद्धांत पर सवालिया निशाना लगा दिया। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या के बाद हिन्दूत्ववादी विचारधारा के लोगों को महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि से शोभित करना खलने लगा। लोग कई खुलकर तो कई गुफ्तगू में महात्मा गाँधी के लिए राष्ट्रपिता की उपाधि के विरुद्ध में विचार रखने लगे। आज यही विचारधारा एक प्रभावशाली मंच बन गया है इसलिए एक बार पुनः राष्ट्रपिता बनाम महात्मा गाँधी विषय पर चर्चा करते हैं।
राष्ट्र एक सुसंगठित विचारधारा का समुच्चय है। यह किसी एक व्यक्ति के विचारों से प्रभावित होकर आगे बढ़ती है अथवा राष्ट्र निर्माण में एक व्यक्ति के विचार बहुत अधिक प्रभावशाली होने पर राष्ट्रपिता की उपाधि शोभित होने लगती है तथा वह सभी सकारात्मक मन को भा जाती है। भारत राष्ट्र एक लंबी वैचारिक परंपरा का समुच्चय है। इसे समझे बिना महात्मा गाँधी की राष्ट्रपिता की उपाधि का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता है। वैसे सभी राष्ट्रों की अपनी वैचारिक परंपरा है लेकिन भारत राष्ट्र वैचारिक परंपरा को यदि महात्मा गाँधी में ही अटका कर रख दिया गया तो यह स्वयं भारतवर्ष के साथ न्याय नहीं है। आओ हम भारतवर्ष के साथ न्याय करने वाले तराजू को खोज निकालते हैं।
भारतवर्ष की सांस्कृतिक परंपरा के विकास में सहस्त्र ऋषि मुनियों तथा कर्मवीरों का योगदान है। इन देव पुरुषों के त्याग एवं तपस्या पर सबसे अधिक प्रभाव महादेव अर्थात भगवान सदाशिव का है। यदि मानव सभ्यता में से भगवान शिव को निकाल दिया जाए तो उनका बचा रहना भी संभव नहीं है। अतः ऐसी महान विभूति का दीदार करने वाला राष्ट्र यदि महात्मा गाँधी, महावीर स्वामी अथवा महात्मा बुद्ध में अटक कर रहे जाए तो भारत राष्ट्र नामक समुच्चय नहीं बन सकता है। निस्संदेह भारतवर्ष के निर्माण में उपरोक्त तीनों संभूतियों का बहुमूल्य योगदान है लेकिन महासंभूति सदाशिव के योगदान के समक्ष इन्हें नतमस्तक होना ही होगा। अतः हमें विश्वपिता भगवान विश्वेश्वर सदाशिव का अध्ययन करना आवश्यक है। भगवान सदाशिव ने मानव समाज हरेक उस पहलू को छूआ था जिसका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मानव से संबंध है। उन्होंने न केवल मानव तक अपने विचारों को कैद करके रखा अपितु उनके विचार समस्त सृष्टि के उ उपयोगी सिद्ध हुए। इसलिए भगवान सदाशिव के होते हुए कोई भी व्यक्ति राष्ट्रपिता ही नहीं विश्वपिता के योग्य नहीं है।
आधुनिक भारत राष्ट्र के निर्माण में महात्मा गाँधी का योगदान अवश्य ही चिरस्मरणीय है लेकिन राष्ट्रपिता का पद अवश्य ही उनके विचारों से बहुत बड़ा है। तात्कालिक राजनैतिक एवं राष्ट्रीय आंदोलन जुड़े नेतृत्व एवं कार्यकर्ताओं में महात्मा गाँधी मुकटमणि की भाँति शोभायमान थे लेकिन सुभाषचंद्र बोस को महात्मा गाँधी जी के लिए फादर ऑफ नेशन का संबोधन उनके कद से बहुत अधिक बड़ा था। जिसमें केवल एवं महासंभूति ही समा सकते हैं। यद्यपि महासंभूति किसी खंड में नहीं समा सकते हैं तथापि भारतवर्ष को महासंभूति अपना यह आशीर्वाद देने से उनके समग्र रुप में कोई कमी नहीं आएंगी। क्योंकि भारतवर्ष सीमाओं का आवरण नहीं वसुधैव कुटुबंकम का समुच्चय है। यदि कोई व्यक्ति वसुधैव कुटुबंकम को भूलकर भारतवर्ष समझने निकले तो उसकी समझ बड़ा धोखा खा रही है। अवश्य ही महासंभूति सदाशिव विश्वनाथ एवं विश्वपिता है फिर भी वे भारत पिता भी है।
भगवान श्रीकृष्ण का भारतवर्ष के निर्माण में भगवान सदाशिव से कम नहीं है फिर भी महासंभूति सदाशिव के होते हुए महासंभूति कृष्ण कभी भी राष्ट्रपिता के आगे नहीं आ सकते हैं। शिव के सम्मान में ही सबका सम्मान है। अतः राष्ट्रपिता बनाम महात्मा गाँधी अध्याय समाप्त होता है।
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